भालचंद्र नेमाडे मराठी साहित्य का एक ऐसा नाम जिसने साठ के दशक में अपनी लेखनी से
उसकी धारा बदल दी । जिन्होंने साठ के दशक के बाद चले लघु पत्रिका आंदोलन में
सक्रिय भागीदारी से मराठी साहित्य जगत को समकालीनता से जोड़े रखा था और सेठाश्रयी
पत्रिका के बरक्श चले इस आंदोलन को मजबूती दी थी । पच्चीस साल की उम्र में
भालचंद्र नेमाड़े ने अपना पहला उपन्यास लिखा था और वो भी सिर्फ सोलह दिनों में । 1963
में प्रकाशित उस उपन्यास का नाम कोसला था और उसने भालचंद्र नेमाड़े को रातोरात
मशहूर कर दिया था और मराठी में जारी साहित्यक लेखन की जड़ता पर भी प्रहार किया था ।
दो हजार दस में जब भालचंद्र नेमाडे का उपन्यास हिंदू जगण्याची समृद्ध
अडगल छपा तो उसकी भी खासी सराहना हुई थी । ये उनके उपन्यास त्रयी की पहली कड़ी थी
और नेमाडे के प्रकाशक के मुताबिक वो दूसरा खंड पूरा कर चुके हैं और उसके संपादन का
काम कर रहे हैं । उस वक्त भालचंद्र नेमाड़े ने कहा था कि हिंदू के दो और खंड लिखने
के बाद वो उपन्यास लेखन से तौबा कर लेंगे और कविता पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे
। उस उपन्या में नेमाडे ने भारती सभ्यता और संस्कृति को सिंधु घाटी सभ्यता के वक्त
से परखा है । नेमाडे भले ही मराठी में लिखते हों लेकिन उनकी लोकप्रियता ने भाषा की
सारी सरहदें तोड़ दी हैं । उनके पहले उपन्यास कोसला का कई भाषाओं में अनुवाद हो
चुका है । इन्हीं भालचंद्र नेमाड़े को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ
सम्मान देने का एलान किया है । ज्ञानपीठ सम्मान का यह पचासवां साल है । हिंदी के
सबसे बड़े लेखक नामवर सिंह की अध्यक्षता में दस सदस्यीय समिति ने भालचंद्र नेमाड़े
को सम्मानित करने का फैसला किया और अपने वक्तव्य में कहा कि – ‘भालचन्द्र
नेमाडे मराठी साहित्य में सर्वस्पर्शी तथा सर्वप्रतिष्ठित नाम है। उपन्यास, कविता एवम्ïआलोचना में उनकी विरल ख्याति है। श्री
नेमाड़े मराठी आलोचना में 'देसीवाद’ के प्रवर्तक हैं। 1963 में प्रकाशित 'कोसला’ उपन्यास ने मराठी उपन्यास लेखन में दिशा
प्रवर्तन का काम किया। इस उपन्यास ने मराठी गद्य लेखन को पिछली आधी शताब्दी में
लगातार चेतना और फॉर्म के स्तर पर उद्वेलित किया। उनके अन्य उपन्यास 'हिंदू’ में सभ्यता विमर्श उपस्थित है। यह कृति
काल की आवधारणा की वैज्ञानिक दृष्टि से भाष्य करती है। ग्रामीण से आधुनिक परिसर तक
की सामाजिक विसंगतियों को गहराई से अभिव्यक्त करने वाले श्री नेमाड़े मराठी
साहित्य की तीन पीढिय़ों के सर्वप्रिय लेखक हैं।‘
पचासवें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले भालचंद्र नेमाडे ने कोसला के
बाद बिढाल, हूर, जरीला और झूल लिखकर पर्याप्त ख्याति अर्जित की थी । उपन्सकार के
साथ साथ कवि और आलोचक भी हैं । नेमाडे ने मेलड़ी और देखणी कविता के जरिए भी अपार
लोकप्रियता हासिल की थी । बहुमुखी प्रतिभा के धनी नेमाडे ने साहित्य की लगभग हर
विधा में लेखन किया । उपन्यास और कविता के अलावा उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में
सार्थक हस्तक्षेप किया । आलोचना की उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं जिनमें टीकास्वयंवर, साहित्याची भाषा प्रमुख हैं । 1999 में टीकास्वयंवर पर उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है
। नेमाडे को पद्मश्री से भी सम्नानित किया जा चुका है । 27 मई उन्नीस सौ अड़तीस में खानदेश के एक
गांव में पैदा हुए भालचंद्र नेमाडे ने पुणे के मशहूर फर्गुयसन कॉलेज से ग्रेजुएट
और मुंबई विश्वविद्लाय से एम किया । पीएचडी और डी लिट करने के बाद भालचंद्र नेमाडे
ने अहमदनगर, धुले और औरगंबाद युनिवर्सिटी में मराठी साहित्य पढ़ाने का काम किया । उसके
बाद वो लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंज अफ्रीकन स्टडीज मे पढ़ाने चले गए । कालांतर
में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय के गुरुदेव टैगोर तुलनात्मक साहित्य चेयर की
अध्यक्षता भी की और वहीं से रिटायर हुए । भालचंद्र नेमाडे के बारे में उनके प्रकाशक ने बेहतरीन टिप्पणी की है । उसके
मुताबिक नेमाडे लोकप्रिय साहित्य नहीं लिखते लेकिन फिर भी उनका साहित्य बेहद
लोकप्रिय है । किसी भी लेखक के लिए यह टिपप्णी किसी पुरस्कार से कम नहीं है । ज्ञानपीठ
से सम्नानित होने पर नेमाडे को बधाई
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