शुक्रिया तुम्हारा । निर्मला जी ( निर्मला जैन) या मर्दतंत्र के कुछ समर्थक अपने
विद्वतापूर्ण भाषण से मेरे उपन्यास ‘चाक’ की बिक्री और पाठकों में ऐसे ही इजाफा कर देते हैं जैसे किरन बेदी का एक इंटरव्यू
‘आप’ की कई सीटों पर जीत मुकर्रर कर देता था । संदर्भ साहित्य
गोष्ठियां । ये लिखा है हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने
फेसबुक वॉल पर । अब इस फेसबुक पोस्ट में जिस तरह से तुलना की गई है वह बेहद दिलचस्प
है । एक उपन्यासकार यानी मैत्रेयी पुष्पा ने एक आलोचक को एक राजनीतिक शख्सियत के बरक्श
खड़ा कर दिया । अपने उपन्यास को दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सफलता से जोड़ते हुए उन्होंने
आलोचक निर्मला जैन को किरन बेदी से जोड़ दिया । आलोचक निर्मला जैन पर तंज कसते हुए
मैत्रेयी ने साफ कर दिया कि उनकी आलोचनाओं से उनके उपन्यास की बिक्री और पाठक दोनों
में इजाफा होता है । उपर से देखने पर यह बात छोटी और सामान्य लगती है लेकिन अगर हम
गहराई से समकालीन साहित्यक परिदृश्य पर नजर डालें तो मैत्रेयी ने अपने तंज के माध्यम
से बड़े सवाल खड़े किए हैं । अब अगर उनके शब्दों पर गौर करें निर्मला जी या मर्दतंत्र
के कुछ समर्थक । मैत्रेयी ने अपने शब्दों से हिंदी आलोचना को कठघरे में खड़ा किया है
। उन्होंने अपने उपन्यास के आलोचना के बहाने से वरिष्ठ आलोचकों की वाचिक परंपरा पर
भी सवाल खड़ा किया है । दो तीन साल पहले ही निर्मला जैन ने आलोचना के वर्तमान परिदृश्य
पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि किसी कृति पर सच कहने में डर लगता है क्योंकि लेखक बुरा
मान जाते हैं । ये बात स्मृति के आधार पर लिखी जा रही है लिहाजा शब्दों का हेरफेर हो
सकता है लेकिन भाव बिल्कुल वही हैं । अब देखिए निर्मला जी ने जाने अनजाने वर्तमान आलोचना
की स्थिति को अपने इस वक्तव्य से सामने रख दिया । सवाल तब भी उठे थे और सवाल अब भी
उठे हैं कि हिंदी आलोचना क्या इतनी डरपोक हो गई है कि वो लेखकों के नाराज हो जाने के
डर से कृतियों पर टिप्पणी करना छोड़ देगी । क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं
कही जाएगी । दरअसल अगर हम समकालीन साहित्य के पिछले बीस तीस साल के परिदृश्य पर नजर
डालते हैं तो कथा आलोचना के नाम पर लगभग सन्नाटा दिखाई देता है । आलोचना के नाम पर
समीक्षात्मक लेख लिखे जा रहे हैं जिनमें कृतियों पर परिचयात्मक लेख होते हैं । तिस
पर से आलोचकों का तुर्रा ये कि वही हिंदी साहित्य की दशा और दिशा तय करते हैं । आलोचकों
की इस प्रवृत्ति को कई लेखकों ने भी बढ़ावा दिया जब वो फैरी सफलता और चर्चा के लिए
आलोचकों के आगे हाथ बांधे खड़े होने लगे । आलोचकों में जैसे जैसे यह प्रवृत्ति बढ़ी
तो होने यह लगा कि हिंदी में उखाड़-पछाड़ का खेल शुरू हो गया । सबने अपने अपने गढ और
मठ बना लिए और आलोचक मठाधीश की भूमिका में आ गए । सेंसेक्स की तरह कृतियों को उठाने
और गिराने का खेल शुरू हो गया । साहित्य बाजार में तब्दील हो गया । नामवर जी ने हिंदी
में आलोचना की जिस वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाया उसको कई लोगों ने लपक लिया । बजाए गंभीर
अध्ययन, मनन और चिंतन के इस परंपरा को आगे बढ़ाने से हिंदी आलोचना की छवि को ठेस लगी
है । नामवर जी का तो अध्ययन इतना गहरा है कि वो जब कुछ कहते हैं तो उसमें एक संदर्भ
भी होता है और मूल्यांकन की दृष्टि भी होती है । नामवर सिंह जिस तरह से लगातार नई पीढ़ी
के लेखन से खुद को अपडेट करते हैं वह उनकी ताकत है । लिहाजा जब वो बोलते हैं तो पूरा
हिंदी साहित्य सुनता है । नामवर जी ने कहीं कहा भी है- ‘मुझ पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि आलोचना में मैं रणनीति अपनाता हूं । यह
भी कहा जाता है कि यदि मैं किसी लेखक का नाम ले लूं या उसके बारे में कुछ कह हूं तो
वह मुख्यधारा में स्थापित हो जाता है । जिसे छोड़ देता हूं वह यूं ही पड़ा रहता है
। दरअसल राजनीति में तो हाशिए पर चले जाने से नुकसान होता है पर साहित्य में हाशिया
बहुत महत्वपूर्ण होता है । हमने देखा है कि हिंदी ही नहीं, उर्दू और प्राय: सभी भाषाओं में जो लेखक हाशिए पर रहे थे, आज महत्वपूर्ण लेखक हैं । त्रिलोचन,
नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह की बात छोड़ भी दें तो निराला और गालिब के साथ यही हुआ
। प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि मिल्टन ने तो लिखा भी है – दे ऑल्सो सर्व हू स्टैंड एंड वेट ।‘ नामवर सिंह के उनके बाद की पीढ़ी के आलोचक इस हैसियत
को हासिल नहीं कर पाए,खासकर कथा आलोचना में तो बिल्कुल ही नहीं । हाशिए को महत्वपूर्म बताना कोई हंसी ठट्ठा
नहीं है यह तो अनुभव और अध्ययन से ही संभव है
।
अब अगर हम मैत्रेयी पुष्पा के कथन पर गौर करें तो वो आलोचना में उन लोगों पर भी
निशाना साधती हैं जो मर्दतंत्र के समर्थक हैं । फेसबुक पोस्ट पर मैत्रेयी पुष्पा से
कई लोगों ने यह जानने की भी कोशिश की ये मर्दतंत्र समर्थक कौन हैं । जवाब नहीं मिला।
अपनी रचनाओं की नायिकाओं के माध्यम से स्त्री विमर्श के नए आयाम गढ़नेवाली मैत्रेयी
पुष्पा जब आलोचना में मर्दतंत्र की बात करती हैं तो वो बड़े सवाल खड़ी करती हैं । हिंदी
आलोचना में मर्दतंत्र के उन समर्थकों की पहचान होनी चाहिए । इस पहचान की तलाश में अगर
आगे बढ़ते हैं तो मर्दतंत्र की जड़ें देशभर के हिंदी विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों
के आचार्यों के कमरों में मिलती हैं । इन कमरों में बैठे आचार्य विद्वान आलोचक है ।
विद्वान आलोचक( स्कॉलर क्रिटिक) शब्द पहली बार ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से निकलनेवाले
जर्नल- एसेज ऑन क्रिटिसिज्म, में सामने आया था और एफ डब्ल्यू वीटसन ने इसका प्रयोग
किया था । हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में बैठे आलोचक सच में स्कॉलर क्रिटिक
यानी विद्वान आलोचक हैं, उनसे पाठालोचन की अपेक्षा ठीक है, वो किताबों का संपादन कर
सकते हैं लेकिन उनसे सर्जनात्मक आलोचना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है । हिंदी विभागों
के ये स्कॉलर क्रिटिक अपनी महत्ता साबित करने और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए
बहुधा बयानों का सहारा लेते रहते हैं । हिंदी विभागों के इन आलोचकों का समकालीन साहित्य
के भी वास्ता रह गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । उनके लिए डॉ रामविलास शर्मा आदर्श
हैं जो कहा करते थे कि वो दूसरों का लिखा नहीं पढ़ते हैं । पढ़े बगैर अपने पूर्व के
अध्ययन के आधार पर ज्ञान देकर आज के आलोचक अपने आपको ही एक्सपोज करते हैं । अब वक्त
आ गया है कि हिंदी आलोचना खासकर कथा आलोचना के बारे में उसके औजारों और सिद्धांतों
के बारे में गंभीरता से विचार हो । मार्क्सवादी आलोचना के औजार भोथरे हो चुके हैं ।
दुनिया की अलग अलग भाषाओं में आलोचना की सैद्धांतिकी पर गंभीर बातें होती रही हैं,
नए नए औजार विकसित किए जा रहे हैं जिसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं । पश्चिम में फेमिनिस्ट
क्रिटिसिज्म ने शेक्सपीयर को नए सिरे से एक नई दृष्टि के साथ उद्घाटित किया । वहां
से होते हुए जब ये स्त्री विमर्श के रूप में हिंदी साहित्य में पहुंचा तो राजेन्द्र
यादव ने उसको एक अलग ही दिशा में मोड़ दिया । स्त्री विमर्श के आदार पर किसी रचना का
समग्रता से मूल्यांकन नहीं सका क्योंकि हमने स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ और ही शुरू
किया । ये कुछ ऐसा था जिसमें विमर्श नाम का रह गया । आज की आलोचना के सामने सबसे बड़ा
संकट अपने साख को बचाए रखने की है । आलोचकों को एक ऐसी दृष्ठि विकसित करनी होगी जिससे
वो रचनाकारों की तरह से कृतियों के पार जाकर उसको देख सकें । आलोचकों के सामने ये संकट
होता है कि वो रचनाकारों की तरह रचना के पार जाकर देख नहीं पाते हैं वो तो पाठके आधार
पर अपनी दृष्टि गढ़ते हैं और फिर उसी गढ़ी हुई दृष्टि के आधार पर रचनाओं का मूल्यांकन
करते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बहुधा आलोचक कृतियों को खोलने से चूक जाते हैं
और जबतक इस चूक को सुधारा जाता है या उसकी कोशिश होती है तबतक बहुत देर हो चुकी होती
है । अब भी वक्त है कि आलोचना अपनीएक नई शैली नई दृष्टि विकसित करे और व्यक्तिगत आग्रहों
और दुराग्रहों से उपर उठकर रचना को रचना के स्तर पर देखें और उसका मूल्यांकन करें ।इससे
कम से कम आलोचना की साख तो बची रहेगी ।और अगर साख बची रहेगी तो फिर एरक विधा के रूप
में और मजबूत और समकालीन होने में देर नहीं लगेगी ।
1 comment:
लेखक और आलोचक के संबंधों व् उसकी गंभीरता का विश्लेषण अच्छा लगा |नामवर सिंह जी के आलोचनात्मक पक्ष पर एक वरिष्ठ ,अनुभवी और परिपक्व आलोचक का जो विशुद्ध चेहरा दिखा वो एक लेखक व् पाठक के लिए संतुष्टिदायक है लेकिन जहाँ तक निर्मला जैन (आलोचक) और मैत्रेयी पुष्पा (लेखिका) के प्रकरण की बात है, जो वजहें और विचार लिखे गए वो इकतरफा लगे |निस्संदेह मैत्रेयी जी हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट और वरिष्ठ लेखिका हैं और स्त्री मुक्ति आन्दोलन की एक प्रबल दावेदार लेकिन संभवतः वे स्वयं से असहमति बर्दाश्त नहीं कर पातीं नतीजतन व्यंजनात्मक,प्रत्यक्षतः ,अपरोक्ष्तः विरोध और प्रहार करती हैं |बिलकुल सहमत हैं आपके इस कथन से कि ‘’आलोचकों के सामने ये संकट होता है कि वो रचनाकारों की तरह रचना के पार जाकर देख नहीं पाते हैं वो तो पाठके आधार पर अपनी दृष्टि गढ़ते हैं और फिर उसी गढ़ी हुई दृष्टि के आधार पर रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं ‘’इस कथन से दो बातें स्पष्ट होती हैं पहली ‘’आलोचक भी एक पाठक होता है दूसरी वो ‘’अनुभवी ज्ञानी’’ आलोचक (कभी भी )रचना के पार जाकर नहीं देख पाते ‘’|इसका तात्पर्य ये हुआ कि यदि आलोचक कहानी के किसी पक्ष,किसी घटना आदि से असहमत है या आलोचना करता है तो संभवतः लेखक /लेखिका को उसे सन्दर्भ सहित स्पष्ट करना चाहिए ,उस पर अपना पक्ष रखना चाहिए |(जैसा यहाँ अक्सर नहीं होता )|
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