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Sunday, February 28, 2016

सलमान रश्दी पर खामाशी क्यों

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देशप्रेम और देशद्रोह और हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या पर मचे कोलाहल के बीच धर्मनिरपेक्षता के ध्वजवाहकों को दूसरे मसलों पर ध्यान देने की फुरसत नहीं है । हर मसले पर फौरन प्रेस बयान जारी करनेवाली वामपंथी लेखकों की संस्था जनवादी लेखक संघ खामोश है । ये खामोशी है भारतीय मूल के मशहूर लेखक सलमान रश्दी को लेकर । हाल ही में खबर आई कि ईरान की कई मीडिया और अन्य संस्थानों ने सलमान रश्दी को जान से मारनेवाले की इनामी राशि में इजाफा कर दिया है । इन सब लोगों ने मिलकर छह लाख डालर इकट्ठा किया और एलान किया कि ये राशि पहले से घोषित इनामी राशि में जोड़ दी जाएगी । सत्ताइस साल पहले ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रश्दी की जान मारनेवाले को इनाम देने का एलान किया था । उनकी नाराजगी सलमान की 1988 में छपी किताब सैटेनिक वर्सेस को लेकर थी । खुमैनी ने उस किताब को ईशनिंदा और इस्लाम का मजाक उड़ाने का दोषी करार दिया था । खुमैनी के उस फतवे के बाद सलमान रश्दी निर्वासित जीवन बिता रहे हैं और उनको कई बार जान से मारने की नाकाम कोशिश हुई । करीब सत्ताइस साल से संगीनों के साए में जीवन बिता रहे सलमान रश्दी की जिंदगी खतरे में आ गई है । ईरान के एक मंत्री ने कहा है कि खुमैनी साहब का फतवा उनेक लिए धार्मिक अध्यादेश की तरह है जो कभी भी अपनी ताकत और महत्ता नहीं खो सकता है ।
अब सवाल यही उठता है कि पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन इस मसले पर कमोबेश खामोश क्यों हैं । सलमान रश्दी को जान से मारने के फतवा को पूरा करने के लिए बढ़ाई गई इनामी राशि के खिलाफ उनकी कलम नपुंसक क्यों हो गई है । नोम चोमस्की से लेकर उमर खालिद और कन्हैया कुमार पर छाती कूटनेवाले हमारे वामी मित्रों के मुंह इस मसले पर क्यों सिल गए हैं । सलमान रश्दी के पक्ष में और ईरान के खिलाफ किसी भी तथाकथित प्रगतिशील जमात ने बयान तक जारी नहीं किया । उन विश्वविद्लायों को प्रोफसरों का क्या जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जारी बवाल पर हस्ताक्षरित बयान जारी किया । क्या उनके हाथ कांपने लगते हैं । उस जनवादी लेखक संघ को सलमान रश्दी के मसले पर क्यों सांप सूंघ गया है जो ईमेल पर फौरन बयान आदि जारी कर विरोध जताने के लिए मशहूर हैं । दरअसल ये इनका वर्ग चरित्र है । ये चुनिंदा मामलों पर शोरगुल मचाते हैं । इनकी इसी चुनिंदा प्रतिक्रया की वजह से दूसरे लोगों को ये लगता है कि प्रगतिशील जमात का विरोध एकतरफा होता है । इस भावना के बढ़ते जाने से कट्टरपंथियों को जमीन मिलती है और वो आम लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि वामपंथी सिर्फ एक जमात के पक्ष में खड़े होते हैं । लंबे वक्त तक जब जनता देखती है कि वामपंथियों का विरोध सचमुच एक ही जमता के लिए होता है तो वो कट्टरपंथी की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं । नतीजा इस चुनिंदा विरोध से कट्टरता को बढ़ावा मिलता है । वामपंथियों को ये लगता है कि मुसलमानों के मसलों पर दखल देने से उनकी धर्मनिरपेक्षता की छवि को धक्का लगेगा, जबकि ऐसा है नहीं । किसी भी दल या संगठन को जनता के हितों की बात करनी चाहिए लेकिन अफसोस कि भारत की प्रगतिशील जमात भी जाति और धर्म के बाड़े से बाहर नहीं जा पाई है । समानता की बुनियादी सिद्धांत का दावा करनेवाले ये संगठन, दरअसल अपनी दुकान चलाते हैं और कारोबार के लिहाज से ही अपने कदम उठाते हैं ताकि मुनाफा हो सके ।

ये पहला मौका नहीं है जहां वामपंथियों ने इस तरह का रुख अपनाया है । पहले भी कई मौकों पर देखा गया है कि वो बहुसंख्यक समाज की गड़बड़ियों को लेकर जितने मुखर होते हैं उतनी मुखरता के साथ वो अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याओं पर अपना पक्ष नहीं रखते हैं । चाहे वो सलमान का मसला हो या फिर तसलीमा नसरीन का हो । पहले पश्च्म बंगाल की प्रगतिशील सरकार ने तसलीमा के साथ न्याय नहीं किया और फिर उसके बाद ममता बनर्जी की सरकार ने भी वामपंथियों से लाख विरोध के बावजूद तसलीमा नसरीन को बंगाल में रहने की इजाजत नहीं दी । तसलीमा नसरीन की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार किसी भी प्रगतिशील लेखक को याद नही आया । जब बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकाला था तब भी ये वामपंथी लेखक और उनके संगठन खामोश रहे थे । दरअसल प्रगतिशीलता के चोले के पीछे वोटबैंक की राजनीति काम करती है । ये बात सबको पता है कि जो तीन लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, हैं वो सब अपने राजनीतिक दलों से संबद्ध हैं । इन लेखक संगठनों को अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह देखना होता है उसी अनुसार ये अपनी रणनीति बनाते हैं । सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के मामले से वोटबैंक की राजनीति जुड़ी हुई है लिहाजा इन प्रगतिशीलों के आका खामोश हैं । जब आका खामोश तो फिर कारकुनों की क्या मजाल कि जुबान से कुछ भी निकल जाए । दरअसल यही वजह भी रही कि हमारे देश में इन प्रगतिशील लेखकों की साख छीजती चली गई । साख के कम होने का प्रमाण पुरस्कार वापसी के वक्त भी देखने को मिला । चालीस पचास लेखकों ने पुरस्कार वापस किए लेकिन एक सर्वे के मुताबिक उनके खिलाफ उस दौर में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सवा सौ से ज्यादा लेख छपे थे ।   दपअसल जब भी इस तरह का मामला सामने आता है तो मुझे राजेन्द्र यादव और हंस के साथ हुआ वाकया याद आता है । दिल्ली में हंस की सालाना गोष्ठी में कथित क्रांतिवारी कवि बरवर राव को आना था । राजेन्द्र यादव से उन्होंने वादा भी किया था और अंत तक झूठ बोलते रहे कि एयरपोर्ट पर पहुच गए हैं, रास्ते में हैं लेकिन उनका रास्ता मंजिल की तरफ ना जाकर कहीं और चला गया था । वरवर राव की इस वादा खिलाफी का किसी वामपंथी लेखक ने विरोध नहीं किया था बल्कि उनके कदम को यह कहकर जायज ठहराने की कोशिश की गई थी कि वो दक्षिणपंथी लेखक के साथ मंच कैसे साझा कर सकते हैं । जीवनभर वामपंथ का खूंटे से बंधे रहे राजेन्द्र यादव उस वक्त वामपंथियों के रुख से खासे झुब्ध थे । उन्होंने तब माना था कि इनकी विश्वसनीयता संदिग्ध होती जा रही है लेकिन आस्था के वशीभूत वो उनको बेनकाब करने से तब भी बचे थे ।  

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