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Thursday, November 10, 2016

आजादी की आड़ में अराजकता क्यों

एक निजी न्यूज चैनल एनडीटीवी पर सरकार ने एक दिन की पाबंदी का एलान किया था और फिर चैनल के पुनर्विचार की दरख्वास्त को मंजूर करते हुए अपने फैसले की पुनर्समीक्षा तक पाबंदी पर रोक लगा दी । पत्रकारों के संगठन ने सरकार के इस फैसले को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करनेवाला कदम करार दिया । सरकार पर आरोप लगे कि वो सवाल सुनना पसंद नहीं करती है और अपने आलोचकों का मुंह बंद कर देश में इमरजेंसी जैसे हालात पैदा करना चाहती है । एडीटर्स गिल्ड से लेकर देशभर के प्रेस क्लबों में सरकार के इस कदम पर बहस शुरू हो गई । ज्यादातर लोगों ने केंद्र सरकार के इस कदम को केबल एंड टेलीविजन रेगुलेशन एक्ट की आड़ में मीडिया की आजादी को दबाने वाला करार दिया गया । सरकार लाख दलील दे रही थी कि ये पाबंदी विशेषज्ञों की टीम ने पठानकोट हमले के दौरान एनडीटीवी की कवरेज को देखने के बाद कानून के हिसाब से लगाई है लेकिन कोई भी इस बात को मानने को तैयार नहीं था । दरअसल जिस बिनाह पर एनडीटीवी पर पाबंदी लगाई है वो बहुत ही कमजोर है । पिछले साल सरकार ने केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल में एक एक अतिरिक्त धारा जोड़ी थी जिसका पहली बार एनडीटीली पर इस्तेमाल किया गया । इस पूरे विवाद से इस धारा के मार्फत सरकार को मिले लगभग असीमित अधिकार का पता पूरे देश को चल गया है । इसपर भी बहस की आवश्यकता है ।  
करीब हफ्ते भर चले विरोध प्रदर्शन के बाद सरकार ने पाबंदी को स्थगित कर दिया लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के दौरान पूरे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहस छिड़ गई । अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर हमारे देश के लोग बेहद संवेदनशील रहे हैं । आजादी के बाद जब षश में संविधान लागू हुआ थी तब चंद मामलों को छोड़कर लगभग पूर्ण आजादी थी खुद को अभिव्यक्त करने के लिए ।  लेकिन उस वक्त नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्य और अखंड भारत की मांग कर रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पाकिस्तान के खिलाफ भाषणों को लेकर चिंतित रहा करते थे । उन्होंने इस बारे में उस वक्त के गृह मंत्री सरदार पटेल से भी सलाह मशविरा किया था । दरअसल आजादी और बंटवारे के 1949-50 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर जमकर हमले हुए थे और एक बड़ी आबादी वहां से पलायन कर गई थी । इस भ.नक हिंसा के बाद नेहरू और पाकिस्तानी पीएम लियाकत अली खान के बीच एक समझौता होना तय हुआ जिसे बाद में नेहरू लियाकत समझौते के नाम से जाना गया । इस समझौते के पहले दोनों देशों की सरकारें इस बात पर सहमत हुई थी कि युद्ध के खिलाफ किसी भी तरह के प्रचार को अपनी धरती पर नहीं होने देंगे । उस वक्त इस समझौते की सबसे बड़ी बाधा संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी थी । पाकिस्तान श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अखंड भारत के भाषणों को युद्धोन्माद मानते हुए आपत्ति जता रहा था । उसी वक्त ये तय हुआ कि अभियक्ति की आजादी की सीमा तय की जाए और फिर संविधान का पहला संशोधन हुआ जिसमें इसकी सीमा तय कर दी गई । तब बहाना बना था मद्रास से निकलनेवाली पत्रिका क्रासरोड और संघ से जुड़ी पत्रिका आर्गेनाइजर में छप रहे लेख । दोनों केस में अदालत में सरकार के पक्ष को ठुकरा दिया था जिसके बाद सरदार पटेल ने नेहरू को संविधान में संशोधन की सलाह दी थी । उस वक्त अंबेडकर ने भी इस बिल का समर्थन किया था । यह तो अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाने की ऐतिहासिकता है जो दस्तावेजों में दर्ज है ।
उसके बाद इमरजेंसी में एक बार फिर से मीडिया की आजादी पर प्रहार किया गया जिसका प्रतिवाद हुआ लेकिन कई लोग सरकार के साथ हो लिए थे । आजाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने का ये दूसरा गंभीर प्रयास था । तीसरा प्रयास भी कांग्रेस के शासनकाल में ही हुआ जब 1988 में राजीव गांधी सरकार ने डिफेमेशन बिल के द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात करने की कोशिश की थी । राजीव गांधी भी अपने इस प्रयास में विफल रहे थे । चौथी गंभीर कोशिश मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुआ जब केबल एंड टेलीविजन एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव आया था जिसमें इलाके के एसडीएम को ये अधिकार प्रस्तावित था कि वो टी वी चैनल का प्रसारण बंद करवा सकता है । यह कोशिश भी परवान नहीं चढ़ सकी थी । अभिव्यक्ति की आजादी को अब ज्यादा कम करना किसी भी सरकार के वश में नहीं है । जरूरक इस बात की है कि संविधान में उसकी जो सीमा और मर्यादा तय की गई है उसका पालन करवाने की कोशिश की जानी चाहिए ।   
मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर छाती कूटनेवालों को दरअसल बुनियादी सवालों पर भी विमर्स करनी चाहिए । ये बुनियादी सवाल हैं पत्रकारों की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा और मीडिया का स्वनियमन । इन बुनियादी सवालों से हटकर अगर हम सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते हैं तो वो खोखली लगती है और किसी खास मंशा से उठाई गई बहस भी प्रतीत होती है । अगर पत्रकारों को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का भरोसा नहीं रहेगा तो वो अभिव्क्ति की आजादी का उपयोग नहीं कर पाएंगे और कहीं ना कहीं से प्रभावित होकर काम करेंगे । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सही मायने में तभी हासिल की जा सकती है जब इसका उपयोग करनेवाले स्वतंत्र हों । दूसरे स्वनियम इसका एक आवश्यक तत्व है । न्यूज चैनलों ने स्व नियमन के लिए एक संस्था बनाई हुई है लेकिन उसके द्वारा उठाए गए कदम नाकाफी हैं और उसको और मजबूत करने की जरूरत है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में मीडिया को अराजक होने का लाइसेंस नहीं मिल जाता है । बहुधा यह देखा गया है कि इसकी आड़ में मशहूर शख्सियतों पर कीचड़ उछालने का काम भी किया जाता है । हालिया उदाहरण बिग बॉस के शो का है जहां क्रिकेटर युवराज सिंह के भाई जोरावर सिंह की अलग रह रहा पत्नी को शो में प्रतिभागी बनाया गया और उसने जोरावर सिंह के खिलाफ बेहद संगीन इल्जाम लगाए । जबकि ये पूरा मामला अदालत में विचाराधीन है । सवाल यह कि अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में क्या मीडिया किसी की इज्जत उछालने के लिए मंच दे सकता है ।
अभिव्यक्ति की आजादी पर बहस उचित है लेकिन उतनी ही जायज बहस होनी चाहिए आतंकवादी घटनाओं की कवरेज को लेकर मीडिया की लक्ष्मण रेखा को लेकर । हमारे सामने मुंबई पर हुआ आतंकी हमले का उदाहरण है जहां लगातार कवरेज की वजह से आतंकवादियों को मदद मिली थी । उसके बाद सरकार ने आतंकवादी हमले के दौरान कवरेज को लेकर एक गाइडलाइन को बना दी थी लेकिन बहुधा उत्साह और न्यूज चैनलों के सबसे पहले की आपाधापी में गड़बड़ी हो जाती है । किसी ने कहा है कि आतंकवाद एक तरह का नाटक है तो भारतीय परिदृश्य में अगर इस नाटक की बात करें को क्या ये कहना उचित होगा कि मीडिया उस थिएटर का जाने अनजाने एक हिस्सा बन जाता है । अब अगर हम अपने यहां के न्यूज चैनलों को देखें तो बगदादी और इस्लामिक स्टेट के वीडियो पर किकने घंटों के प्रोग्राम बन रहे हैं । वो आतंकवाद हमारे देश से या हमारी सरजमीं से जुडा नहीं है लेकिन जिस वीभत्स तरीकों का इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी अपने कारनामों को अंजाम देते हैं उसको दिखाने का औचित्य क्या है । दरअसल फ्रांस में भी आतंकवादी घटनाओं की कवरेज को लेकर बहस चल रही है । फ्रांस के सबसे बड़े अखबार और न्यूज चैनल ने ये फैसला लिया हुआ है कि वो आतंकवादी वारदातों को अंजाम देनेवाले आतंकवादियों की तस्वीरें नहीं दिखाएंगें । उनका मानना है कि इससे आतंकवादी को हीरो बना दिया जाता है । तो जबतक अभिव्यक्ति की आजादी के हर पहलू पर विचार होकर कुछ ठोस नहीं निकलेगा तबतक एनडीटीवी पर बैन जैसी घटनाएं संभव है ।


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