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Saturday, November 19, 2016

युवाओं से वरिष्ठों को परहेज क्यों ?

पिछले दिनों दिल्ली में दो दिनों का युवा साहित्यकार सम्मेलन - युवा 2016 संपन्न हुआ । ये आयोजन रजा फाउंडेशन और इसके प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी की पहल और अगुवाई में संपन्न हुआ । जब इस समारोह का निमंत्रण पत्र मिला तो लेखकों की सूची देखकर लगा कि इसमें कई तो युवावस्था को पार कर चुके हैं । मन में ये भी सवाल उठा कि अशोक जी किस उम्र तक के लेखकों को युवा माने बैठे हैं । आयोजन के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर इस आयोजन में शामिल हो रहे कथित युवा लेखकों की उम्र को लेकर लंबी चौड़ी बहस चली । विवाद का धुंआ भी उठा । दरअसल ये विवाद इस वजह से उठा कि इस सम्मेलन में बुलाए जानेवाले युवा लेखकों का नाम प्रस्तावित करने के लिए वरिष्ठ लेखकों, पत्रकारों आदि को एक पत्रावली भेजी गई थी जिसमें चालीस साल की उम्र सीमा का उल्लेख था लेकिन सूची में शामिल कई लेखक चालीस पार के होने की वजह से सवाल उठने लगे थे । सोशल मीडिया पर इस आयोजन को लेकर उठे विवाद में एक सवाल बार बार उठ रहा था कि हिंदी साहित्य में युवा लेखक किसको और कितनी उम्र तक वालों को माना जाए । क्या कोई उम्र सीमा होनी चाहिए जिसके पार कर लेने के बाद लेखक को युवा के कोष्ठक से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए । फेसबुक पर इस विवाद में कूदी दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व शिक्षिका और साहित्यक पत्रिका हंस के संपादन से लंबे समय तक जुड़ी रही अर्चना वर्मा । उन्होंने लिखा- रही बात चालीस वर्ष तक युवा की। तो भाई, किसी भी समय लेखकों की अमूमन चार पीढ़ियाँ सक्रिय होती हैं। पहली वरिष्ठ, दूसरी वरिष्ठ होने की दिशा में अग्रसर स्थापित और प्रतिष्ठित । मौजूदा पीढ़ियों में जो भी सीनियर-मोस्ट होते हैं वे इनमें आते हैँ और उसी के हिसाब से आयुसीमा निर्धारित समझनी चाहिये । तीसरी पीढ़ी पहचान बना चुके या बनाने की दिशा में अग्रसर रचनाकारों की और चौथी पीढ़ी प्रवेश करते और अपनी रचनात्मक संभावनाओं का परिचय और पुष्टि करते रचनाकारों की। तीसरी और चौथी को मैँ युवा पीढ़ी में शुमार करने चाहूँगी। चालीस उसके लिये एक उचित अधिकतम आयु सीमा जान पड़ती है । युवा का निर्णय यहां बीस बाइस पच्चीस जैसे साल-निर्धारण से नहीं होता। जाहिर है संस्तुति भेजने वाले उम्र का पीढ़ी में प्लेसिंग के हिसाब से अनुमान करते हैं, रचनाकार की जन्म-कुण्डली से परिचित प्रायः नहीं होते। और यह पीढ़ी सम्मत जन्मतिथि बाल-अपराध की धारा के हिसाब निश्‍चित निर्विवाद भी नहीं हो सकती कि एक दिन कम होगा तो हत्या और बलात्कार के लिये तीन साल का रिमाण्ड होम, एक दिन ज्यादा हुआ तो उम्रकैद या फांसी । एकाध साल इधर उधर हो तो भी रचनाकार को उसका प्राप्य मिल जाना चाहिये ।‘  अर्चना जी ने पीढियों का जो वर्गीकरण किया है उसमें वो खुद ही उलझती नजर आती हैं । एक तरफ तो वो अपने वर्गीकरण के हिसाब से तीसरी और चौथी पीढ़ी को युवा मानती हैं लेकिन उसमें चालीस की उम्र का राइडर भी लगाती हैं । क्या दोनों तर्क साथ चल सकते हैं ? पीढियों के वर्गीकरण पर एक बार फिर साहित्य में बहस की गुंजाइश नजर आती है ।
अब आते हैं युवा लेखक सम्मेलनों पर । मेरे जानते हिंदी में संगठित और अखिल भारतीय स्तर का पहला युवा लेखक सम्मेलन साहित्य पत्रिका सिर्फ के तत्वाधान में पटना में 27-28 दिसबंर 1970 को पटना में हुआ था । उस दौर के सभी चर्चित युवा लेखकों को उसमें बुलाया गया था । उन्नीस सौ सत्तर में आयोजित सम्मेलन के दौरान भी युवा लेखकों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी थी लेकिन तब भी मोटे तौर पर चालीस के आसपास के लेखकों को ही उसमें बुलाया गया था । उस सम्मेलन में भी कुछ अपवाद थे । जैसे नामवर सिंह की उम्र उस वक्त तैंतालीस साल थी । परंतु ज्यादातर लेखक तीस साल के थे जिनमें अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, वेणुगोपाल. इब्राहिम शरीफ आदि का नाम याद आ रहा है । तब नागार्जुन को उसमें बुलाया गया था परंतु उन्होंने तब कहा था कि वो युवा लेखक सम्मेलन में बूढ़े बंदर की तरह इधर उधर डोलना नहीं चाहते हैं । नागार्जुन ने जो टिप्पणी की थी वो इस वक्त हिंदी के बुढाते युवा लेखकों को शायद ज्ञात ना हो वर्ना वो युवा कहलाने के दायरे से बाहर होते । पटना में आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में जिन युवा लेखकों की पहचान की गई थी उसमें से ज्यादातर कालांतर में हिदीं साहित्य के मूर्धन्य कवि, कहानीकार और आलोचक के तौर पर स्थापित हुए । पटना में उस वक्त कई सत्र आयोजित किए गए थे और उन सत्रों में हुई चर्चा की अनुगूंज कई सालो तक हिंदी साहित्य में सुनाई देती रही थी ।
बताया जा रहा है कि अभी हा ही में अशोक वाजपेयी द्वारा आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में प्रतिभागी युवा लेखक काफी तैयारी के साथ आए थे और आलोचना और नाटक के सत्रों में जमकर विमर्श हुआ । आलोचना के सत्र में वक्ताओं का कहना था कि विमर्शों के साहित्य ने आलोचना को लगभग असंभव कर दिया । संभव है इसपर विस्तार से चर्चा हुई होगी लेकिन वो बाहर नहीं आ पाया । दरअसल हिंदी आलोचना की सबसे बड़ी दिक्कत उसके पुराने औजार हैं । अब भी जितने युवा आलोचक लिख रहे हैं उनकी आलोचना उद्धरणों की आलोचना है, फलां ने ये कहा, फलां ने वो कहा आदि आदि । आलोचक क्या कहना चाहता है वो इन लंबे लंबे उद्धरणों में गुम होकर रह जाता है । बड़े लेखकों को उद्धृत करना उचित है लेकिन सिर्फ उसके ही सहारे अपनी बात कह देने का उपक्रम इस वक्त हिंदी आलोचना ता सबसे बड़ा दुश्मन है । कुछ देशी तो कई विदेशी लेखकों के भारी भरकम उद्धरणों से लेखक का पाठकों पर रौब तो पड़ सकता है लेकिन वो आलोचना को पाठकों से दूर भी ले जाती है । नाटक के सत्र में युवा रंगकर्मी आशीष पाठक ने साहित्य में वर्ण व्यवस्था की बात कहकर सबको चौंका दिया । आशीष के मुताबिक उनको ऐसा लगा कि साहित्य में भी वर्ण व्यवस्था होती है । उन्होंने कहा कि कवि ब्राह्मण, कहानीकार क्षत्रिय, उपन्यासकार वैश्य, और हम नाटक वाले शूद्र की तरह जिसका काम मनोरंजन करना भी है । उन्होंने झुब्ध होते हिए सवाल उछाला कि क्या साहित्य के सवर्ण, हमारे लिए कुछ लिखेंगे क्या ? 
नाटककारों की कमी की बात भी हुई । कुछ वक्ताओं ने कम नाटक लिखे जाने का सवाल भी उठाया । लेकिन इस आयोजन के बारे में व्यापक चर्चा बाहर नहीं सुनाई पड़ी, सोशल मीडिया में गीताश्री और अन्य लेखकों के छिटपुट पोस्ट के अलावा ।
अशोक वाजपेयी हिंदी के उत्सवधर्मा लेखक हैं जिनके पास अपनी उत्सवधर्मिता को अमलीजामा पहनाने के लिए संसाधन भी है। हिंदी में सबसे ज्यादा साहित्यक पत्रिकाओं के संपादन का रिकॉर्ड भी उनके नाम पर है । उन्होंने युवाओं का सम्मेलन करके हिंदी की विभिन्न विधाओं की प्रतिभाओं को एक राष्टीय मंच देने का काम किया है । दरअसल अशोक वाजपेयी पहले भी ये काम कर चुके हैं जब पहचान सीरीज के अंतर्गत उन्होंने हिंदी के युवा कवियों के संग्रह छापे थे । मुझे जहां तक ध्यान आ रहा है पहचान सीरीज के कविता संग्रह उन्नीस सौ बहत्तर या उसके आसपास ही छपे थे । इस सीरीज में छपे कई कवि आज हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में से हैं । दिल्ली में आयोजित युवा सम्मेलन में वक्ताओं ने अशोक वाजपेयी पर भी हमले किए जिसको उन्होंने धैर्य के साथ सुना ।इस युवा सम्मेलन को लेकर दिल्ली के वरिष्ठ लेखकों की उदासीनता उनकी कुंठा और अपनी जमात के नए सदस्यों के प्रति असहिष्णुता को भी दर्शाती है । बमुश्किल छह या सात वरिष्ठ लेखक युवाओं को सुनने के लिए आए थे । ऐसा क्यों हुआ इसपर भी विचार करने की जरूरत है । मुझे तो लगता है कि हिंदी के ज्यादातर वरिष्ठ कहे जाने वाले लेखकों ने अपनी एक दुनिया बना ली है और उसमें ही जीने की आदत डाल ली है । नतीजा यह हो रहा है कि उस दुनिया से बाहर निकलने में उनको तकलीफ होती है । दूसरी बात ये कि वरिष्ठ लेखकों की अपेक्षा रहती है कि युवा उनको सुनने आएं लेकिन जब युवा अपनी सुनाना चाहते हैं तो इस तरह की उदासीनता वरिष्ठ लेखकों की मानसिकता को उजागर कर देती है । वरिष्ठ लेखकों को युवाओं को सुनना चाहिए था उनको अपनी राय बतानी चाहिए थी ताकि युवाओं की दृष्टि समृद्ध होती । क्रिकेट में भी अनिल कुंबले पुजारा को सलाह देते हैं और वो शतक जड़ देता है । अशोक वाजपेयी ने अनुल कुंबले की भूमिका निभाने की कोशिश की लेकिन साहित्य ग्यारह लोगों का खेल नहीं है इसका दायरा बहुत विस्तृत है लिहाजा कई अनुल कुंबले की जरूरत है । अंत में ये ऐलान किया गया कि युवा सम्मेलन हर साल किया जाएगा तो क्या यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि अगले साल हिंदी के वरिष्ठ लेखक अपने युवाओं को सुनने समझने के लिए जुटेंगे ।