हिंदी में खासतौर पर
साहित्य में ये बात अक्सर सुनाई देती है या फिर पढ़ने को मिलता है कि पुस्तकों के
पाठक कम हो रहे हैं। हिंदी के कुछ प्रकाशक भी पाठकों की कमी के समूहगान में कई बार
शामिल दिखते हैं। तकनीक के पैरोकार ये दंभ भरते नजर आते हैं कि छपे हुए शब्दों पर
खतरा है, जैसे जैसे तकनीक का विस्तार होगा तो पाठक इलेक्ट्रानिक फॉर्म में पढ़ना
पसंद करने लगेंगे। छपी हुई पुस्तकों का स्थान ई-बुक्स के लेने तक का अतिरेकी विचार
भी सुनने-पढ़ने को मिलता रहा है। तकनीक का ध्वजदंड उठाए एक उत्साही लेखक ने तो
आगामी दस सालों में पुस्तकों के खत्म होने की भविष्यवाणी भी कर दी थी। उत्साह
अच्छा होता है, लेकिन जब उत्साह में अतिरेक मिल जाता है तो वो हास्यास्पद हो जाता
है। छपी हुई पुस्तकों की महत्ता, लोकप्रियता और उसके खत्म होने की भविष्यवाणी करना
भी हास्यास्पद ही है। हिंदी में इस तरह के हास्यास्पद बयानों और लेखों को अभी
दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला ने नकार दिया। विश्व पुस्तक मेला में
पुस्तकों की बिक्री और लोगों की उपस्थिति दोनों ने साबित किया कि अभी हमारे समाज
में छपी हुए पुस्तकों का महत्व बरकरार है। नकार तो उस युवा पीढ़ी की मौजूदगी ने भी
दिया जिनके बारे में ये कहा जाता है कि उनकी रुचि पुस्तकों में लगातार घट रही है। पुस्तक
मेले में नौ दिनों तक जिस तरह से युवा आए और पुस्तकों की खरीद की उसके महत्व को
रेखांकित करना आवश्यक है। पुस्तक मेले में भी कई स्टॉल पर ई-बुक्स की बिक्री हो
रही थी, कुछ लोग ऑडियो फॉर्मेट में किताबें बेचने का यत्न कर रहे थे, कई जगहों पर
पुस्तकों को एप के माध्यम से बेचने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन ये सभी लोग
पाठकों के लिए लगभग तरस रहे थे। एप डाउनलोड करानेवाली कंपनियां कई तरह के लुभावने
ऑफर भी दे रही थीं लेकिन तब भी अपेक्षित संख्या में एप डाउनलोड करवा पाने में
सफलता नहीं मिल रही थी। उधर पुस्तकें धड़ाधड़ बिक रही थीं। ना केवल नई बल्कि
ऐतिहासिक पुस्तकों की भी मांग बराबर बनी रही। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पर लेखक भारत
रत्न पांडुरंग वामन काणे लिखित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ बिक्री के लिए उपलब्ध था। पांच खंडों में प्रकाशित
इस ग्रंथ का 35 सेट मेले में बिक्री के लिए लाया गया था। पुस्तकों के प्रति लगाव
का संकेत इस बात से मिल सकता है कि विश्व पुस्तक मेला के सातवें दिन सभी 35 सेट
बिक गए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के स्टॉल पर मौजूद प्रबंधक ने बताया कि अगर और
भी 35 सेट होता तो वो भी बिक जाता। जबकि इस ग्रंथ का कहीं कोई प्रचार प्रसार नहीं
हो रहा था। पाठक लक्ष्य करके आ रहे थे और इसको खरीद रहे थे। वहां उपस्थित संस्थान
के प्रबंधक ने इस संबंध में एक और चौंकानेवाली जानकारी दी कि धर्मशास्त्र का
इतिहास खरीदने वाले ज्यादातर युवा और अधेड़ उम्र के लोग थे। अब ये आंकड़ा कुछ तो
कह ही रहा है, हिंदी जगत को इसको सुनना और गंभीरता से लेना चाहिए। नए लेखकों की
कृतियां भी खूब बिक रही हैं। संकट उन लेखकों पर होता है जो उपन्यास में, कविता
में, कहानी में वैचारिकी परोसने लगते हैं, अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम
करने लग जाते हैं। उनके भी पाठक हैं लेकिन जब आप अपनी कृति में किसी खास विचारधारा
को बढ़ाने का काम करेंगे तो उस खास विचारधारा के उत्थान के दौर में तो पाठक मिल
जाएंगे लेकिन विचारधारा के कमजोर पड़ते ही उस तरह की कृतियां पसंद नहीं की जाती
हैं। यही फर्क हो जाता है कालजयी कृति में और तात्कालिक लोकप्रियता हासिल करनेवाली
कृति में।
तकनीक का प्रसार हमेशा
अच्छा होता है, उससे उपभोक्ता की सहूलियतें बढ़ती हैं, लोगों की जिंदगी आसान भी
होती है लेकिन तकनीक संवेदनाओं का स्थान नहीं ले सकती है, तकनीक के माघ्यम से
प्रेम नहीं किया जा सकता है। यह बात समझनी होगी। पुस्तकों से पाठक प्रेम करते हैं,
उनसे भावनाएं जुड़ी होती हैं, बिस्तर घुसकर पुस्तकों को पढ़ने का जो आनंद होता है,
या पढ़ते पढ़ते थक जाने के बाद पुस्तक को सीने पर रखकर सुस्ताने से जो सुकून मिलता
है वो किसी भी डिवाइस से ई बुक्स पढ़कर हासिल नहीं होता है। पुस्तकों से पाठकों का
एक रागात्मक संबंध होता है। यह अकारण नहीं है कि पूरी दुनिया में ई बुक्स की
बिक्री लगातार गिर रही है और पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। अंतराष्ट्रीय
एजेंसियों की रिपोर्ट के विश्लेषण ये तथ्य निकलकर आ रहा है कि ई बुक्स की औसत
बिक्री करीब दस फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब के गिर रही है। अगर हम ब्रिटेन के
आंकड़ों को देखें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में वहां 36 करोड़ पुस्तकें बिकी
जो पिछले वर्ष की बिक्री से दो फीसदी अधिक थीं। वहां 2016 में ही दुकानों से
किताबों की बिक्री 7 फीसदी बढ़ी लेकिन ई बुक्स की बिक्री में 4 फीसदी की गिरावट
दर्ज की गई। दुकानों से भी पुस्तकों की बिक्री में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उस
रिपोर्ट के मुताबिक युवाओं का पुस्तकों का प्रति बढ़ता रुझान इसकी बड़ी वजह बनी
है। कमोबेश यही स्थिति पूरी दुनिया में है। इसकी वजह भी बहुत दिसचस्प बताई जा रही
है। वजह ये कि आज का युवा डिजीटली इतना व्यस्त है कि वो पुस्तकों में सुकून ढूंढने
लगा है। हर वक्त फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम के अलावा अपने रोजगार के सिलसिले में
उसको कंप्यूटर या लैपटॉप पर इतना बैठना पड़ता है कि वो सुकून के लिए या मनोरंजन के
लिए या और अधिक ज्ञान के लिए किसी अन्य डिवाइस पर नहीं बैठना पसंद कर रहा है। वो
स्क्रीन से इतर हटकर कुछ पढ़ना चाहता है और उसकी यही चाहत उसको पुस्तकों की ओर ले
जा रही है। जब कंप्यूटर पर काम करते करते मन उब जाता है, जब फेसबुक या इंस्टाग्राम
बोर करने लगता है तो कंप्यूटर बंद करने की इच्छा होती है या फिर लैपटॉप के आगे से
हटने को जी चाहता है। उस वक्त युवाओं को पुस्तकों की याद आती है। पुस्तकें पढ़कर
वो डिजीटल दुनिया से कुछ पलों के लिए दूर होना चाहता है। दिमाग को उस दुनिया से
बाहर निकालना चाहता है। इस वजह से आज युवा पुस्तकों की खरीद करने लगे हैं। पुस्तकों
के प्रति युवाओं के बढ़ते प्रेम ने प्रकाशन जगत को उत्साहित कर दिया है। अभी
कोलकाता पुस्तक मेला होने जा रहा है जिसमें करोड़ों की किताबें बिकेंगी लेकिन उस
अनुपात में ना तो ई बुक्स की बिक्री होगी ना ही पाठक पुस्तकों के एप अपने मोबाइल
पर डाउनलोड करके पुस्तकें पढ़ेंगे। इतना अवश्य होगा कि पुस्तकों की बिक्री बढ़ेगी
तो प्रकाशकों का मुनाफा बढ़ेगा। मुनाफा बढ़ेगा तो और नई किताबें छपेंगी और
प्रकारांतर से अगर देखें तो छपी हुई किताबें ई बुक्स या ऑडियो बुक्स के रूप में
उपलब्ध होंगी, उनकी संख्या में इजाफा होगा पर बिक्री के आंकड़ों पर कितना असर
पड़ेगा यह भविश्य के गर्भ में होगा। पर इतना तय है कि पुस्तकों की बिक्री और ई
बुक्स की बिक्री की संख्या में बहुत बड़ा अंतर होगा।
अगर हम अपने देश की बात
करें और खास तौर पर हिंदी की किताबों की बिक्री की बात करें तो यहां हम पाते हैं
कि पुस्तकों की बिक्री और ई बुक्स की बिक्री के आंकड़ों में बहुत अधिक अंतर है। हिंदी
के सात आठ प्रकाशकों को छोड़ दें तो ज्यादातर अभी ई फॉर्मेट में गए ही नहीं हैं।
जो गए हैं उनमें से भी अधिकतर इस वजह से गए हैं कि उनकी कंपनी के पास ई बुक्स भी
हों। उनको ई बुक्स से मुनाफा नहीं हो रहा है या ईबुक्स की बिक्री में अभी उनको
ज्यादा संभावना भी नजर नहीं आ रही है। स्तरीय पुस्तकें बिकती हैं, उनको पाठक खरीद
कर पढ़ते हैं। विश्व पुस्तक मेले में इस बात की चर्चा तल रही थी तो एक बड़े और
पाठकों के पसंदीदा लेखक ने कहा पुस्तकों की कम बिक्री का रोना वही लेखक रोते हैं
जिनकी किताबें स्तरहीन या औसत होती हैं या फिर जिनको पाठकों का प्यार नहीं मिल पाता
है। देश के अलग अलग हिस्सों में हो रहे साहित्योत्सवों में भी युवाओं की उपस्थिति
और पुस्तकों प्रति उनका प्रेम और उत्साह देखर कहा जा सकता है कि छपे हुए पुस्तकों
की सत्ता मजबूती के साथ स्थापित हो रही है और छपे हुए अक्षरों में पाठकों का
विश्वास और गाढ़ा हो रहा है। हिंदी में भी।
1 comment:
शानदार आलेख।
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