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Saturday, January 5, 2019

चुनिंदा चुप्पी की शिकार बौद्धिकता


बौद्धिकता की बुनियाद ईमानदारी होती है। बुद्धिजीवियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो सार्वजनिक रूप से सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखते हैं। लेकिन हमारे देश में बहुधा बौद्धिक जगत में इस तरह की ईमानदारी दिखाई नहीं देती है। खासकर साहित्य,कला और संस्कृति के क्षेत्र में जब किसी प्रकार का बदलाव होता है तो एक खास किस्म की राजनीति दिखाई देती है। ये एक विचारधारा विशेष से जुड़े बौद्धिकों में खासतौर पर लक्षित की जाती है। अभी जब मध्यप्रदेश में सरकार ने साहित्य, कला, शिक्षा और संस्कृति से जुड़े फैसले लेने शुरू किए हैं तो इस तरह की चुप्पी देखी जा सकती है। कमलनाथ ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद एक आदेश के जरिए तमाम समितियों को भंग करने का फरमान जारी कर दिया था। किसी भी समिति के कार्यकाल के खत्म होने का इंतजार नहीं किया गया। राज्य सरकार की अलग अलग संस्थाओं की सलाहकार समिति में नामित सदस्यों को भी हटा देने का आदेश हुआ। पिछले पंद्रह साल से मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और वहां की कमेटियों में शिवराज सरकार के पसंद के लोग नामित थे। अब कमलनाथ सरकार अपनी पसंद के लोगों को वहां नामित करने जा रही है। जब मध्यप्रदेश सरकार ने ये फरमान जारी किया तो बौद्धिक जगत मे कोई हलचल नहीं हुई। किसी बौद्धिक मंच पर कमलनाथ सरकार के इस फैसले को लेकर सवाल खड़े हुए हों ये जानकारी नहीं मिल पाई। किसी को भी इसमे फासीवाद आदि नजर नहीं आया, किसी ने भी सरकार की मनमानी पर मुंह नहीं खोला। हो सकता है कहीं छिटपुट विरोध हुआ हो लेकिन किसी कला साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवाले संगठनों ने कोई विरोध नहीं जताया। किसी ने कमलनाथ सरकार से ये अपेक्षा नहीं की कि उनको सलाहकार समितियों के कार्यकाल खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हाल ही में भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह की खबर आई कि उनको राज्य सरकार की तरफ से साफ संदेश दे दिया गया था कि वो त्यागपत्र दे दें अन्यथा उनको हटा दिया जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। लेकिन इसको किसी भी तरह से संस्थाओं के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप के तौर पर नहीं देखा गया।
अब जरा कुछ साल पीछे चलते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी। उस समय के परिदृश्य को याद करें कि कितना शोर शराबा हुआ था कि सरकार शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में अपने लोगों को बैठाना चाहती हैं। स्मृति ईरानी के मानव संसाधन विकास मंत्री रहने के दौरान तो पूरा बवाल इसी बात को लेकर मचता रहा था कि सरकार विश्वविद्यालयों में अपने लोगों को कुलपति के तौर पर नियुक्त करना चाहती है। संगीत नाटक अकादमी से लेकर अलग अलग सरकारी कमेटियों में संचालन समिति और कार्यसमिति में नियुक्तियों को लेकर भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश हुई। लेकिन अगर संगीत नाटक अकादमी की समिति को देखें तो उसमें तो कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर का भी मोदी सरकार के दौर में मनोनयन हुआ और वो अब भी समिति में बने हुए हैं। अगर सरकार असहिष्णु होती तो कम से कम कार्ड होल्डर को तो जगह नहीं ही मिलती। इन अकादमियों ने वामपंथी लेखकों और कलाकारों को सम्मानित और पुरस्कृत भी किया ही, उनके रिश्तेदारों तक को भी पुरस्कृत करने में किसी तरह का भेदभाव नहीं किया। फिर भी सरकार पर आरोप लगते रहे। आरोप लगाने का भी एक अलग तंत्र है। आरोप लगाओ और दबाव बनाते रहो।   
स्वायत्ता पर आसन्न खतरे को लेकर भी सवाल उठे थे। अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे खतरे को लेकर भी खूब हो-हल्ला मचा। उस वक्त इस बात की आशंका भी जताई गई थी कि नई सरकार संस्थाओं का भगवाकरण करने में जुटी है। कालांतर में इस बात को लेकर भी विरोध प्रदर्शन आदि हुए कि सरकार कला, साहित्य, शिक्षा और संस्कृति की स्वायत्त संस्थाओं पर कब्जा करना चाहती है । पुणे के फिल्म संस्थान से लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में हुई नियुक्तियों पर सवाल खड़े होने लगे। सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में अध्यक्ष के पद पर राम बहादुर राय की नियुक्ति पर सवाल उठाया था। इस बात की आशंका भी व्यक्त की गई थी कि सरकार देश का इतिहास बदलने की मंशा से काम कर रही है। सांस्कृतिक संस्थाओं में नियुक्ति का इतना विरोध शुरू हो जाता था कि मंत्रियों ने यथास्थितिवाद का देवता बने रहने में बी अपनी भलाई समझी। इन संस्थाओं में नियुक्तियां धीमी कर दी गई। मोदी सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि साहित्यक,सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर विश्यविद्यालयों तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मर्जी और सलाह से ही नियुक्तियां करती हैं। लेकिन ये देखना दिलचस्प होगा कि कमलनाथ सरकार पर इस तरह किसी संगठन या पार्टी के इशारे पर नियुक्तियों के आरोप लगते हैं या नहीं।
जिस भी राजनीतिक दल की सरकार होती है वो अपनी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के काम करती है। विचारधारा को मजबूती देने के लिए यह आवश्यक होता है वो इसको मानने और प्रचारित करनेवालों को मजबूती दे। मजबूती देने के नाम पर विरोधियों को ठिकाने लगाने का खेल भी हमारे देश ने देखा है। जब दो हजार चार में यूपीए की सरकार बनी थी उस वक्त भी सोनल मानसिंह को संगीत नाटक अकादमी से और अनुपम खेर को सेंसर बोर्ड से हटा दिया गया था। ये सीपीएम के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के इशारे पर किया गया था। सुरजीत ने उस वक्त लेख लिखकर इन दोनों को हटाने की मांग की थी। केंद्र की मोदी सरकार इस मायने में थोड़ी अलग है। यह वामपंथियों की तरह अपनी विरोधी विचारधारा माननेवालों को अस्पृश्य नहीं मानती है। उनसे दूरी नहीं बनाती या सायास उनको हाशिए पर धकेलने के लिए संगठित प्रयास नहीं करती है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार से सहमत विद्वानों को सरकारी सस्थाओं में प्रवेश तक नहीं था। संघी कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता था । फेलोशिप से लेकर तमाम तरह कि नियुक्तियों में प्राथमिक शर्त यह होती थी कि वो संघ की विचारधारा को मानने वाला नहीं हो। साहित्य अकादमी से लेकर अन्य अकादमियों के पुरस्कारों में विरोधी विचारधारा के विद्वानों के नाम पर पुरस्कारों के लिए विचार ही नहीं होता था। यहां तो मोदी सरकार की खुलेआम आलोचना करनेवालों को पुरस्कृत किया जाता है, उनकी पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। साहित्य अकादमी के चुनाव में सरकार के नामित प्रतिनिधि हार जाते हैं लेकिन फिर भी साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को कम करने की कोशिश नहीं होती। इस वर्ष हुए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव के पहले संस्कृति मंत्रालय से संयुक्त सचिव ने एक उम्मीदवार विशेष के पक्ष में पत्र भी लिखा था लेकिन उसका कोई असर चुनाव पर नहीं हुआ।
दरअसल हमारे देश के बौद्धिक वर्ग में वामपंथियों का बोलबाला रहा है, इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के बाद से बौद्धिक समाज की राजनीति को वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया। अकादमियां और विश्वविद्लायों को वामपंथियों के हवाले कर दिया। वहां की नियुक्तियां और कमेटियों आदि में उस विचारधारा से जुड़े लोगों की नियुक्तियां होने लगी थी। इसकी ऐतिहासिक वजह भी थी क्योंकि प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी का समर्थन किया था। अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने इमरजेंसी के वक्त सरकार और इंदिर गांधी को लेकर जिस तरह की वफादरी दिखाई थी उसका ईनाम उनको सालों तक मिलता रहा था। मोदी सरकार बनने के बाद और राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी की हार के बाद ऐसा लगने लगा था कि वामपंथी लेखकों के लिए पद आदि का जुगाड़ होना मुश्किल होगा लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद उनके चेहरे खिले हुए हैं क्योंकि इनके स्वार्थपूर्ति का रास्ता खुलता नजर आ रहा है। मध्यप्रदेश सरकार के फैसलों से इनके अरमान जाग गए हैं। भारतीय जनता पार्टी की सरकार जिस तरह से सहम सहम कर कला, संस्कृति और साहित्य जगत के फैसले ले रही है उनके बरख्श अगर इन फैसलों को देखे तो तुलनात्मक विवेचना रोचक हो सकता है। केंद्र के संस्कृति मंत्रालय से संबंद्ध कितने संस्थानों में अबतक पद खाली हैं उसका आकलन करने पर भी जो तस्वीर बनेगी वो भी दिलचस्प होगी। यहां तक कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक का पद भी अब तक नहीं भरा जा सका है। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस और वामपंथी सरकारों के फैसलों को देखना चाहिए ताकि वो भी कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र को प्रथामिकता पर रखकर फैसले ले सकें।

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