पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दस साल के
कार्यकाल पर उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने एक किताब लिखी थी। नाम था ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’। इस पुस्तक पर इसी नाम से बनी फिल्म को लेकर देश
के खुछ हिस्सों में बवाल मचा हुआ है। कुछ कांग्रेसी नाराज हैं। कांग्रेस और गैर
बीजेपी शासित राज्यों में इस फिल्म का प्रदर्शन बाधित भी हुआ। तोड़फोड़ हुई।
रायपुर में तो दर्शकों के पैसे लौटाने तक की नौबत आई। बाद में कड़ी सुरक्षा के बीच
फिल्म का प्रदर्शन संभव हो सका। इस बाधा को लेकर, तोड़फोड़ को लेकर, कहीं कोई
शोर-शराबा नहीं हुआ। किसी को इसमें अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी तरह का कोई खतरा
नजर नहीं आया। बॉलीवुड की तख्ती ब्रिगेड ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया। तख्ती
पर स्लोगन लिखककर खड़े होनेवाली अभिनेत्रियां भी खामोश हैं। किसी भी पीईएन
इंटरनेशनल की रिपोर्ट में, किसी भी एमनेस्टी इंटरनेशनल के लेख में इस विरोध का
जिक्र होगा, इसमें संदेह है। यहां तक कि अनुपम खेर के दोस्त और अभिव्यक्ति की
आजादी के ताजा पैरोकार नसीरुद्दीन शाह भी चिंतित नहीं हैं और उनको तो इस बात की
फिक्र भी नहीं हुई कि एक फिल्म के प्रदर्शन को रोका जा रहा है। खैर ये अवांतर
प्रसंग है। इसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी।
उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने
भी संजय बारू की किताब पर बनी इस फिल्म को आगामी लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा।
ममता ने कहा कि इस फिल्म को लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखककर बनाया और रिलीज किया
गया है। ममता बनर्जी तो एक कदम और आगे चली गईं और कहा कि एक और फिल्म का निर्माण
होना चाहिए जिसका नाम हो डिजास्ट्रस प्राइम मिनिसस्टर। उनका सीधा इशारा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर था क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि उनको इन दिनों
कोई एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर दिखाई नहीं देता है बल्कि हर तरफ डिजास्ट्रस
प्राइम मिनिस्टर ही दिखता है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में तथ्यों से छेड़छाड़ की गई है। ममता बनर्जी
राजनीतिज्ञ हैं तो आरोप प्रत्यारोप तो उनके दैनंदिन कार्यक्रमों का हिस्सा है।
लेकिन ममता बनर्जी जब ये कहती हैं कि फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम
मिनिस्टर’ आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनाकर रिलीज की
गई तो वो यह भूल गईं कि सिर्फ ‘द एक्सीडेंटल प्राइम
मिनिस्टर’ ही रिलीज नहीं हुई बल्कि उसके रिलीज वाले दिन ही
आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक मशहूर
अभनेता एन टी रामाराव की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘एनटीआर कथानाकयुडू’ भी रिलीज हुई। इस फिल्म में किसी को भी कोई
राजनीति नजर नहीं आई। आंध्र प्रदेश में चुनाव होंगे, इसी वर्ष विधानसभा का चुनाव
भी होना है।
दरअसल अगर हम देखें तो इस वक्त भारतीय फिल्मों
में मशहूर और अहम राजनीतिक शख्सियतों पर फिल्मों का एक दौर चल रहा है। इसमें किसी
को राजनीति भी नजर आ सकती है तो कुछ लोग इसमें चुनाव के वक्त राजनीतिक शख्सियत पर
बॉयोपिक बनाकर बाजार को भुनाने की कोशिश भी देख सकते हैं। इससे अलग कारण भी हो
सकते हैं, कुछ गंभीर तो कुछ अगंभीर। अगर हम इस वक्त के फिल्म निर्माण के समग्र
परृश्य पर नजर डालते हैं तो स्जो तस्वीर नजर आती है उसमें राजनीति के साथ साथ
कलात्मकता भी है, इतिहास को सहेजने की कोशिश भी है। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे
के जीवन पर भी एक फिल्म बनकर लगभग तैयार है जो इस महीने के अंत तक सिनामघरों में
प्रदर्शित की जाएगी। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे पर बनी इस फिल्म में उनकी भूमिका
अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने निभाई है। बाल ठाकरे पर बनी इस फिल्म की कहानी संजय
राउत ने लिखी है। इस फिल्म के डायरेक्टर अभिजीत पाणसे का मीडिया में जो बयान छपा
है उसके मुताबिक ये फिल्म शिवसेना के संस्थापक को श्रद्धांजलि है और उनके जन्मदिन
23 जनवरी को रिलीज की जाएगी। इसके अलावा अभी एक और फिल्म की घोषणा हुई है वो फिल्म
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बनाई जाएगी जिसमें मोदी की भूमिका अभिनेता विवेक
ओबरॉय निभाने जा रहे हैं। इस फिल्म पर काम भी शुरू हो चुका है और विवेक ओबरॉय ने
पोस्टर जारी कर इसकी जानकारी दी। इस फिल्म का नाम होगा ‘पीएम नरेन्द्र मोदी’। ‘मैरी कॉम’ और ‘सरबजीत’ जैसी फिल्मों के डायरेक्टर उमंग कुमार इस फिल्म
का निर्देशन करेंगे। हिंदी ही नहीं देश की अन्य भाषाओं में भी नेताओं पर फिल्में
बन रही हैं। अगर ये चुनाव को ध्यान में रखकर भी बनाई जा रही हैं तब भी फिल्मों के
लिए अच्छा है कि वो पारंपरिक विषयों से हटकर राजनीति जैसे विषय की ओर उन्मुख हो
रही है। हमारे देश में राजनीतिक फिल्में बनती रही हैं लेकिन अगर संख्या के हिसाब
से देखें तो उसका अनुपात बहुत ही कम था। अब इसकी संख्या बढ़ी है। आंध्र प्रदेश के
पूर्व मुख्यमंत्री और हेलीकॉप्टर हादसे का शिकार हुए वाई एस राजशेखर रेड्डी की
जिंदगी पर भी फिल्म बन रही है। ‘यात्रा’ नाम से बन रही इस फिल्म के बारे में कहा जा रहा
है कि इमें राजशेखर रेड्डी के संघर्षों का चित्रण है और कैसे उन्होंने अपने
राजनीतिक कौशल से कांग्रेस को मजबूती दी इसको भी दर्शाया गया है। यह फिल्म फरवरी
में रिलीज होनेवाली है। फिल्म को देखने के बाद पता चल सकेगा कि इसको चुनाव को
ध्यान में रखकककर बनाया जा रहा है या नहीं। द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में कोई
ऐसी नई बात नहीं है जो पहले से लोगों को ज्ञात नहीं है, लिहाजा इसका चुनाव पर क्या
असर होगा, ये कहना कठिन है। विरोध और समर्थन की वजह से फिल्म की चर्चा अवश्य हो
गई। तेलांगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर
राव और तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता स्वर्गीय जयललिता की
जिंदगी पर भी फिल्म बनने की खबर है। चूंकि लोकसभा चुनाव पास है इस वजह से इन सबको
चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है।
अब प्रश्न यही उठता है कि इन फिल्मों का राजनीति
पर कितना असर पड़ेगा। क्या ये फिल्में किसी तरह का नैरेटिव स्थापित कर पाएंगी या
फिर इन शख्सियतों की जिंदगी को दर्शकों के सामने रखने का काम करेंगी। किसी भी कला
के लिए यह अच्छी बात है कि उसका विस्तार हो और वो विस्तार मजबूती पाए। लेकिन इस
बात को लेकर सावधान रहना होगा कि कला का इस्तेमाल राजनीति के लिए ना हो। इस संबंध
में मुझे याद पड़ता है कि किताबों के बहाने भी राजनीति अपने देश में शुरू हुई थी।
जो अब भी छिटपुट ही तरीके से जारी है। जब नेहरू के योगदानों पर सवाल उठने लगे तो
कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने डेढ़ दशक पहले 2003 में जवाहरलाल नेहरू पर लिखी अपनी
किताब ‘नेहरू, द इंवेन्शन ऑफ इंडिया’ का नया संस्करण जारी करवा दिया। पुस्तक प्रकाशन जगत
में इस तरह की कोई परंपरा नहीं रही है कि किसी किताब के नए संस्करण को
समारोहपूर्वक जारी किया जाए। इसी तरह से शशि थरूर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
को केंद्र में रखकर एक पुस्तक लिखी ‘द पैराडॉक्सिकल प्राइम
मिनिस्टर’। पैराडॉक्सिकल का शाब्दिक अर्थ तो मिथ्याभासी होता
है परंतु इस पुस्तक में पैराडॉक्सिकल को परोक्ष रूप से एक विशेषण की तरह इस्तेमाल
किया गया जिसका अर्थ होता है लोक-विरुद्ध। इस पुस्तक को कुछ लोगों ने कांग्रेस
पार्टी का घोषणा पत्र भी करार दिया लेकिन चाहे जो हो राजनीति अगर फिल्मों और
पुस्तकों के बहाने हो तो वो होती दिलचस्प है। अमेरिका में लंबे समय से इस तरह की
राजनीति होती रही है, अभ अगर हमारे देश में भी फिल्मों और किताबों के माध्यम से
राजनीतिक दांव चले जाने लगे तो अच्छा है क्योंकि इससे गाली गलौच और व्यक्तिगत
टिप्पणियों वाली राजनीति थोड़ी कम तो होगी। कला के माध्यम से राजनीति करने के अपने
फायदे हैं तो उसके अपने खतरे भी हैं। अपनी राजनीति को सही स्थान दिलाने के लिए
स्तरीय पुस्तक भी लिखनी होगी और बेहतर फिल्म भी बनानी होगी। अगर स्तरीय काम नहीं
पाएगा तो जनता ना तो फिल्म को पसंद करेगी और ना ही पुस्तक को। अगर हाल के दिनों
में फिल्में राजनीति के लिए बनाई जा रही हैं तो उनका फैसला जल्द ही हो जाएगा। द
एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को अगर जनता पसंद करती है तो वो जबरदस्त हिट होनी
चाहिए। इसी तरह से अन्य फिल्मों के भविश्य पर टीका टिप्पणी करने से बेहतर है कि
थोड़ा ठहरकर, इंतजार कर उनके रिलीज होने का इंतजार करना चाहिए। लेकिन एक बात सबको
ध्यान रखनी होगी कि कला के प्रदर्शन को रोकने का काम ना हो, जबतक कि वो संविधान के
दायरे में है।
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