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Saturday, March 11, 2023

युवाओं में पुस्तकों का आकर्षण कायम


हाल ही में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला समाप्त हुआ। पुस्तक मेला में युवाओं की उमड़ी भीड़ आश्वस्तिकारक है। यह उस दुष्प्रचार का भी निषेध करती है कि युवा पुस्तकों से विमुख हो रहे हैं। वो आनलाइन माध्यम को अधिक पसंद कर रहे हैं। वो किंडल और ई बुक में अपेक्षाकृत अधिक रुचि ले रहे हैं।कोरोना महामारी के कारण दो वर्ष तक विश्व पुस्तक मेला का आयोजन नहीं हो सका था। इस वर्ष जब पुस्तक मेला का आयोजन हुआ तो दिल्ली के प्रगति मैदान के गेट के बाहर पुस्तक प्रेमियों की लंबी कतार इस बात की गवाही दे रही थी कि पुस्तकों के पाठक हैं। यह ठीक है कि तकनीक ने पाठकों के सामने कई विकल्प दिए हैं। लेकिन छपे हुए शब्दों की महत्ता और पुस्तक को हाथ में लेकर पढने का रोमांच कम नहीं हुआ है। हिंदी के कई प्रकाशकों की तरफ से ये कहा जाता है कि हिंदी में पुस्तकें नहीं बिकतीं, हिंदी में पाठक कम हो रहे हैं। पुस्तक मेलों में पाठकों की संख्या और बिक्री के अनुमानित आंकडें कुछ अलग ही कहानी कहती हैं। अगर पुस्तकें नहीं बिकती हैं तो इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन क्यों और किसके लिए होता है। निरंतर नए नए प्रकाशन गृह क्यों खुल रहे हैं। पुराने प्रकाशन गृहों के अलग अलग प्रकल्प पुस्तकों का प्रकाशन क्यों करते हैं। स्वाधीनता के पहले हिंदी में दस प्रकाशक भी नहीं थे और इस वक्त एक अनुमान के मुताबिक चार सौ से अधिक प्रकाशक साहित्यिक कृतियां छाप रहे हैं। प्रकाशन जगत के जानकारों के मुताबिक हर साल हिंदी की करीब दो से ढाई हजार साहित्यिक किताबें छपती हैं। क्या साहित्य सेवा के लिए पुस्तकों का प्रकाशन होता है। अगर पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय में घाटा हो रहा है तो नए प्रकाशन गृह कैसे विकसित हो रहे हैं। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका उत्तर हिंदी का लेखक खोजना भी नहीं चाहता है।  

दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में तमाम बाधाओं के बीच पुस्तक प्रेमियों का पहुंचना कुछ तो संकेत कर रहा है। मैं पुस्तक मेले में गया था। प्रगति मैदान के गेट नंबर चार पर बहुत लंबी कतार लगी हुई थी। तीन-चार युवक बार-बार आनलाइन पेमेंट करके प्रवेश टिकट खरीदने का प्रयास कर रहे थे। दो बार जब उनका ट्रांजेक्शन फेल हो गया।उन्होंने गेट पर खड़े गार्ड से अपनी समस्या बताई। उनको अपना मोबाइल दिखाकर टिकट खरीद में आने की समस्या बताई। गार्ड ने उनके मोबाइल को देखा और कहा कि अंदर जाओ। दूसरे गार्ड ने उन लड़कों को रोकने का प्रयास किया तो पहले वाले गार्ड ने कहा कि जाने दो यार किताब ही तो खरीदने जा रहा है, कोई सर्कस देखने तो नहीं जा रहा है। यह है पुस्तकों के लिए हमारे मन में प्यार। उसके बाद उस गार्ड ने कई अन्य लड़कों को भी बगैर प्रवेश टिकट प्रगति मैदान में प्रवेश की अनुमति दी। मेला के अंदर हाल में तिल रखने की जगह नहीं थी। लगभग सभी प्रकाशकों के स्टाल पर पुस्तक प्रेमी पुस्तकें पलट रहे थे, खरीद रहे थे। हिंदी के बड़े प्रकाशकों के स्टाल पर स्थिति बेहतर थी। उनके यहां बिलिंग काउंटर पर ग्राहकों की कतार लगी थी। बिल बनानेवाले कम पड़ रहे थे। इंटरनेट नहीं चल पाने या धीमा चलने की वजह से आनलाइन पेमेंट में दिक्कत आ रही थी। ग्राहक धैर्यपूर्वक बिलिंग की प्रतीक्षा कर रहे थे। मेले में हर दिन दर्जनों पुस्तकों का विमोचन हो रहा था। इंटरनेट मीडिया पर इन विमोचन कार्यक्रमों की तस्वीरें प्रचलित हो रही थीं। अगर पाठक नहीं हैं तो ये पुस्तकें किनके लिए प्रकाशित हो रही हैं। 

गीता प्रेस के स्टाल पर तो हर वर्ष खरीदारों की भीड़ रहती ही है इस वर्ष भी उनके स्टाल पर जमकर खरीदारी हो रही थी। गीता प्रेस के स्टाल के एक कर्मचारी ने बताया कि इस वर्ष सबसे अधिक बिक्री श्रीरामचरितमानस और कल्याण के पुराने अंकों की हुई, जो अब पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। अंग्रेजी के हाल में जो स्टाल थे उनपर भी बहुत भीड़ थी। पेंगुइन प्रकाशन पर तो कई कई बार पाठकों के प्रवेश को रोकना पड़ रहा था। उनके स्टाल के बाहर लंबी कतार लगी हुई थी। जब स्टाल के अंदर गए पाठक पुस्तक खरीदकर बाहर निकलते थे तब बाहर खड़े लोगों को अंदर जाने दिया जा रहा था। यह दृष्य संतोष देनेवाला था। आनलाइन प्लेटफार्म पर पुस्तकें बेचनेवाली कंपनियों के प्रतिनिधि भी मेले में घूम रहे थे। वो ये समझने का प्रयास कर रहे थे कि इतनी बड़ी संख्या में पाठक मेले में पुस्तकें क्यों खरीद रहे हैं, जबकि उनके प्लाटफार्म पर तो पुस्तकों की खरीद पर काफी छूट भी मिलती है। घर पर डिलीवरी का भी प्रविधान होता है। दरअसल पुस्तक मेलों में पाठकों को पुस्तकें तो मिलती ही हैं उनके लेखकों से मिलने का अवसर भी प्राप्त होता है। लेखकों से बात करने और उनकी रचना प्रक्रिया को सुनने समझने का अवसर भी मिलता है। यह सुविधा आनलाइन पुस्तक खरीद में नहीं होती है, छूट भले ही मिल जाए। 

एक और महत्वपूर्ण बात है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए, हिंदी समाज में अब भी पुस्तकों की भूख है। जरूरत इस बात की है कि पाठकों तक पुस्तकों को पहुंचाने का उपक्रम किया जाए। पुस्तकों को लेकर पाठकों तक पहुंचने का उपक्रम प्रकाशकों ने सामूहिक रूप से कभी किया नहीं। सभी प्रकाशकों को चाहिए कि वो साथ मिलकर पाठकों तक पुस्तकें पहुंचाने का एक तंत्र विकसित करें। अधिक से अधिक पुस्तकों की दुकानें खोलने का प्रयास किया जाना चाहिए। अभी हो ये रहा है कि कई प्रकाशक अलग अलग शहरों में अपनी पुस्तकों की दुकानें खोलते हैं। उनमें दूसरे प्रकाशकों की पुस्तकें नहीं रखते हैं। उनके बीच इस तरह का समन्वय होना चाहिए कि अगर एक प्राकशक ने एक शहर में पुस्तक विक्रय केंद्र खोला तो उसको सभी प्रकाशकों की पुस्तकें रखनी चाहिए। इससे उनकी लागत भी कम होगी और पाठकों को एक ही स्थान पर सभी पुस्तकें मिल जाएंगी। इसमें ईमानदारी और पारदर्शिता की आवश्यकता होगी। 

ईमानदारी और पारदर्शिता की आवश्यकता तो प्रकाशकों को लेखकों के साथ के संबंध में भी दिखाना चाहिए। आज कोई भी पुस्तक कितनी बिकी इसको जांचने का कोई तंत्र कम से कम हिंदी प्रकाशन जगत में तो उपलब्ध नहीं है। प्रकाशक जितना बता देता है उसपर ही विश्वास करना पड़ता है। अविश्वास की कोई वजह होनी भी नहीं चाहिए। संदेह तब पैदा होता है जब ये देखा जाता है कि अंग्रेजी के प्रकाशक कोई हिंदी की पुस्तक प्रकाशित करते हैं तो उनके यहां से वो पुस्तकें अपेक्षाकृत अधिक बिकती हैं । इस संदेह का निवारण होना पुस्तक व्यवसाय के लिए काफी आवश्यक है। पारदर्शिता और ईमानदारी के लिए किसी सरकार या सरकारी एजेंसी की आवश्यकता भी नहीं है, आवश्यक है परस्पर विश्वास की। हिंदी में पुस्तकों के संस्करणों को लेकर भी पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। कई पुस्तकें बगैर दूसरे संस्करण के प्रकाशित होकर बाजार में बिकती रहती हैं। इसका पता तब चलता है जब एक ही संस्करण की प्रतियां अलग अलग प्रेस से छपकर बाजार में पहुंचती हैं। कई बार लेखक इस बात को प्रकाशक के संज्ञान में लेकर आता भी तो उसको इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता है। मैं हिंदी के कुछ प्रकाशकों को जानता हूं कि वो कुछ लेखकों को उनके उपन्यास या पुस्तक के लिए 15-20 लाख तक का अग्रिम भुगतान भी करते हैं। अगर पुस्तकें बिकती नहीं हैं तो ये साहस प्रकाशक कैसे कर लेते हैं। ये सभी इस बात को स्थापित करते हैं कि हिंदी में पुस्तकों के पाठक हैं और ये कहना कि पाठक लगातार कम हो रहे हैं, उचित नहीं है।  

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