विमल मित्र के उपन्यास पर साहिब, बीबी और गुलाम नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म कर्म में आस्था रखनेवाली घरेलू महिला का अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पीते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही। इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा सीन वो जिसमें वो अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो केवल अंतिम बार। मैंने छोड़ने का निश्चय किया है, पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया है। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए। फिल्म के उत्तरार्ध के एक सीन को बदलने को लेकर गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख कैश एंड क्लासिक्स में लिखा था।
विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित फिल्म साहिब, बीबी और गुलाम को गुरुदत्त ने बनाया था। अपने प्रदर्शन पर इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। गुरुदत्त ने इस फिल्म में ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया था। आज से छह दशक पहले इस तरह के विषयों को फिल्मी पर्दे पर उतारने की बात सोच पाना भी मुश्किल था। गुरुदत्त ने सोचा भी और किया भी। छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने जब शादी करके जमींदार चौधरी के परिवार में हवेली में प्रवेश करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है। उसका नाम हवेली की देहरी के बाहर रह जाता है और वो बन जाती है छोटी बहू। जिससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो जमींदार चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहे। वो रहती भी है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए सारे जतन करती है। पति पर पूरा भरोसा करती है लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकती हैं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है। वो पति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए तमाम तरह के जतन करती है। स्त्री यौनिकता के बारे में भी पति से खुल कर बात करती है जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृष्यों को साहब बीबी और गुलाम में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। पहले भी कुछ लोगों ने इसपर चर्चा की होगी।
इस तरह के विषय आज सामान्य लग सकते हैं। लेकिन 1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृष्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाते। उनको झटका लगा था। आज ये सामान्य बात है। मिर्जापुर वेबसरीजीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद है। जिसका नोटिस भी नहीं लिया जाता। अभिनेता पंकज त्रिपाठी जिसने अखंडानंद त्रिपाठी का अभिनय किया है और उसकी पत्नी बीना त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाली रसिका दुग्गल के बीच भी कुछ दृश्यों में साहिब बीबी और गुलाम के छोटे बाबू और छोटी बहू जैसा संवाद है। दर्शक इन दृष्यों को और संवाद को सहजता के साथ लेता है। समाज बदल गया है। दर्शकों की मानसिकता बदल गई है। स्त्री यौनिकता पर समाज में खुलककर बात होने लगी है। जब गुरुद्दत ने ये सोचा था तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में ये सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं वो फिल्मों में बाद में आते हैं।
साहिब बीबी और गुलाम एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया है लेकिन इस पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था पर वो भी नहीं आए। अंत में उन्होंने खुद ये भूमिका निभाई। इसी तरह से छोटी बहू की भूमिका को लेकर नर्गिस से संपर्क किया गया था। गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेन्द्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वो लोग लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं तो वो निराश हो गए और उनको मना कर दिया। इतना ही नहीं गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस डी बर्मन से करवाना चाहते थे लेकिन वो अपनी बीमारी के कारण कर नहीं सके तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया तो शकील बदायूंनी से गीत लिखवाए गए। सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी उसने एक ऐसी फिल्म दी जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए न सिर्फ देखी जाती है बल्कि छात्रों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं।