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Saturday, October 25, 2025

बौद्धिकता की आड़ में राजनीति का खेल


हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है। शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी। दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से। आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है। हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।

फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया। उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं। नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है। वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है। वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।

हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।

विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इति !

 

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