छह दिसंबर उन्नीस सौ बानवे में अयोध्या में विवादित ढांचा के ढहाए जाने के दस दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ट जज मनमोहन सिंह लिब्राहन की अध्यक्षता में 1952 में गठित जांच कमीशन एक्ट के तहत एक जांच कमीशन का गठन किया गया । इस कमीशन को तीन महीने के अंदर अपनी इस बात की पड़ताल कर अपवी रिपोर्ट देनी थी कि इस ढांचे के गिराए जाने के पीछे किसका हाथ है और कौन लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेकिन विद्वान जज ने इस काम को तीन महीन के बजाए सत्रह साल में पूरा किया । इस बीच कई सरकारें आई और गई और सबने इस जांच कमीशन को अड़तालीस एक्सटेंशन दिए । इन सत्रह सालों में आयोग के कामकाज पर आम आदमी का दस करोड़ रुपया खर्च हुआ । सत्रह साल की मेहनत और करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद आम आदमी को इस रिपोर्ट से कुछ हाथ नहीं लगा । जिन लोगों को यह उम्मीद थी कि इस रिपोर्ट से कुछ ठोस निकलकर आएगा उन्हें खासी निराशा हुई । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मनमोहन सिंह लिब्राहन को विवादित ढांचा गिराए जाने के जिम्मेदार लोगों का पता लगाने का काम सौंपा गया था लेकिन लगभग हजार पन्नों की सारगर्भित रिपोर्ट इस बारे में लगभग मौन है । बजाए दोषियों का पता लगाने और उनके खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश करने के जस्टिस लिब्राहन ने खुद ही अपना दायरा बढ़ाते हुए एक दार्शनिक की तरह समाज के हर क्षेत्र में सुधार की सिफारिश कर दी । लगभग हजार पन्नों की इस भारी भरकम रिपोर्ट में लिब्राहन ने छब्बीस पन्नों में प्रशासनिक और पुलिस सुधार, पुलिस राजनेताओं के नापाक गठजोड़, राजनीति का अपराधीकरण, राजनेताओं और धार्मिक नेताओं के गठजोड़, और राजनेताओं के साथ प्रशासनिक अधिकारियों के बढ़ते संबंधों पर रोक लगाने और उसे साफ सुथरा बनाने की सिफारिशें की है । जैसा कि उपर भी कहा जा चुका है कि इस कमीशन को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने के पीछे के सच को उजागर करने का दायित्व सौंपा गया था लेकिन बजाए उसके लिब्राहन ने समाज में चल रहे अन्य गलत गतिविधियों पर अपना फोकस कर दिया । नतीजा सबके सामने है ।
अपनी सिफारिशों में लिब्राहन ने एक अलग संविधान सभा बनाने की वकालत भी की है और कहा है कि अब वक्त आ गया है कि भारतीय संसद एक नए संविधान सभा का गठन करे जो संविधान की समीक्षा करे और पिछले साठ सालों में उसकी कमियों और खामियों पर विचार करे और इन कमियों को दूर करने का सुझाव दे । (172.19) । लिब्राहन ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ये सिफारिश की जिसे सरकार को इसे यह कर ठुकरा देना चाहिए कि ये बातें इस कमीशन के अधिकार क्षेत्र से बाहर की है लेकिन सरकार ने अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि रिटायर्ड चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में एक कमीशन इस बात की जांच कर चुका है और केंद्र –राज्य संबंधों की जांच करने के लिए भी एक आयोग गठित की जा चुकी है जिसकी मार्च दो हजार दस में रिपोर्ट अपेक्षित है ।
जस्टिस लिब्राहन सिर्फ संविधान की समीक्षा पर ही नहीं रुके बल्कि राष्ट्रीय एकता परिषद को भी संवैधानिक अधिकार देने की सिफारिश कर और कहा – कि अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रीय एकता परिषद को संवैधानिक अधिकार दे दिए जाएं । या फिर कोई ऐसी ही अलग संस्था बनाई जाए जिसमें देशभर के अलग अलग धर्मों के विद्वान और मशहूर समाज सेवकों को शामिल किया जाए जिनका किसी राजनीतिक पार्टी से संबंध नहीं हो (172.4) । यहां जस्टिस लिब्राहन ने बगैर इस बात को ध्यान में रखे कि यह एक एडवायजरी बॉडी है जिसमें समाज के हर तबके के लोग शामिल किए जाते हैं, यह सिफारिश कर डाली जो पूरी तरह से अव्यावहारिक है । सरकार में बैठे लोगों ने भी यही तर्क देकर लिब्राहन की इस सिफारिश को ठुकरा दिया ।
जस्टिस लिब्राहन इतने पर भी नहीं रुके और उन्होंने पत्रकारों के आचार व्यवहार को लेकर भी सिफारिश कर डाली – पैरा 173.3 में लिब्राहन ने यह चिंता जताई कि भारत में पीत पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक संस्था नहीं है । प्रेस काउंसिल को उतने अधिकार नहीं है कि वो गलत रिपोर्टिंग करनेवालों के दंडित कर सके । लिब्राहन की इच्छा है कि मेडिल काउंसिल या फिर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तर्ज पर कोई एक स्थायी संस्था का गठन किया जाए जो कि संवाददाओं और अखबारों और खबरिया चैनलों के खिलाफ गलत रिपोर्टिंग की जांच कर सके । इसके लिए लिब्राहन ने जोरदार शब्दों में इस बात की सिफारिश की है कि भारत में मीडिया के कामकाज पर नजर रखने के लिए एक संवैधानिक संस्था का गठन किया जाए और पत्रकारों को भी अन्य प्रोशनल्स की तरह लाइसेंस जारी किए जाएं और गलत पाए जाने पर उनके लाइसेंस निरस्त किए जा सकें । (177.5)
चूंकि सरकार को लिब्राहन की यह सिफारिश जंची इसलिए अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में सरकार ने इस सिफारिश को सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस संस्था की आवश्यकता की संभावनाओं की तलाश के लिए अनुरोध पत्र भेजने की बात स्वीकार कर ली है । सिफारिश करते वक्त जस्टिस लिब्राहन ने ना तो कोई तर्क दिया और ना ही इसकी वजह बताई । सिर्फ इस आधार पर कि ऐसी कोई संस्था नहीं है इसलिए इस तरह की एक संस्था बनाई जानी चाहिए । लिब्राहन को यह भी पता लगाना चाहिए कि विश्व के किन किन देशों में पत्रकारों को लाइसेंस देने का प्रावधान है । यहां यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इसकी आड़ में सरकारें मीडिया की आजादी को जब चाहे तब दबा नहीं सकती । क्या जस्टिस लिब्राहन ने इन तमाम पहलुओं पर विचार किया और अगर विचार कर के ये सिफारिश की तो मामला और भी गंभीर है । क्या लिब्राहन मीडिया पर अंकुश लगाने के सरकार के सपने को साकार होते देखना चाहते हैं ।
जस्टिस लिब्राहन यहीं पर नहीं रुके उन्होंने राजनीतिक जीवन में नैतिक मूल्य स्थापित करने के लिए भी कई सुझाव दे डाले । राजनीति व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का सुझाव देते हुए लिब्राहन ने कहा कि – अगर कोई राजनीतिक दल धर्म के आधार पर अपनी राजनीति चलाती हो या फिर उसके एजेंडा में धार्मिक उद्देश्य हो तो उसे बैन कर दिया जाना चाहिए । एक सेक्यूलर राज्य की स्थापना के लिए यह जरूरी है कि जो व्यक्ति या दल धर्म और राजनीति का घालमेल करे उसपर चुनाव कानून के उल्लंघन का दोषी माना जाए और उसे अयोग्य करार दे दिया जाए । यहां भी लिब्राहन ने कोई नई बात नहीं कही है, पुरानी बात को नए और दार्शनिक अंदाज में पेश कर दिया है ।
यूपीए सरकार लिब्राहन की सिफारिशों से खुश है क्योंकि अपनी कई सिफारिशों में लिब्राहन ने सरकार की लाइन को ही आगे बढाया है और सरकार को अपने विरोधी दलों को घेरने के लिए हथियार मुहैया करवा दिया है ।
अपनी एक सिफारिश में लिब्राहन ने कहा है कि अगर केंद्र सरकार को लगता है कि सूबे के किसी खास इलाके में कोई ऐसा अपराध होनेवाला है जिसका फूरे देश पर प्रभाव पड़ सकता है और जिसको रोकने में सूबे की सरकार या तो विफल रही है या फिर उसे रोकने में इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है तो केंद्र उस खास इलाके का प्रशासनिक कंट्रोल ले सकता है । यहां भी लिब्राहन ने इस बात की अनदेखी की है कि बारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों को अलग-अलग अधिकार प्राप्त है । इसके अलावा इस तरह की आपात परिस्थितियों से निबटन के लिए अभी भी केंद्र सरकार के पास पर्याप्त अधिकार है, जरूरत पर्याप्त इच्छा शक्ति की है । संविधान में प्रापत् इन अधिकारों का केंद्र सरकरा गाहै बगाहे बेजा इस्तेमाल करती रही है । क्या लिब्राहन केंद्र के हाथ में ेक और हथियार देना चाहते हैं जिसी बिना पर वो राज्य सरकारों को जब चाहे तब डरा सकें । साथ ही लिब्राहन ने किसी खास भौगोलिक क्षेत्र का कंट्रोल लेने की बात की है । बारत के संघीय ढांचे में इससे कितनी दिक्कतें आ सकती हैं इस बारे में भी विद्वान लिब्राहन को विचार करना चाहिए था ।
दरअसल लिब्राहन आयोग की सिफारिशों में मनमोहन सिंह लिब्राहन की एक बेहतरीन दार्शनिक की भूमिका उभरती है जो समाज के हर क्षेत्र में आदर्श स्थिति देखना चाहता है ।
लेकिन सवाल यह उठता है कि जस्टिस लिब्राहन इस बात पर खामोश क्यों है कि जिस कमीशन को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी उसने सत्रह साल क्यों लगाए । आयोग की इतनी लंबी चली सुनवाई में टैक्स पेयर का जो दस करोड़ रुपया खर्च हुआ उसकी जिम्मेदारी किसकी है । आयोग पर जो सजिम्मेदारी दी गई थी उसका पूर्ण निर्वहण के लिए कौन जिम्मेदार है । जिस अटल बिहारी वाजपेयी पर आयोग की रिपोर्ट में उंगली उठाई गई है उसको एक बार भी अपनी सफाई का मौका नहीं दिया जाना लिब्राहन की मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करता है । कई लोगों का आरोप है कि जस्टिस लिब्राहन ने एक बार भी अयोध्या का दौरा नहीं किया अगर ये आरोप सही हैं तो यह बेहद गंभीर बात है कि बगैर मौक-ए-वारदात पर गए रिपोर्ट तैयार कर दी गई । पूरे समाज और देश को सुधारने का संदेश देनेवाली लिब्राहन को इस साधारण रिपोर्ट को लिखने में सत्रह साल लगे और दस करोड़ रुपये खर्च हुए उसे कोई भी रिस्चर स्कॉलर कुछ ही महीनों में लिख सकता था । जस्टिस लिब्राहन की यह रिपोर्ट आम जनता की आंखों में धूल झोंकने जैसा है, जिसमें अपनी
विफलताओं को छुपाने के लिए दार्शनिक को चोला ओढा गया है ।
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Monday, November 30, 2009
Friday, November 27, 2009
स्त्री आकांक्षा की उंची उड़ान
हमेशा संपूर्ण भारतीय परिधान में रहनेवाली महामहिम राष्ट्रपति को जब अचानक वायुसेना की खास वर्दी में पुणे के लोहेगांव एयरबेस पर लड़ाकू विमान सुखोई की ओर बढ़ते देखा तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि एक भारतीय नारी इस सुपरसोनिक विमान में यात्रा कर सकती है । वायुसेना की वर्दी में जब प्रतिभा पाटिल सुखोई की सीढियां चढ़ रही थी तो वो एक नए इतिहास की ओर कदम बढ़ा रही थी । शांत, सौम्य चेहरे में प्रतिभा पाटिल जब सुखोई में बैठकर हाथ हिला रही थी वह दृश्य बुलंद होते भारत की एक ऐसी तस्वीर थी जिसपर हर भारतवासी गर्व कर सकता था । कहते हैं जब कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है । और हुआ भी वही- उम्र के चौहत्तर साल पूरे कर चुकी महामहिम प्रतिभा पाटिल ने आसमान में आठ हजार फीट की उंचाई पर आधे घंटे तक उड़ानभर कर इतिहास रच दिया । वो भारतीय गणतंत्र की पहली महिला राष्ट्रपति बन गई जिन्होंने सुपरसोनिक लडाकू विमान में इतनी ऊंचाई पर उडी । इस उड़ान के लिए महामहिम ने दो महीने तक जबरदस्त तैयारी की। उन्हें विमान में उड़ने के तौर तरीकों को बताया गया था । आपातस्थति से तैयार रहने के हर नुस्खे की बारिकियों को बताया गया। जोखिमों से निबटने की हर ट्रेनिंग लेने के बाद प्रतिभा पाटिल ने पुणे के लोहेगांव एयरबेस से उडान भरी । लगभग आधे घंटे तक आठ हजार फीट की उंचाई पर उड़ान भरने के बाद प्रतिभा पाटिल ने माना कि योग और नियमित व्याययाम से उन्हें इस कठिन उड़ान में मदद मिली । तो एक बार फिर साबित हुआ कि कड़ी मेहनत और हौसले के आगे कोई भी लक्ष्य बौना है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
Wednesday, November 18, 2009
अपराध की विचारधारा
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्ददेव भट्टाचार्या के मिदनापुर के दौरे के वक्त माओवादियों ने फिर से एक बार सरकार को खुली चुनौती दी और तीन लोगों को गोलियों से छलनी कर उनकी लाशें बीच सड़क पर फेंक दी । अपराध का तरीका भी वही । पहले उनके घर पहुंचे, बातचीत के लिए बाहर बुलाया फिर हथियारों के बल पर अगवा किया और बर्बरतापूर्वक कत्ल कर सरेआम सड़क पर फेंक दिया । बीच सड़क पर पड़ी इन तीन लाशों की तस्वीर देखकर दिल दहल गया । दिल तो उस दिन भी दहला था जब अक्तूबर में माओवादियों ने दिन दहाड़े पश्चिमी मिदनापुर के संकरैल पुलिस स्टेशन पर हमला कर दो पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया था और थाने के अफसर इंचार्ज अतीन्द्रनाथ दत्ता को अगवा कर अपने साथ ले गए थे । उस वक्त संकरैल थाने की जो तस्वीरें आई थी उसमें सब इंसपेक्टर दिवाकर भट्टाचार्य की लाश कुर्सी पर इस तरह पड़ी थी जैसे वो ड्यूटी के वक्त बैठा करते थे । इन दो तस्वीरों के अलावा अक्तूबर में ही माओवादियों के सरगना कोटेश्वर राव ने कुछ न्यूज चैनलों को इंटरव्यू दिए थे जिसमें उसके पीछे एके सैंतालीस लिए दो मुस्तंडे खड़े थे । ये तीन ऐसी तस्वीरें हैं जो माओवादियों के चरित्र को साफ तौर पर उभार कर सामने ला देती है । पहले की दो तस्वीरों में बर्बरता की पराकाष्ठा है और फिर कोटेश्वर राव की तस्वीर से ये सवाल खड़ा होता है कि आखिर माओवादियों के पास इतने खतरनाक हथियार कहां से आ रहे हैं । क्या ये हथियार विदेशों में बैठी भारत विरोधी ताकतें मुहैया करा रही हैं । इन हथियारों को खरीदने के लिए इनके पास पैसे कहां से आ रहे हैं । इन सवालों का जबाव माओवादियों के समर्थन में लेख लिखनेवाले विद्वान बुद्धिजीवियों के पास नहीं है ।
अभी एक साप्ताहिक पत्रिका में विश्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने अपने जोरदार तर्कों और शानदार भाषा की बदौलत माओवादियों के आंदोलन को जन आंदोलन साबित करने की कोशिश की है । एक ऐसा आंदोलन जो आदिवासी अपनी परंपरा, अपनी विरासत और अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं । अपने इस लंबे और सारगर्भित लेख में माओवादियों के आंदोलन को सही साबित करने के जोश में अरुंधति ने मीडिया से लेकर न्यायपालिका, सरकार से लेकर शासन तक को बिका हुआ करार दे दिया है, कहीं खुलकर तो कहीं इशारों-इशारों में । लेकिन अपने विद्वतापूर्ण लेख में अरुंधति ये भूल गईं कि वो स्थिति का सामान्यीकरण कर रही हैं । पूरे देश के अखबार और सभी न्यूज चैनल उनको बिका नजर आते हैं जो आदिवासियों के हितों पर पैसे को तरजीह देते हैं । सिर्फ फतवेबाजी से बात नहीं बनती है । वाक जाल में उलझाकर पाठकों को तो बांधा जा सकता है लेकिन बगैर किसी ठोस सबूत के देश की पूरी मीडिया को बगैर किसी ठोस सबूत के कठघरे में खड़ी करती हैं तो निसंदेह लेख और लेखक दोनों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है । बजाए फतवा जारी करने के अरुंधति को अपने तर्कों के समर्थन में कुछ तो उदाहरण पेश करने चाहिए थे । जिस तरह से उसके लेख में खदान मालिकों के बारे में कोई जनरलाइज्ड कमेंट नहीं है, वहां उन्होंने उदाहरण दिए हैं- तो उनकी बातों में वजन लगता है ।
लेकिन माओवादियों के समर्थन में लिखे गए इस लेख को लिखते वक्त अरुंधति के सामने इस हिंसा के शिकार हुए लोगों के परिवारों के बिलखते चेहरे नहीं आए होंगे क्योंकि अगर आपने एक खास किस्म का चश्मा पहन लिया है तो आपको वही दिखाई देगा जो आप देखना चाहेंगी । अरुंधति को उड़ीसा के डोंगरिया कोंध की याद और उनका दर्द तो दिखाई देता है लेकिन माओवादियों की गोलियों के शिकार बने झारखंड के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदुवर के परिवार का दर्द नहीं दिखाई देता । उसके छोटे बच्चे का वो बयान नहीं सुनाई दिया होगा जिसमें उसने बिलखते हुए कहा था कि मैं अपने पापा के हत्यारों से बदला लूंगा । अरुंधति को तो सिर्फ ये दिखता है कि पुलिसवाले आदिवासियों पर कितना अत्याचार करते हैं । क्या कभी किसी पुलिसवाले ने किसी भी माओवादी को उस बर्बर तरीके से कत्ल किया जिस तरह से गला रेत कर फ्रांसिस इंदुवर को मार डाला गया ।
अरुंधति जैसे लोगों का तर्क है कि अपनी जमीन लुटती देख कर माओवादियों ने हथियार उठा लिए हैं । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से परंपरागत हथियारों की जगह अति आधुनिक हथियारों ने ली है वो ना सिर्फ चौंकानेवाला है बल्कि गंभीर विमर्श की मांग भी करता है कि तीर धनुष की जगह एके सैंतालीस कहां से आ गया । कौन सी ताकतें माओवादियों को हथियारों के लिए फंड उपलब्ध करवा रही हैं । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि इनके सरगना कोटेश्नर राव की सुरक्षा में लगे लोगों के पास एके सैंतालीस हैं वैसे ही अत्याधुनिक हथियार संकरैल थाने पर हमला करनेवालों के हाथों में भी था जिसकी बदौलत उन्होंने वहां एक स्थानीय बैंक को लूटा था । सरकार को इन स्त्रोंतो का पता लगाने और उसे बंद करने की जरूरत है ।
अरुंधति ने अपने इस लेख में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम पर भी जमकर हमला बोला है और उन्हें इस बात की भी तकलीफ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चिंदबरम की तारीफ क्यों की । किसी की नजर में कोई अगर अच्छा काम कर रहा है तो क्या तारीफ सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वो विरोधी दल का सदस्य है । ये वह मानसिकता है जो इस तारीफ को भी हिंदू फंडामेंटलिज्म से जोड़कर भ्रम फैलाता है ।
अगर हम थोड़ा पीछ जाएं तो इस तरह के लेख और पत्र बुद्धिजीवियों ने लिखें हैं । 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने भी पत्र लिखकर सीपीआई एमएल को बिहार में बदला लेने का आह्वाण किया था । उस वक्त भी महाश्वेता देवी के उस पत्र का खासा विरोध हुआ था । अब ये सारे लोग एक बार फिर से माओवादियों के समर्थन में खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें से किसी भी बुद्धिजीवी ने फ्रांसिस इंदुवर, दिवाकर भट्टाचार्य और जयराम हासदा और लक्ष्मी दास की बर्बर हत्या के खिलाफ ना तो एक शब्द बोला और ना ही लिखा । साफ जाहिर है कि इनकी मंशा क्या है ।
अभी एक साप्ताहिक पत्रिका में विश्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने अपने जोरदार तर्कों और शानदार भाषा की बदौलत माओवादियों के आंदोलन को जन आंदोलन साबित करने की कोशिश की है । एक ऐसा आंदोलन जो आदिवासी अपनी परंपरा, अपनी विरासत और अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं । अपने इस लंबे और सारगर्भित लेख में माओवादियों के आंदोलन को सही साबित करने के जोश में अरुंधति ने मीडिया से लेकर न्यायपालिका, सरकार से लेकर शासन तक को बिका हुआ करार दे दिया है, कहीं खुलकर तो कहीं इशारों-इशारों में । लेकिन अपने विद्वतापूर्ण लेख में अरुंधति ये भूल गईं कि वो स्थिति का सामान्यीकरण कर रही हैं । पूरे देश के अखबार और सभी न्यूज चैनल उनको बिका नजर आते हैं जो आदिवासियों के हितों पर पैसे को तरजीह देते हैं । सिर्फ फतवेबाजी से बात नहीं बनती है । वाक जाल में उलझाकर पाठकों को तो बांधा जा सकता है लेकिन बगैर किसी ठोस सबूत के देश की पूरी मीडिया को बगैर किसी ठोस सबूत के कठघरे में खड़ी करती हैं तो निसंदेह लेख और लेखक दोनों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है । बजाए फतवा जारी करने के अरुंधति को अपने तर्कों के समर्थन में कुछ तो उदाहरण पेश करने चाहिए थे । जिस तरह से उसके लेख में खदान मालिकों के बारे में कोई जनरलाइज्ड कमेंट नहीं है, वहां उन्होंने उदाहरण दिए हैं- तो उनकी बातों में वजन लगता है ।
लेकिन माओवादियों के समर्थन में लिखे गए इस लेख को लिखते वक्त अरुंधति के सामने इस हिंसा के शिकार हुए लोगों के परिवारों के बिलखते चेहरे नहीं आए होंगे क्योंकि अगर आपने एक खास किस्म का चश्मा पहन लिया है तो आपको वही दिखाई देगा जो आप देखना चाहेंगी । अरुंधति को उड़ीसा के डोंगरिया कोंध की याद और उनका दर्द तो दिखाई देता है लेकिन माओवादियों की गोलियों के शिकार बने झारखंड के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदुवर के परिवार का दर्द नहीं दिखाई देता । उसके छोटे बच्चे का वो बयान नहीं सुनाई दिया होगा जिसमें उसने बिलखते हुए कहा था कि मैं अपने पापा के हत्यारों से बदला लूंगा । अरुंधति को तो सिर्फ ये दिखता है कि पुलिसवाले आदिवासियों पर कितना अत्याचार करते हैं । क्या कभी किसी पुलिसवाले ने किसी भी माओवादी को उस बर्बर तरीके से कत्ल किया जिस तरह से गला रेत कर फ्रांसिस इंदुवर को मार डाला गया ।
अरुंधति जैसे लोगों का तर्क है कि अपनी जमीन लुटती देख कर माओवादियों ने हथियार उठा लिए हैं । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से परंपरागत हथियारों की जगह अति आधुनिक हथियारों ने ली है वो ना सिर्फ चौंकानेवाला है बल्कि गंभीर विमर्श की मांग भी करता है कि तीर धनुष की जगह एके सैंतालीस कहां से आ गया । कौन सी ताकतें माओवादियों को हथियारों के लिए फंड उपलब्ध करवा रही हैं । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि इनके सरगना कोटेश्नर राव की सुरक्षा में लगे लोगों के पास एके सैंतालीस हैं वैसे ही अत्याधुनिक हथियार संकरैल थाने पर हमला करनेवालों के हाथों में भी था जिसकी बदौलत उन्होंने वहां एक स्थानीय बैंक को लूटा था । सरकार को इन स्त्रोंतो का पता लगाने और उसे बंद करने की जरूरत है ।
अरुंधति ने अपने इस लेख में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम पर भी जमकर हमला बोला है और उन्हें इस बात की भी तकलीफ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चिंदबरम की तारीफ क्यों की । किसी की नजर में कोई अगर अच्छा काम कर रहा है तो क्या तारीफ सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वो विरोधी दल का सदस्य है । ये वह मानसिकता है जो इस तारीफ को भी हिंदू फंडामेंटलिज्म से जोड़कर भ्रम फैलाता है ।
अगर हम थोड़ा पीछ जाएं तो इस तरह के लेख और पत्र बुद्धिजीवियों ने लिखें हैं । 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने भी पत्र लिखकर सीपीआई एमएल को बिहार में बदला लेने का आह्वाण किया था । उस वक्त भी महाश्वेता देवी के उस पत्र का खासा विरोध हुआ था । अब ये सारे लोग एक बार फिर से माओवादियों के समर्थन में खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें से किसी भी बुद्धिजीवी ने फ्रांसिस इंदुवर, दिवाकर भट्टाचार्य और जयराम हासदा और लक्ष्मी दास की बर्बर हत्या के खिलाफ ना तो एक शब्द बोला और ना ही लिखा । साफ जाहिर है कि इनकी मंशा क्या है ।
Monday, November 9, 2009
बड़े दिलवाले प्रभाष जी
आज से लगभग सात साल पहले की बात है जब नामवर सिंह पचहत्तर साल के हुएथे और प्रभाष जोशी की पहल पर देशभर में उनका जन्मदिन- नामवर के निमित्त- मनाया गया था । अब ठीक से याद नहीं है लेकिन दो हजार दो में ही हंस और एक दो जगह पर मैंने इस आयोजन को लेकर कई आलोचनात्मक लेख लिखे थे । ऐसा ही एक लेख हंस में – कारण कवण नाथ मोहे मारा- के शीर्षक से भी छपा था । बात आई गई हो गई थी । अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी और जब मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई क्या क्या अनंत से बात हो सकती है । मेरे जबाव देने पर फिर आवाज आई प्रभाष जोशी बोल रहा हूं । मैंने आदरपूर्वक नमस्कार किया तो उन्होंने कहा कि – बेटा हमीं पर शुरू हो गए । मैं डर से चुप रहा । चंद पलों के सन्नाटे के बाद प्रभाष जी ने ठहाका लगाया और कहा जमकर लिखते रहो और डरो मत । अगर तुम्हारी कलम में ताकत है और बगैर किसी पूर्वग्रह के लिख रहे हो तो बेखौफ अपनी बात रखो । फिर हाल चाल पूछा, परिवार में कौन लोग हैं यह दरियाफ्त करने के बाद फोन रखते हुए कहा कि जब वक्त मिले मिलना । फोन रखने के बाद मैं सिर्फ यह सोचकर खुश हो रहा था कि मेरे लेख का प्रभाष जी ने नोटिस लिया और फोन कर मुझे इस बात का एहसास भी करवाया । बात आई गई हो गई ।
दो साल बाद प्रभाष जी से मेरी दूसरी मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के घर पर हुई । वी पी सिंह के घर कुछ साहित्यकारों और पत्रकारों की मुलाकात और गपशप का एक कार्यक्रम रखा गया था और प्रभाष जी समेत कई लोग वहां पहुंचे थे । ऑफ व्हाइट धोती कुर्ता पहने प्रभाष जी जब लोगों से मिलजुलकर खड़े तो तो मैं भी हिम्मत कर उनके पास पहुंचा और अपना परिचय दिया । झट से उन्होंने नामवर सिंह से कहा कि देखो यही हैं अनंत विजय जिन्होंने नामवर के निमित्त पर हंस में लेख लिखा था । नामवर जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं जानता हूं कि आजकल ये साहित्य के मैदान में तलवारबाजी कर रहे हैं । मैं तो अंदर ही अंदर इस बात से खुश हो रहा था कि दो साल बाद भी प्रबाष जी को मेरा लिखा याद है और दूसरे यह कि नामवर सिंह जैसे दिग्गज मुझे मेरे लेख से पहचानते हैं । खुशी से मैं फूला नहीं समा रहा था । फिर प्रभाष जी ने मेरा हौसला बढ़ाया और कहा कि लिखते रहो लेकिन सिर्फ यह बात ध्यान में रखना कि कोई तुम्हारा इस्तेमाल कर अपना हित ना साध ले । इस बीच मुझे उनकी किताब हिंदू होने का धर्म मिल चुकी थी और मैंने उसके संदर्भ में कई बातें प्रभाष जी से पूछी और जानी । उन्होंने मुझे इंडियन साधूज पढ़ने की सलाह दी । लेकिन बाद में कई बार उनसे स्टूडियो में उनसे मुलाकात हुई लेकिन गंभीर बातचीत का अवसर नहीं मिला जो अब कभी मिल भी नहीं पाएगा क्योंकि 5 नबंवर की रात प्रभाष जी हम सब को छोड़कर चले गए ।
कुछ दिनों पहले प्रभाष जी ने एक बेवसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी आत्मकथा लिखना चाहते हैं । प्रभाष जी ने उसका शीर्षक दे भी दिया था – ओटत रहे कपास । लेकिन मासूम नहीं कि वो कितना कपास ओट पाए । अगर उन्होंने लिख दिया होगा तो यह किताब बेहद दिलचस्प होगी, भाषा औक कंटेंट दोंनों के लिहाज से । क्योंकि प्रभाष जी भाषा के साथ खेलते थे । प्रभाष जी को इस बात का श्रेय जाता है कि जब उन्होंने जनसत्ता का संपादन संभाला तो अखबारों की भाषा बेहद शास्त्रीय हुआ करती थी और संपादकों में यह हिम्मत नहीं थी कि वो भाषा को जनोन्मुख बना सकें । प्रबाष जी ने यह साहस दिखाया और अखबारों की भाषा के व्याकरण को आमूल चूल बदल दिया । बाद में इस तरह की भाषा का अनुसरण अखबारों ने और टीवी चैनलों ने अपनाया । न्यूज चैनल में काम करनेवाले हमारे मित्र यह जानते हैं कि बार-बार उनसे कहा जाता है कि आम आदमी की भाषा लिखो । प्रभाष जी ने अप्रैल 1992 से जनसत्ता में अपना साप्ताहिक कॉलम शुरू किया- कागद कारे । कुछ हफ्तों को छोड़कर यह कॉलम चलता रहा और इस कॉलम को पढनेवाले यह जानते हैं कि प्रभाष जी ने हिंदी में लोकभाषा को किस तरह मिलाकर भाषा का एक नया मुहावरा गढा और उसे पाठकों के बीच स्वीकार्य ही नहीं बनाया बल्कि लोकप्रिय बनाकर स्थापित भी किया । और उनकी इसी भाषा के चलते रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जी को अपने साथ जोड़ा और पहले प्रजानीति फिर इंडियन एक्सप्रेस फिर बाद में जनसत्ता का संपादक बनाया ।
प्रभाष जी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया अखबार से की । लेकिन फिर दिल्ली आ गए और अपनी भाषा और पत्रकारिता के नए तौर तरीके के बलबूते ना केवल खुद को स्थापित किया बल्कि पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ही खड़ी कर दी जिसे लोग प्रभाष जोशी स्कूल ऑप जर्नलिज्म कहने लगे । प्रबाष जोशी पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थे । जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई तो प्रभाष जी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के साथ हो लिए और बेहद सक्रिया के साथ इमरजेंसी का विरोध किया। उस दौर में लोग ये कहते थे कि दो ही संपादक इंदिरा गांधी के निशाने पर हैं मुलगांवकर और प्रभाष जोशी । बाद में यह साबित भी हुआ और प्रभाष जोशी को जयप्रकाश के समर्थन की कीमत भी चुकानी पड़ी । लेकिन संघर्ष के उन दिनों ने प्रभाष जोशी ने जमकर अध्ययन किया, जिसका असर बाद के दिनों में उनके लेखन पर दिखाई दिया । प्रभाष जोशी के लेखन का रेंज बहुत व्यापक था । वो समान अधिकार से राजनीति, फिल्म, खेल और साहित्य पर लिख सकते थे । बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि प्रभाष जी ने फिल्म पर एक पत्रिका का संपादन भी किया था । वो लंदन के अखबार में भी काम कर चुके थे । हिंदी साहित्या का भी प्रभाष जी ने गहन अध्ययन किया था और गाहे बगाहे उसपर अपनी राय भी जाहिर करते रहते थे लेकिन आज जब प्रबाष जी नहीं रहे तो ऐसा लगता है कि हिंदी की एक ऐसी आवाज खामोश हो गई जो लगातार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नकली और आक्रामक तत्वों के बरक्स हिंदू होने के असली धर्म और मर्म को उभार रहा था ।
दो साल बाद प्रभाष जी से मेरी दूसरी मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के घर पर हुई । वी पी सिंह के घर कुछ साहित्यकारों और पत्रकारों की मुलाकात और गपशप का एक कार्यक्रम रखा गया था और प्रभाष जी समेत कई लोग वहां पहुंचे थे । ऑफ व्हाइट धोती कुर्ता पहने प्रभाष जी जब लोगों से मिलजुलकर खड़े तो तो मैं भी हिम्मत कर उनके पास पहुंचा और अपना परिचय दिया । झट से उन्होंने नामवर सिंह से कहा कि देखो यही हैं अनंत विजय जिन्होंने नामवर के निमित्त पर हंस में लेख लिखा था । नामवर जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं जानता हूं कि आजकल ये साहित्य के मैदान में तलवारबाजी कर रहे हैं । मैं तो अंदर ही अंदर इस बात से खुश हो रहा था कि दो साल बाद भी प्रबाष जी को मेरा लिखा याद है और दूसरे यह कि नामवर सिंह जैसे दिग्गज मुझे मेरे लेख से पहचानते हैं । खुशी से मैं फूला नहीं समा रहा था । फिर प्रभाष जी ने मेरा हौसला बढ़ाया और कहा कि लिखते रहो लेकिन सिर्फ यह बात ध्यान में रखना कि कोई तुम्हारा इस्तेमाल कर अपना हित ना साध ले । इस बीच मुझे उनकी किताब हिंदू होने का धर्म मिल चुकी थी और मैंने उसके संदर्भ में कई बातें प्रभाष जी से पूछी और जानी । उन्होंने मुझे इंडियन साधूज पढ़ने की सलाह दी । लेकिन बाद में कई बार उनसे स्टूडियो में उनसे मुलाकात हुई लेकिन गंभीर बातचीत का अवसर नहीं मिला जो अब कभी मिल भी नहीं पाएगा क्योंकि 5 नबंवर की रात प्रभाष जी हम सब को छोड़कर चले गए ।
कुछ दिनों पहले प्रभाष जी ने एक बेवसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी आत्मकथा लिखना चाहते हैं । प्रभाष जी ने उसका शीर्षक दे भी दिया था – ओटत रहे कपास । लेकिन मासूम नहीं कि वो कितना कपास ओट पाए । अगर उन्होंने लिख दिया होगा तो यह किताब बेहद दिलचस्प होगी, भाषा औक कंटेंट दोंनों के लिहाज से । क्योंकि प्रभाष जी भाषा के साथ खेलते थे । प्रभाष जी को इस बात का श्रेय जाता है कि जब उन्होंने जनसत्ता का संपादन संभाला तो अखबारों की भाषा बेहद शास्त्रीय हुआ करती थी और संपादकों में यह हिम्मत नहीं थी कि वो भाषा को जनोन्मुख बना सकें । प्रबाष जी ने यह साहस दिखाया और अखबारों की भाषा के व्याकरण को आमूल चूल बदल दिया । बाद में इस तरह की भाषा का अनुसरण अखबारों ने और टीवी चैनलों ने अपनाया । न्यूज चैनल में काम करनेवाले हमारे मित्र यह जानते हैं कि बार-बार उनसे कहा जाता है कि आम आदमी की भाषा लिखो । प्रभाष जी ने अप्रैल 1992 से जनसत्ता में अपना साप्ताहिक कॉलम शुरू किया- कागद कारे । कुछ हफ्तों को छोड़कर यह कॉलम चलता रहा और इस कॉलम को पढनेवाले यह जानते हैं कि प्रभाष जी ने हिंदी में लोकभाषा को किस तरह मिलाकर भाषा का एक नया मुहावरा गढा और उसे पाठकों के बीच स्वीकार्य ही नहीं बनाया बल्कि लोकप्रिय बनाकर स्थापित भी किया । और उनकी इसी भाषा के चलते रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जी को अपने साथ जोड़ा और पहले प्रजानीति फिर इंडियन एक्सप्रेस फिर बाद में जनसत्ता का संपादक बनाया ।
प्रभाष जी ने पत्रकारिता की शुरुआत नई दुनिया अखबार से की । लेकिन फिर दिल्ली आ गए और अपनी भाषा और पत्रकारिता के नए तौर तरीके के बलबूते ना केवल खुद को स्थापित किया बल्कि पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ही खड़ी कर दी जिसे लोग प्रभाष जोशी स्कूल ऑप जर्नलिज्म कहने लगे । प्रबाष जोशी पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थे । जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई तो प्रभाष जी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के साथ हो लिए और बेहद सक्रिया के साथ इमरजेंसी का विरोध किया। उस दौर में लोग ये कहते थे कि दो ही संपादक इंदिरा गांधी के निशाने पर हैं मुलगांवकर और प्रभाष जोशी । बाद में यह साबित भी हुआ और प्रभाष जोशी को जयप्रकाश के समर्थन की कीमत भी चुकानी पड़ी । लेकिन संघर्ष के उन दिनों ने प्रभाष जोशी ने जमकर अध्ययन किया, जिसका असर बाद के दिनों में उनके लेखन पर दिखाई दिया । प्रभाष जोशी के लेखन का रेंज बहुत व्यापक था । वो समान अधिकार से राजनीति, फिल्म, खेल और साहित्य पर लिख सकते थे । बहुत कम लोगों को यह बात पता होगी कि प्रभाष जी ने फिल्म पर एक पत्रिका का संपादन भी किया था । वो लंदन के अखबार में भी काम कर चुके थे । हिंदी साहित्या का भी प्रभाष जी ने गहन अध्ययन किया था और गाहे बगाहे उसपर अपनी राय भी जाहिर करते रहते थे लेकिन आज जब प्रबाष जी नहीं रहे तो ऐसा लगता है कि हिंदी की एक ऐसी आवाज खामोश हो गई जो लगातार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नकली और आक्रामक तत्वों के बरक्स हिंदू होने के असली धर्म और मर्म को उभार रहा था ।
Friday, November 6, 2009
पत्रों से छंटती धुंध
अस्सी के दशक की एक फिल्म में नोबेल पुरस्कार विजेता और अंग्रेजी कविता को नई दिशा देनेवाले कवि टी एस इलियट के पारिवारिक जीवन के कई अनछुए पहलुओं को दर्शाया गया था जिसको लेकर अच्छा खासा विवाद खड़ा हो गया था । इलियट पर यह आरोप लगता रहा है कि वो एक क्रूर पति थे और अपनी पहली पत्नी विवियन पर तमाम जुल्म किया करते थे । इसको लेकर इंग्लैंड और अमेरिका में अच्छा खासा विवाद भी रहा है और इलियट के जीवन काल में उनपर जमकर हमले भी हुए और उन्हें तमाम आलोचनाएं झेलनी पड़ी । दरअसल अगर हम इलियट के जीवन के पन्नों को थोड़ा पलटें तो बेहद दिलचस्प कहानी सामने आती है । ये उन्नीस सौ पंद्रह के वसंत की बात है जब हॉवर्ड में ‘डॉयल’ के संपादक सियोफील्ड थायर ने अपनी बहन की दोस्त और डांसर विवियन वुड से इलियट को मिलवाया । वसंत का मौसम था, पहचान को प्यार में बदलते देर नहीं लगी और इलियट ने परिवार की मर्जी के खिलाफ विवियन से शादी रचा ली । लेकिन इसके बाद के संघर्ष ने दोनों के रिश्तों के बीच खटास ला दी । एक वजह विवयन की बर्टेंड रसेल से नजदीकी भी रही । संघर्ष के दिनों में इलियट अपनी पत्नी के साथ रसेल के घर रह रहे थे , उस दौरान कुछ समय के लिए बर्टेंड रसेल और विवियन एक दूसरे के बेहद करीब आ गए थे । इस करीबी ने पति-पत्नी के रिश्ते में दरार डाल दी । संबंध बनते बिगड़ते रहे लेकिन दस साल के बाद दोनों अलग रहने लगे और अपने धार्मिक विश्वास के चलते तलाक नहीं ली । पति से अलग रहने और साथ होने की तमाम कोशिशों के नाकामयाब होने से विवयन को जो मानसिक तनाव और अवसाद हुआ उसने उसे अंदर से तोड़ दिया । हालात इतने बिगड़े कि उसे लंदन के एक मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती करवाना पड़ा । तबियत ठीक होने की बजाए बिगड़ती चली गई और विवयन उन्नीस सौ सैंतीस में गुमनामी में उसकी मौत हो गई । यह वो वक्त था जब इलियट को अंग्रेजी कविता की दुनिया में प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा दोनों हासिल हो रही थी । आलोचकों का आरोप है कि अपने करियर के चक्कर में इलियट ने अपनी पत्नी पर समुचित ध्यान नहीं दिया और उसे उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया । कालांतर में इलियट ने दूसरी शादी भी रचाई ।
लेकिन इलियट की मौत के चालीस साल बाद ये तमाम आरोप खारिज होते नजर आ रहे हैं । इलियट की दूसरी पत्नी के वैलेरी ने इलियट के कुछ पत्रों का संग्रह प्रकाशित किया है जो बीस से तीस के दशक में इलियट ने अपने भाई और अपने साहित्यिक मित्रों को लिखा था । इन पत्रों से यह साफ जाहिर होता है कि इलियट अपनी पहली पत्नी की बीमारी को लेकर बेहद दुखी रहा करते थे । विवयन की देखभाल करनेवाले डॉक्टरों को कोसते हुए इलियट ने उन्हें जर्मन ब्रूट और अपनी हुनर का दंभ भरनेवाला डॉक्टर करार दे रहे थे । उन्होंने एक पत्र में लिखा कि वो अपनी पत्नी की बीमारी से इतने तंग आ चुके हैं कि वो आत्महत्या करना चाहते हैं ।
अप्रैल उन्नीस सौ चौबीस में इलियट ने अपने भाई को लिखा- ‘विवियन की पिछली बीमारी और उसकी वजह से जो कष्ट झेल रही है, मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । मैं उसे तीन महीने के लिए अकेला भी नहीं छोड़ सकता ।‘ जब उन्नीस सौ सत्ताइस में इलियट ने अमेरिका की नागरिकता छोड़ कर ब्रिटिश नागरिकता स्वीकार की तो उपन्यासकार जॉन मिडिल्टन मरे को एक पत्र लिखा-‘ मेरी पत्नी की तीबयत बेहद खराब है और अब तो हालता इतने बिगड़ चुके हैं कि पिछले तीन दिनों से वह ये सोच रही है कि उसके शरीर और दिमाग का साथ छूट चुका है । अपने दुख और संत्रास का वर्णन करते हुए इलियट ने यहां तक लिख दिया कि मैंने जानबूझकर अपनी भावनाओं का कत्ल कर दिया है, अपने आपको मार दिया है ताकि मैं विवियन को ये एहसास दिला सकूं कि कोई उसका ध्यान रखनेवाला है । मरे को ही एक दूसरे खत में इलियट ने ये लिखा कि - विवयन की तबीयत बहुत खराब है और कई बार तो ये लगता है कि वो मौत उसके बिल्कुल पास खड़ी है ये उसके जीवन का सबसे खराब पल हैं और वो किस्मत के सहारे ही जीवित है । इलियट के इस पत्र को उनकी दूसरी पत्नी के सक्रिय सहयोग से प्रकाशित किया गया है । इन पत्रों से इलियट की क्रूर पति और एंटी सीमेटिक की जो छवि थी वो धव्स्त होती लग रही है । लेकिन पत्रों के इस संग्रह के प्रकाशन के पहले ही पश्चिमी मीडिया में इसको लेकर अच्छी खासी साहित्यिक बहस शुरू हो गई है और इलियट के समर्थकों ने आरोप लगानेवाले आलोचकों पर हल्ला बोल दिया है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ये बहस किस दिशा में मुड़ती है और अंग्रेजी के महानतम कवियों में से एक इलियट को लेकर अंग्रेजी आलोचकों का क्या रुख होता है ।
लेकिन इलियट की मौत के चालीस साल बाद ये तमाम आरोप खारिज होते नजर आ रहे हैं । इलियट की दूसरी पत्नी के वैलेरी ने इलियट के कुछ पत्रों का संग्रह प्रकाशित किया है जो बीस से तीस के दशक में इलियट ने अपने भाई और अपने साहित्यिक मित्रों को लिखा था । इन पत्रों से यह साफ जाहिर होता है कि इलियट अपनी पहली पत्नी की बीमारी को लेकर बेहद दुखी रहा करते थे । विवयन की देखभाल करनेवाले डॉक्टरों को कोसते हुए इलियट ने उन्हें जर्मन ब्रूट और अपनी हुनर का दंभ भरनेवाला डॉक्टर करार दे रहे थे । उन्होंने एक पत्र में लिखा कि वो अपनी पत्नी की बीमारी से इतने तंग आ चुके हैं कि वो आत्महत्या करना चाहते हैं ।
अप्रैल उन्नीस सौ चौबीस में इलियट ने अपने भाई को लिखा- ‘विवियन की पिछली बीमारी और उसकी वजह से जो कष्ट झेल रही है, मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । मैं उसे तीन महीने के लिए अकेला भी नहीं छोड़ सकता ।‘ जब उन्नीस सौ सत्ताइस में इलियट ने अमेरिका की नागरिकता छोड़ कर ब्रिटिश नागरिकता स्वीकार की तो उपन्यासकार जॉन मिडिल्टन मरे को एक पत्र लिखा-‘ मेरी पत्नी की तीबयत बेहद खराब है और अब तो हालता इतने बिगड़ चुके हैं कि पिछले तीन दिनों से वह ये सोच रही है कि उसके शरीर और दिमाग का साथ छूट चुका है । अपने दुख और संत्रास का वर्णन करते हुए इलियट ने यहां तक लिख दिया कि मैंने जानबूझकर अपनी भावनाओं का कत्ल कर दिया है, अपने आपको मार दिया है ताकि मैं विवियन को ये एहसास दिला सकूं कि कोई उसका ध्यान रखनेवाला है । मरे को ही एक दूसरे खत में इलियट ने ये लिखा कि - विवयन की तबीयत बहुत खराब है और कई बार तो ये लगता है कि वो मौत उसके बिल्कुल पास खड़ी है ये उसके जीवन का सबसे खराब पल हैं और वो किस्मत के सहारे ही जीवित है । इलियट के इस पत्र को उनकी दूसरी पत्नी के सक्रिय सहयोग से प्रकाशित किया गया है । इन पत्रों से इलियट की क्रूर पति और एंटी सीमेटिक की जो छवि थी वो धव्स्त होती लग रही है । लेकिन पत्रों के इस संग्रह के प्रकाशन के पहले ही पश्चिमी मीडिया में इसको लेकर अच्छी खासी साहित्यिक बहस शुरू हो गई है और इलियट के समर्थकों ने आरोप लगानेवाले आलोचकों पर हल्ला बोल दिया है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ये बहस किस दिशा में मुड़ती है और अंग्रेजी के महानतम कवियों में से एक इलियट को लेकर अंग्रेजी आलोचकों का क्या रुख होता है ।
Tuesday, November 3, 2009
सवा सात सौ पन्नों में फैला प्रेम
लगभग तीन साल पहले जब रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक होकर दिल्ली आए थे तो साहित्य की दुनिया में हंस और राजेन्द्र यादव का सिक्का चल रहा था । जब कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक बन कर आए तो राजेन्द्र यादव से नाराज लेखक और लेखिकाएं कालिया के इर्द दिर्द इकट्ठा होने लगे, उन्हें लगा कि अब वो राजेन्द्र यादव को नीचा दिखाने के लिए रवीन्द्र कालिया और नया ज्ञानोदय के मंच का इस्तेमाल कर पाएंगे । कुछ लोगों का कहना था कि रवीन्द्र कालिया दिल्ली की साहित्यिक राजनीति को समझ नहीं पाएंगे और उसके शिकार हो जाएंगे । लेकिन कालिया ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए ना केवल नया ज्ञानोदय को एक नई दिशा और तेवर प्रदान किया बल्कि अपने संपादकीय कौशल का भी लोहा मनवा लिया और लेखक लेखिकाओं का एक मजबूत खेमा खड़ा भी कर लिया । ज्ञानोदय के नियमित पाठकों को इस बात का अंदाजा लगाने में दिक्कत नहीं होगी । हलांकि बीच में एक दो बार उनकी कुर्सी हिलती नजर आई लेकिन तमाम दांव पेंच को धता बताते हुए रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक बने रहे और अब तो अगले तीन साल के लिए फिर से उसी पद पर नियुक्त कर दिए गए हैं ।
रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और राजेन्द्र यादव हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । लगभग दो साल बाद हंस ने भी अजय नावरिया के संपादन में युवा अंक निकाला लेकिन हंस का विशेषांक ज्ञानोदय के विशेषांक के आस पास भी नहीं टिक सका ।
अब कालिया के संपादन में पिछले चार अंको से ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक निकल रहा है और संपादक ने एक बार फिर दावा किया है कि इस विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा उनका बड़बोलापन लग सकता है लेकिन उस पर अविश्वास की कोई वजह दिखाई नहीं देती ।
अब बात करें प्रेम महाविशेषांको की । संपादक ने लिखा- हमने प्रेम विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनाई तो लगा कि हम एक ऐसे सघन वन में प्रवेश कर गए हैं जहां से बाहर निकल पाना सरल नहीं है । रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा । यहीं पर कालिया ने ये संकेत कर दिया था कि प्रेम विशेषांक की सीरीज चार अंको तक जा सकती है । पहले अंक में हिंदी और उर्दू की पांच- पांच प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । इसके अलावा इस अंक में अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं की पांच कालजयी प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है, जिनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, जयशंकर प्रसाद, इस्मत चुगताई, राजिन्दर सिंह बेदी, वैकम मुहम्मद बशीर, चेखव, मार्केस आदि प्रमुख हैं । इस अंक में प्रेम कहानियों के अलावा कालजयी प्रेम कविताओं को भी जगह दी गई है । साथ ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास-देवदास- का नया अनुवाद युवा कथाकार और कालिया के प्रिय कुणाल सिंह ने किया है । इस नए अनुवाद में कुणाल सिंह ने कोई वैल्यू एडिशन किया हो ऐसा पहली नजर में लगता नहीं है ।
दूसरे अंक में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का नया उपन्यास प्रेम की भूतकथा प्रकाशित हुई है । विभूति नाराय़ण राय के यह उपन्यास इस अंक की उपलब्धि है । सौ साल पहले के मसूरी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। पाठकों को विभूति के इस उपन्यास में प्रेम की एक नई अनुभूति का एहसास होगा और मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में यह उपन्यास पाठकों के साथ-साथ आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचेगा । इस अंक में मधु कांकरिया, राजेन्द्र राव, रजनी गुप्ता की प्रेम कहानियां उल्लेखनीय हैं । कविताओं का संयोजन बुद्धिनाथ मिश्र ने किया है और बच्चन से लेकर अनूप अशेष तक की कविताएं संकलित की गई हैं । इनमें अगर कुछ कविताओं को छोड़ भी दिया जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता । दूसरा अंक आते आते ज्ञानोदय के कवर भी प्रेम झलकने लगा और एक खूबसूरत महिला की तस्वीर ने यहां कब्जा जमा लिया ।
सितंबर में प्रेम महाविशेषांक की तीसरी कड़ी प्रकाशित हुई । इसके कवर पर राजकपूर और नर्गिस की छतरीवाली मशहूर तस्वीर है । यह अंक प्रेम का युवा पक्ष पर केंद्रित है । पता नहीं कवर पर यह कैप्शन क्यों लगाया गया है क्योंकि मेरा मानना है कि प्रेम तो हमेशा युवा ही रहता है । इस अंक में महुआ माजी, अनुज और राकेश मिश्र की कहानी को रेखांकित किया जा सकता है । रवि बुले की कहानी हलांकि थोड़ी उलझी हुई है लेकिन एक खास वर्ग के पाठकों को यह कहानी पसंद आ सकती है । कविताओं में पंकज राग, यतीन्द्र मिश्र ,पवन करण , प्रज्ञा रावत, हर्षवर्धन, विनय सौरभ और वर्तिका नंदा की कविताएं पठनीय हैं ।
प्रेम विशेषांक का चौथा अंक युवा रचनाशीलता पर केंद्रित है और इसमें हिंदी की कुछ और चुनिंदा प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । यहां शर्मिला बोहरा जालान की कहानी सिर्फ कॉफी, मनीषा कुलश्रेष्ठ की गन्धर्व गाथा, राजुला शाह की नीला और ओम प्रकाश तिवारी की एक लड़की पहेली सी में प्रेम तीव्रता के साथ साथ अलग अलग रंग देखे जा सकते हैं । कमलेश्वर की नीली झील छापकर संपादक ने पहले अंक में हुई अपनी भूल को सुधार लिया है । कृष्ण बिहारी की लंबी कहानी स्वेत, स्याम, रतनार छपी है जो बेहद लंबी है और कहीं कहीं उबाती भी है । इस कहानी को अगर संपादित कर इसकी कथा में अनावश्यक विस्तार की चूलें कस दी जाती तो बेहतर बन सकती थी । इस अंक में कविताएं कमजोर हैं और अगर ना भी छापी गई होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता । विजय मोहन सिंह के सारगर्भित लेख भी इन अंकों में है । साथ ही कांति कुमार जैन और लाल बहादुर वर्मा ने भी प्रेम को केंद्र में रखकर विद्वतापूर्ण आलेख लिखे हैं । इन चार अंको पर अगर समग्रता से विचार करें तो कालिया का संपादकीय कौशल तो सामने आता ही है साथ ही बाजर को पहचानने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की संपादकीय दृष्टि भी सामने आती है । कालिया के संपादन में जब वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक छपा था तब भी उन दोनों अंको की खासी चर्चा हुई थी और साहित्य की दुनिया में वो अंक अब भी मील के पत्थर हैं । इन अंकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि रवीन्द्र कालिया स्त्री विमर्श पर केंद्रित कोई विशेषांक निकालकर सीधे-सीधे राजनेद्र यादव को चुनौती देते हैं या फिर इसी सरह साहित्य का एजेंडा सेट कर आनंदित होते रहते हैं ।
रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और राजेन्द्र यादव हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । लगभग दो साल बाद हंस ने भी अजय नावरिया के संपादन में युवा अंक निकाला लेकिन हंस का विशेषांक ज्ञानोदय के विशेषांक के आस पास भी नहीं टिक सका ।
अब कालिया के संपादन में पिछले चार अंको से ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक निकल रहा है और संपादक ने एक बार फिर दावा किया है कि इस विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा उनका बड़बोलापन लग सकता है लेकिन उस पर अविश्वास की कोई वजह दिखाई नहीं देती ।
अब बात करें प्रेम महाविशेषांको की । संपादक ने लिखा- हमने प्रेम विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनाई तो लगा कि हम एक ऐसे सघन वन में प्रवेश कर गए हैं जहां से बाहर निकल पाना सरल नहीं है । रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा । यहीं पर कालिया ने ये संकेत कर दिया था कि प्रेम विशेषांक की सीरीज चार अंको तक जा सकती है । पहले अंक में हिंदी और उर्दू की पांच- पांच प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । इसके अलावा इस अंक में अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं की पांच कालजयी प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है, जिनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, जयशंकर प्रसाद, इस्मत चुगताई, राजिन्दर सिंह बेदी, वैकम मुहम्मद बशीर, चेखव, मार्केस आदि प्रमुख हैं । इस अंक में प्रेम कहानियों के अलावा कालजयी प्रेम कविताओं को भी जगह दी गई है । साथ ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास-देवदास- का नया अनुवाद युवा कथाकार और कालिया के प्रिय कुणाल सिंह ने किया है । इस नए अनुवाद में कुणाल सिंह ने कोई वैल्यू एडिशन किया हो ऐसा पहली नजर में लगता नहीं है ।
दूसरे अंक में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का नया उपन्यास प्रेम की भूतकथा प्रकाशित हुई है । विभूति नाराय़ण राय के यह उपन्यास इस अंक की उपलब्धि है । सौ साल पहले के मसूरी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। पाठकों को विभूति के इस उपन्यास में प्रेम की एक नई अनुभूति का एहसास होगा और मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में यह उपन्यास पाठकों के साथ-साथ आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचेगा । इस अंक में मधु कांकरिया, राजेन्द्र राव, रजनी गुप्ता की प्रेम कहानियां उल्लेखनीय हैं । कविताओं का संयोजन बुद्धिनाथ मिश्र ने किया है और बच्चन से लेकर अनूप अशेष तक की कविताएं संकलित की गई हैं । इनमें अगर कुछ कविताओं को छोड़ भी दिया जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता । दूसरा अंक आते आते ज्ञानोदय के कवर भी प्रेम झलकने लगा और एक खूबसूरत महिला की तस्वीर ने यहां कब्जा जमा लिया ।
सितंबर में प्रेम महाविशेषांक की तीसरी कड़ी प्रकाशित हुई । इसके कवर पर राजकपूर और नर्गिस की छतरीवाली मशहूर तस्वीर है । यह अंक प्रेम का युवा पक्ष पर केंद्रित है । पता नहीं कवर पर यह कैप्शन क्यों लगाया गया है क्योंकि मेरा मानना है कि प्रेम तो हमेशा युवा ही रहता है । इस अंक में महुआ माजी, अनुज और राकेश मिश्र की कहानी को रेखांकित किया जा सकता है । रवि बुले की कहानी हलांकि थोड़ी उलझी हुई है लेकिन एक खास वर्ग के पाठकों को यह कहानी पसंद आ सकती है । कविताओं में पंकज राग, यतीन्द्र मिश्र ,पवन करण , प्रज्ञा रावत, हर्षवर्धन, विनय सौरभ और वर्तिका नंदा की कविताएं पठनीय हैं ।
प्रेम विशेषांक का चौथा अंक युवा रचनाशीलता पर केंद्रित है और इसमें हिंदी की कुछ और चुनिंदा प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । यहां शर्मिला बोहरा जालान की कहानी सिर्फ कॉफी, मनीषा कुलश्रेष्ठ की गन्धर्व गाथा, राजुला शाह की नीला और ओम प्रकाश तिवारी की एक लड़की पहेली सी में प्रेम तीव्रता के साथ साथ अलग अलग रंग देखे जा सकते हैं । कमलेश्वर की नीली झील छापकर संपादक ने पहले अंक में हुई अपनी भूल को सुधार लिया है । कृष्ण बिहारी की लंबी कहानी स्वेत, स्याम, रतनार छपी है जो बेहद लंबी है और कहीं कहीं उबाती भी है । इस कहानी को अगर संपादित कर इसकी कथा में अनावश्यक विस्तार की चूलें कस दी जाती तो बेहतर बन सकती थी । इस अंक में कविताएं कमजोर हैं और अगर ना भी छापी गई होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता । विजय मोहन सिंह के सारगर्भित लेख भी इन अंकों में है । साथ ही कांति कुमार जैन और लाल बहादुर वर्मा ने भी प्रेम को केंद्र में रखकर विद्वतापूर्ण आलेख लिखे हैं । इन चार अंको पर अगर समग्रता से विचार करें तो कालिया का संपादकीय कौशल तो सामने आता ही है साथ ही बाजर को पहचानने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की संपादकीय दृष्टि भी सामने आती है । कालिया के संपादन में जब वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक छपा था तब भी उन दोनों अंको की खासी चर्चा हुई थी और साहित्य की दुनिया में वो अंक अब भी मील के पत्थर हैं । इन अंकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि रवीन्द्र कालिया स्त्री विमर्श पर केंद्रित कोई विशेषांक निकालकर सीधे-सीधे राजनेद्र यादव को चुनौती देते हैं या फिर इसी सरह साहित्य का एजेंडा सेट कर आनंदित होते रहते हैं ।
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