लगभग तीन साल पहले जब रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक होकर दिल्ली आए थे तो साहित्य की दुनिया में हंस और राजेन्द्र यादव का सिक्का चल रहा था । जब कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक बन कर आए तो राजेन्द्र यादव से नाराज लेखक और लेखिकाएं कालिया के इर्द दिर्द इकट्ठा होने लगे, उन्हें लगा कि अब वो राजेन्द्र यादव को नीचा दिखाने के लिए रवीन्द्र कालिया और नया ज्ञानोदय के मंच का इस्तेमाल कर पाएंगे । कुछ लोगों का कहना था कि रवीन्द्र कालिया दिल्ली की साहित्यिक राजनीति को समझ नहीं पाएंगे और उसके शिकार हो जाएंगे । लेकिन कालिया ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए ना केवल नया ज्ञानोदय को एक नई दिशा और तेवर प्रदान किया बल्कि अपने संपादकीय कौशल का भी लोहा मनवा लिया और लेखक लेखिकाओं का एक मजबूत खेमा खड़ा भी कर लिया । ज्ञानोदय के नियमित पाठकों को इस बात का अंदाजा लगाने में दिक्कत नहीं होगी । हलांकि बीच में एक दो बार उनकी कुर्सी हिलती नजर आई लेकिन तमाम दांव पेंच को धता बताते हुए रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक बने रहे और अब तो अगले तीन साल के लिए फिर से उसी पद पर नियुक्त कर दिए गए हैं ।
रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और राजेन्द्र यादव हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । लगभग दो साल बाद हंस ने भी अजय नावरिया के संपादन में युवा अंक निकाला लेकिन हंस का विशेषांक ज्ञानोदय के विशेषांक के आस पास भी नहीं टिक सका ।
अब कालिया के संपादन में पिछले चार अंको से ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक निकल रहा है और संपादक ने एक बार फिर दावा किया है कि इस विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा उनका बड़बोलापन लग सकता है लेकिन उस पर अविश्वास की कोई वजह दिखाई नहीं देती ।
अब बात करें प्रेम महाविशेषांको की । संपादक ने लिखा- हमने प्रेम विशेषांक प्रकाशित करने की योजना बनाई तो लगा कि हम एक ऐसे सघन वन में प्रवेश कर गए हैं जहां से बाहर निकल पाना सरल नहीं है । रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा । यहीं पर कालिया ने ये संकेत कर दिया था कि प्रेम विशेषांक की सीरीज चार अंको तक जा सकती है । पहले अंक में हिंदी और उर्दू की पांच- पांच प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । इसके अलावा इस अंक में अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं की पांच कालजयी प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है, जिनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडारी, जयशंकर प्रसाद, इस्मत चुगताई, राजिन्दर सिंह बेदी, वैकम मुहम्मद बशीर, चेखव, मार्केस आदि प्रमुख हैं । इस अंक में प्रेम कहानियों के अलावा कालजयी प्रेम कविताओं को भी जगह दी गई है । साथ ही शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास-देवदास- का नया अनुवाद युवा कथाकार और कालिया के प्रिय कुणाल सिंह ने किया है । इस नए अनुवाद में कुणाल सिंह ने कोई वैल्यू एडिशन किया हो ऐसा पहली नजर में लगता नहीं है ।
दूसरे अंक में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का नया उपन्यास प्रेम की भूतकथा प्रकाशित हुई है । विभूति नाराय़ण राय के यह उपन्यास इस अंक की उपलब्धि है । सौ साल पहले के मसूरी को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बेहतर बन पड़ा है। पाठकों को विभूति के इस उपन्यास में प्रेम की एक नई अनुभूति का एहसास होगा और मुझे लगता है कि आनेवाले दिनों में यह उपन्यास पाठकों के साथ-साथ आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचेगा । इस अंक में मधु कांकरिया, राजेन्द्र राव, रजनी गुप्ता की प्रेम कहानियां उल्लेखनीय हैं । कविताओं का संयोजन बुद्धिनाथ मिश्र ने किया है और बच्चन से लेकर अनूप अशेष तक की कविताएं संकलित की गई हैं । इनमें अगर कुछ कविताओं को छोड़ भी दिया जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता । दूसरा अंक आते आते ज्ञानोदय के कवर भी प्रेम झलकने लगा और एक खूबसूरत महिला की तस्वीर ने यहां कब्जा जमा लिया ।
सितंबर में प्रेम महाविशेषांक की तीसरी कड़ी प्रकाशित हुई । इसके कवर पर राजकपूर और नर्गिस की छतरीवाली मशहूर तस्वीर है । यह अंक प्रेम का युवा पक्ष पर केंद्रित है । पता नहीं कवर पर यह कैप्शन क्यों लगाया गया है क्योंकि मेरा मानना है कि प्रेम तो हमेशा युवा ही रहता है । इस अंक में महुआ माजी, अनुज और राकेश मिश्र की कहानी को रेखांकित किया जा सकता है । रवि बुले की कहानी हलांकि थोड़ी उलझी हुई है लेकिन एक खास वर्ग के पाठकों को यह कहानी पसंद आ सकती है । कविताओं में पंकज राग, यतीन्द्र मिश्र ,पवन करण , प्रज्ञा रावत, हर्षवर्धन, विनय सौरभ और वर्तिका नंदा की कविताएं पठनीय हैं ।
प्रेम विशेषांक का चौथा अंक युवा रचनाशीलता पर केंद्रित है और इसमें हिंदी की कुछ और चुनिंदा प्रेम कहानियों को प्रकाशित किया गया है । यहां शर्मिला बोहरा जालान की कहानी सिर्फ कॉफी, मनीषा कुलश्रेष्ठ की गन्धर्व गाथा, राजुला शाह की नीला और ओम प्रकाश तिवारी की एक लड़की पहेली सी में प्रेम तीव्रता के साथ साथ अलग अलग रंग देखे जा सकते हैं । कमलेश्वर की नीली झील छापकर संपादक ने पहले अंक में हुई अपनी भूल को सुधार लिया है । कृष्ण बिहारी की लंबी कहानी स्वेत, स्याम, रतनार छपी है जो बेहद लंबी है और कहीं कहीं उबाती भी है । इस कहानी को अगर संपादित कर इसकी कथा में अनावश्यक विस्तार की चूलें कस दी जाती तो बेहतर बन सकती थी । इस अंक में कविताएं कमजोर हैं और अगर ना भी छापी गई होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता । विजय मोहन सिंह के सारगर्भित लेख भी इन अंकों में है । साथ ही कांति कुमार जैन और लाल बहादुर वर्मा ने भी प्रेम को केंद्र में रखकर विद्वतापूर्ण आलेख लिखे हैं । इन चार अंको पर अगर समग्रता से विचार करें तो कालिया का संपादकीय कौशल तो सामने आता ही है साथ ही बाजर को पहचानने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की संपादकीय दृष्टि भी सामने आती है । कालिया के संपादन में जब वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक छपा था तब भी उन दोनों अंको की खासी चर्चा हुई थी और साहित्य की दुनिया में वो अंक अब भी मील के पत्थर हैं । इन अंकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि रवीन्द्र कालिया स्त्री विमर्श पर केंद्रित कोई विशेषांक निकालकर सीधे-सीधे राजनेद्र यादव को चुनौती देते हैं या फिर इसी सरह साहित्य का एजेंडा सेट कर आनंदित होते रहते हैं ।
2 comments:
बहुत सारगर्भित जानकारी पूर्ण पोस्ट...शुक्रिया.
नीरज
अच्छा vishleshan है ........
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