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Monday, December 21, 2009

साहित्य अकादमी पुरस्कारों का खेल खुला

रामदरश मिश्र को मिलेगा अकादमी पुरस्कार !
साल के आखिरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज हो जाती हैं । राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाजार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होनेवाले लेखकों की सूची रहती है । जहां भी तीन चार लेखक जुटते हैं कयासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई और किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है । किसने अपनी गोटी सेट कर ली है । साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलनेवाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी । पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक और वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था । गिरिराज किशोर को जब ये इलहाम हुआ था तो उन्होंने विरोध का झंडा तो उठाया था पर कुछ कर नहीं सके थे और गोपीचंद नारंग ने जिसे चाहा उसे पुरस्कार दे दिया ।
अगर अकादमी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इस बार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की दौड़ में हिंदी के वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी और रामदरश मिश्र रेस में सबसे आगे चल रहे हैं । माना जा रहा है कि कैलाश वाजपेयी को उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर पर इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है । दूसरे मजबूत दावेदार रामदरश मिश्र हैं । उनकी उम्र और वरिष्ठता को देखते हुए जूरी उनपर भी मेहरबान हो सकती है । साहित्य अकादमी की परंपरा के मुताबिक इस बार कविता का नंबर है, क्योंकि पिछले साल गोविन्द मिश्र को उनके उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था । संयोग यह था कि गोविन्द मिश्र और हिंदी के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी दोनों गोऱखपुर इलाके के हैं । हलांकि इस बार परंपरा के मुताबिक कविता संग्रह को अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत भी एक प्रमुख दावेदार है । पिछले दिनों जब रेत को लेकर विवाद हुआ और मामला अदालत तक जा पहुंचा तो तो इस बात की भी जोर शोर से चर्चा हुई कि साहित्य अकादमी ने अबतक किसी दलित लेखक को हिंदी के लिए पुरस्कार नहीं दिया । अगर साहित्य अकादमी अपने उपर लगे इस कलंक को धोना चाहती है तो भगवानदास नोरवाल को इस बार अकादमी अवार्ड मिल सकता है । लेकिन इस किताब पर अदालत में चल रहा मामला मोरवाल को इस रेस में पीछे धकेल सकता है ।
दरअसल साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का खेल काफी पहले से शुरू हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है और हिंदी भाषा की जो सलाहकार समिति या एडवायजरी बोर्ड होती है उसके सदस्यों से उसमें से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध करती है । एडवायजरी बोर्ड के सदस्य को तीन से ज्यादा कृतियों की सिफारिश करने की भी छूट होती है । जब इन सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है उसके बाद हर विधा अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय मिलने के बाद हर विधा की तीन तीन किताबों को पुरस्कार के लिए चुना जाता है । इन तीन किताबों में से तीन सदस्यीय जूरी एक कृति का चुनाव करती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है । लेकिन किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में जो़ड-तोड़ और तिकड़मों का ऐसा खेल खेला जाता है कि सियासत भी शरमा जाती है । अपनी या अपने गैंग के लेखकों की किताब को आधार सूची में डलवाने इस खेल की शुरुआत होती है । उसके बाद की सारी मशक्कत एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपने नाम की सिफारिश भिजवाने की होती है । पुरस्कार की चाह में लेखक इसके लिए दिन रात एक कर देते हैं । इस किले की घेरेबंदी के बाद शुरु होती है कि किसे फाइनल जूरी का सदस्य बनवाया जाए । इस कमिटी के सदस्यों का चुनाव अध्यक्ष की मर्जी से होता है, लेकिन अगर अध्यक्ष की रुचि हिंदी भाषा में ना हो या फिर वो इसको लेकर तटस्थ रहे तो फिर हिंदी भाषा के संयोजक का काम आसान हो जाता है और वो अपनी मर्जी के लोगों को जूरी में नामित करवा लेता है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत करते हैं । हलांकि जब नामवर सिंह हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तो ये स्थिति नहीं थी । तब नामवर जी की ही मर्जी चला करती थी । एक बार फिर से गोपीचंद नारंग के अध्यक्ष पद से हटने और विश्वनाथ तिवारी के हिंदी के संयोजक बनने के बाद स्थिति लगभग वैसी ही हो गई है । नामवर जी जैसी दबंगई से तो तिवारी जी काम नहीं करते हैं लेकिन लेकिन अंदरखाने चलती तो उनकी ही है। जब से विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक बने हैं तब से हिंदी में तो उनकी ही मर्जी चल रही है । अपने पसंदीदा लेखक गोविंद मिश्र को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिलवा कर उन्होंने पिछले वर्ष इसे साबित भी किया । जब जूरी के सदस्य फैसला ले लेते हैं उसके बाद उस फैसले को एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं,जोसिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है ।

1 comment:

Geetashree said...

गजब..महाराज..गजब. ब्रेकिंग न्यूज. कमाल किया आपने. साहित्य जगत में घटने वाली घटनाएं मुख्य खबर नहीं होती है, आमतौर पर. लेकिन यह खबर तो डिजर्व करती है.खोजी पत्रकारिता का चलन साहित्य में भी शुरु हो सकता है..आप इसके प्रवर्तक माने जाएंगे..बधाई। बजाते रहो..