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Sunday, June 13, 2010

गुलजार ने चेतन भगत को धोया

अभी ज्यादा दिन नहीं हीते हैं जब थ्री इडियट्स फिल्म में क्रेडिट को लेकर लेखक चेतन भगत ने खासा बवाल खड़ा कर दिया था । चेतन भगत के दो हजार चार में लिखे उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन- व्हाट नॉट टू डू एट आई आई टी – पर विधु विनोद चोप़ड़ा ने फिल्म बनाई जो सुपर हिट रही थी । लेखकीय जगत में प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्ष कर रहे चेतन भगत को उस विवाद से हिंदी जगत में एक पहचान मिल गई थी । चेतन के अंग्रेजी में लिखी किताबें हिंदी में अनूदित होकर हजारों की संख्या में बिकी । इससे चेतन को आर्थिक लाभ अवश्य हुआ होगा लेकिन ना तो उनके हिंदी ज्ञान में कोई इजाफा हुआ और ना ही हिंदी समाज के मन मिजाज को समझने में कोई मदद मिली । लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है कि सफलता मिलते ही लोग खुद को ज्ञानी समझने लगते हैं, चेतन भी उसी सक्सेस सिंड्रोम के शिकार हो गए । ट्विटर और ब्लॉग की दुनिया में छोटी बड़ी टिप्पणी कर लोकप्रियता हासिल करनेवाले चेतन भगत एक समारोह में फंस गए ।
किस्सा बेहद दिलचस्प है । मुंबई में एक समारोह के दौरान चेतन भगत और गुलजार साथ बैठे थे । चेतन को सभी अतिथियों का स्वागत तो करना ही था, समारोह का संचालन भी करना था । चेतन ने अपने अंदाज में ठसक के साथ कार्यक्रम की शुरुआत की । अतिथियों का परिचय करवाते हुए बारी गुलजार साहब की आई । यहीं पर चेतन भगत से चूक हो गई । ऑस्कर पुरस्कार विजेता और हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित लेखक-गीतकार गुलजार का परिचय करवाते हुए चेतन भगत ने कहा- मुझे कजरारे-कजरारे गीत बेहद पसंद है । गुलजार साहब ने इस गीतो को लिखा है । यह बेहतरीन कविता का एक नमूना है । जिस तरह से चेतन यह बात कही वो गुलजार साहब को चुभ गई । गुलजार को नजदीक से जानने वाले इस बात को बेहद अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी वाणी विरोधियों के खिलाफ तेजाब उगलती है । शायद चेतन को यह पता नहीं रहा होगा और उसने गीतकार गुलजार पर टिप्पणी कर डाली जो गुलजार को अखर गई । चेतन बोल ही रहे थे कि उन्होंने इशारा कर माइक अपने पास मंगवाया और बोलने की इच्छा जाहिर की । किसी भी कार्यक्रम में जब गुलजार साहब बोलना चाहें तो किसी की मजाल नहीं कि उन्हें रोक सके । गुलजार ने माइक हाथ में लिया और खचाखच भरे हॉल में बोलना शुरु किया- चेतन मुझे यह बात बेहद अच्छी लगी और मैं खुश हूं कि आप जैसे महान लेखक को कजरारे –कजरारे गीत अच्छा लगा । लेकिन मुझे लगता है कि आप जिस कविता की यहां बात कर रहे हैं उसे समझ भी पाए हैं । अगर आपको फिर भी लगता है कि आपने उस कविता को समझा है तो मैं आपके लिए उसकी दो लाइन गाकर सुनाता हूं आप भरे हॉल में उसका अर्थ बता दीजिए । गुलजार साहब यहीं पर नहीं रुके और उन्होंने कजरारे-कजरारे गीत से दो लाइन गाकर सुना दी – तेरी बातों में किवाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है । इसके बाद सीधे चेतन की तरफ मुखातिब होकर पूछा कि इसका अर्थ बताइये । अब चेतन को काटो तो खून नहीं । गुलजार जैसा सीनियर लेखक भरी सभा में कविता की दो लाइन का अर्थ पूछ रहा है । गुलजार के वार से सन्न रह गए चेतन बगलें झांकने लगे । चेतन को चुप देखकर भी गुलजार नहीं रुके । उन्होंने भरी सभा में चेतन को झिड़कना शुरू कर दिया । गुलजार ने कहा – जिस चीज के बारे में पता नहीं हो उसके बारे में कुछ भी बोलना उचित नहीं है । जिसके बारे में जानते हो उसी के बारे में बोलो । हाथ में माइक लिए पोडियम पर खडे़ चेतन की स्थिति का अंदाज आप लगा सकते हैं । गुलजार ने चेतन की ठसक और हेकड़ी चंद पलों में हवा कर दी ।
मैं विश्वास के साथ तो यह नहीं कह सकता कि चेतन को उन दो पंक्तियों का अर्थ पता नहीं था लेकिन चेतन भगत जिस पीढ़ी को और जिस तरह की अंग्रेजीदां जनरेशन का प्रतिनिधित्व करते हैं उनके लिए ‘किवाम की खुशबू’ और ‘गर्मियों की लू’ का अर्थ ना जानना कोई हैरत की बात नहीं है । किसी तरह से मामला निबटा और समारोह खत्म हुआ । इस वाकए से एक बात तो साफ हो गई कि हिंदी को जाने बगैर भी हिंदी के बाजर को भुनाने की लगातार कोशिश हो रही है । चेतन के अलावा हिंदी फिल्मों की सफलतम नायिका कटरीना कैफ इतने दिनों बाद भी हिंदी बोल नहीं पाती है । इतना वक्त बिताने के बाद हिंदी समझ जरूर लेती है । अब इसे बिडंबना ही कहा जाएगा कि कटरीना हिंदी फिल्मों की सफलतम हिरोइन है । हिंदी के बूते कमाने-खाने वाले लोग हिंदी बोलना तक नहीं जानते ।
चेतन के उपन्यास खासे लोकप्रिय हैं और अंग्रेजी के अलावा हिंदी में हजारो की संख्या में बिके हैं । लेकिन व्यावसायिक सफलता को गुणवत्ता की गारंटी नहीं माना जा सकता है । मेरठ से निकलने वाले प्लप फिक्शन भी हिंदी में खासे लोकप्रिय हुए हैं और हो भी रहे हैं लेकिन उनके लेखकों को कोई स्थायी पहचान हिंदी में नहीं बन पाई । रानू और मनोज को अब कितने लोग याद करते हैं । वेद प्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत भी कुछ ही दिनों की बात हैं । होता यह है कि पल्प फिक्शन राइटर पैसा तो बहुत कमा लेता है, पाठकों के बीच लोकप्रियता भी हासिल कर लेता है लेकिन लेखकीय प्रतिष्ठा उसे हासिल नहीं हो पाती है ।
गुलजार चेतन विवाद से एक बात तो साफ हो गई है कि भारत में अंग्रेजीदां युवक युवतियों की एक ऐसी फौज तैयार हो गई है जिसे ना तो हिंदी की समझ है और ना ही अंगेजी को समझते हैं । पटर-पटर अंग्रेजी बोलनेवाले लोगों को भी अंग्रेजी की परंपरा और उसके व्याकरण का ज्ञान नहीं होता है । लेकिन उन्हें इसका रिमोर्स भी नहीं होता । अगर आप किसी चीच को नहीं जानते हैं तो आपको उसका अफसोस होना चहिए लेकिन आज की युवा पीढ़ी – हू केयर्स के सिद्धांतो पर चलती है जहां अपनी अज्ञानता पर उन्हें फख्र होता है । प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध को नहीं जानने को वो अपनी शान समझते हैं । अज्ञेय, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, रवीन्द्र कालिया का नाम नहीं सुनने को उन्हें जरा भी मलाल नहीं । एक और दिलचस्प प्रसंग बताता हूं – न्यूज चैनल की एक बड़ी एंकर हैं । किसी जमाने में साहित्य कला की बीट कवर करती थी । दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा था, मोहतरमा उसे कवर कर रही थी ।संपादक ने फोन कर कहा कि ‘गीतांजलि’ लेते आना । मेले से लौटने के बाद बेहद बेतकुल्लफी से वो अपने संपादक के पास गई और कहा कि गीतांजली को मेले में बहुत ढूंढा लेकिन वो कहीं दिखाई नहीं दी । मैंने उसके लिए मैसेज छोड़ दिया है कि वो तुरंत आपको फोन करे । बेचारे संपादक महोदय... लाने को कहा था रविन्द्रनाथ टैगोर की किताब ‘गीतांजलि’ लेकिन उनकी खोजी रिपोर्टर ने ढूंढ लिया किसी लड़की गीतांजलि को । संपादक मुंह ताकते रहे और वो रिपोर्टर वहां से इस तरह चली गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो ।

8 comments:

Anamikaghatak said...

jivan ghatana .........padhkar maza aaya

सम्वेदना के स्वर said...

एक बार मेरे एक बड़े क़रीबी जानने वाले सज्जन (अब जीवित नहीं) ने मुझसे अपनी पत्रिका के लिए एक लेख लिखने को कहा था. मैंने लेख के आखिर में गुलज़ार साब की एक नज़्म की कुछ लाईनें क़ोट कीं. जब पत्रिका आई तो गुलज़ार साब की लाईनें ग़ायब थीं. मैं पत्रिका लेकर उनके ऊपर चढ बैठा (वे मुझसे दुगुनी उम्र के थे). मैंने पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया तो जवाब मिला कि गुलज़ार फिल्मी गीतकार हैं और उनकी पत्रिका साहित्यिक. मैंने उसी समय उनको वाणी प्रकाशन से प्रकाशित वो किताब दिखाई, जिससे वो पंक्तियाँ ली थीं मैंने, और उनके सामने पत्रिका फाड़कर फेंक दी. मैंने कहा कि जिसको साहित्य की समझ न हो उसकी साहित्यिक पत्रिका मेरे लिए पल्प साहित्य से ज़्यादा कुछ नहींजो मैं नहीं पढ़ता. चेतन भगत की बात पता है मुझे. ग़लत दरवाज़े पर दस्तक दी थी, थप्पड़ तो लगना ही था.

विजयप्रकाश said...

आजकल सतही जानकारी प्राप्त कर लोग साहित्यकार बन बैठे हैं. "बिल्ली के भाग से छींका टूटा" ऐसे लोगों के लिये ही कहा गया है.

sonal said...

अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ हा जब हिंदी के शब्दों के प्रयोग के कारण मुझे हेय द्रष्टि से देखा जाता था और मुहावरों का प्रयोग कुछ आधुनिक लोगो को गंवारू लगता था, गुलज़ार साहिब से अनुरोध है अपनी मुहिम जारी रखे , उनके देशज शब्दों के प्रयोग हमारे दिल को ठंडक पहुंचाते है चाहे वो "लिहाफ हो या किमाम "

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

story padhane me aanand aayaa

Dr. Yogendra Pal said...

दिल खुश कर दिया आपके लेख ने-

वैसे ऐसा नहीं है कि सभी युवा हिंदी से भटक रहे हैं, Who cares वाली बात सिर्फ मेट्रो शहरों तक ही सीमित है |
मैं हिंदी में लिखना/ पढना पसंद करता हूँ, जिन लेखकों के बारे में आपने लिखा है, इन सभी के सभी उपन्यास मैंने २० साल की उम्र तक पहुँचते पहुँचते पढ़ लिए थे| मेरी विडियो बुक भी हिंदी में है, जिससे कि छात्रों को समझने में कोई तकलीफ ना हो, और मेरे आस पास भी मेरे जैसे कई लोग रहते हैं|

सबसे बड़ा उदाहरण तो खुद blogger.com ही है, जिसमे कई युवा हिंदी में लिखते हैं..

विश्वमोहन said...

बढ़िया!

विश्वमोहन said...

बढ़िया!!!