कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार की दूसरी पारी के सालभर पूरा होने पर हर तरफ सरकार के कामकाज को कसौटी पर कसा गया । किसी ने फेल किया तो किसी ने पास तो किसी ने औसत नंबर दिए । प्रधानमंत्री ने भी मीडिया से बात कर अपनी और सरकार की पीठ थपथपाई । लेकिन इन तमाम कोलाहल के बीच हम यह भूल गए कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए मजबूत और जिम्मेदार विपक्ष का होना भी जरूरी है । जब यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल की समीक्षा हो रही है तो यह भी आवश्यक है कि मुख्य विपक्षी दल के सालभर के कामकाज को भी परखा जाए। दो हजार नौ में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से मुंह की खाने के बाद बीजेपी में लगभग विद्रोह जैसी स्थिति हो गई थी । दो हजार चार में लोकसभा चुनाव में बीजेपी की इतनी बुरी गत नहीं बनी थी । कांग्रेस की एक सौ पैंतालीस सीटों की तुलना में उसे कुछ ही कम सीटें मिली थी । लेकिन दो हजार नौ में पार्टी का जनादेश और कम हो गया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर ही सवाल खड़े होने लगे । अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा सरीखे नेताओं ने अपने बयानों से केंद्रीय नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया । अरुण शौरी ने पार्टी के आला नेतृत्व को हम्फ्टी-डम्फ्टी तक बता डाला । इन बयानबाजी का असर यह हुआ कि पार्टी दिशाहीन हो गई । पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा बुलंद करनेवाली पार्टी में अनुशासनहीनता चरम पर जा पहुंची ।
जब वक्त हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर पार्टी में एक संदेश देने का था तो पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नेता विपक्ष की कुर्सी पर बने रहने का इरादा जता दिया था । नेता विपक्ष को मिलनेवाली सुविधाएं छोड़ने को वो राजी नहीं थे । लेकिन देर से ही सही संघ के दबाव में आडवाणी ने नेता विपक्ष की कुर्सी छोड़ दी । बीजेपी ने सुषमा स्वराज को लोकसभा में और अरुण जेटली को राज्यसभा में नेता चुना तो लगा कि पार्टी में नए नेतृत्व से स्थितियां बदलेगी और अपेक्षाकृत युवा नेता नई जान फूंक पाएंगें । लेकिन बूढे होते आडवाणी का गद्दी मोह नहीं छूटा और संसदीय दल पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए वो उसके चेयरमैन पद पर आसीन हो गए ।
बीजेपी में चल रहा ड्रामा यहीं खत्म नहीं हुआ । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की दखल के बाद महाराष्ट्र की राजनीति करनेवाले नितिन गडकरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। देशभर में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच नितिन गडकरी की काबिलियत को लेकर एक संदेह का वातावरण बना । इसकी वजह से पार्टी से जुडे़ कार्यकर्ताओं में किसी तरह का उत्साह पैदा नहीं हो सका । लंबे जद्दोजहद के बाद नितिन गडकरी ने दो महीने पहले तेरह उपाध्यक्ष और पंद्रह महासचिव समेत पार्टी पदाधिकारियों की एक बड़ी फौज का ऐलान किया । टीम के ऐलान के साथ ही पार्टी प्रवक्ता बनाए गए शाहनवाज हुसैन और राजीव प्रताप रुडी खफा हो गए । शाहनवाज ने तो कुछ दिनों तक पार्टी की बैठकों का बहिष्कार कर नेतृत्व को चुनौती भी दी । शाहनवाज हुसैन का तर्क था कि जब रविशंकर प्रसाद केंद्र में राज्य मंत्री थे तो वो कैबिनेट मंत्री थे, लिहाजा पार्टी में रविशंकर प्रसाद का जूनियर बनाकर अध्यक्ष ने उन्हें अपमानित किया है । दो महीने से ज्यादा का वक्त बीत गया पार्टी पदाधिकारियों का एलान हुए लेकिन गडकरी अब तक उनके बीच काम का बंटवारा नहीं कर पाए हैं । हां इस बीच यह जरूर हुआ कि गडकरी ने लालू और मुलायम सिंह यादव को सोनिया का तलवा चाटने वाला कुत्ता बताकर खासी आलोचना झेली । जिस पार्टी का अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सलीकेदार वक्ता रहा वहां गडकरी के इस छिछले बयान ने बीजेपी की छवि पर दाग लगा दिया जिसकी निकट भविष्य में भारपाई मुश्किल है ।
अगर हम पार्टी अध्यक्ष के तौर पर गडकरी के राजनैतिक पैसलों पर नजर डालें तो वहां भी वो बुरी तरह से अपरिपक्व नजर आए । झारखंड में शिबू सोरेन और उसके बेटे हमंत सोरेन की चाल में फंसकर पार्टी की खासी भद पिटी । सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान फिर साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला और फिर समर्थन वापसी के फैसले से पार्टी की किरकिरी हुई । राजनीति में शुचिता और पवित्रता की बात करनेवाली पार्टी झारखंड में बुरी तरह से एक्सपोज हो गई ।
लोकतंत्र में विपक्षी दल की एक महती जिम्मेदारी यह भी होती है वह सरकार की गलत नीतियों को उजागर करे, साथ ही सरकार के जन विरोधी कदमों का पुरजोर विरोध करते हुए आंदोलन करे । लेकिन अगर हम पिछले सालभर के बीजेपी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो अपनी अंतर्कलह से जूझ रही पार्टी कोई भी बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई । महंगाई और गन्ने के मूल्य पर संसद में विपक्षी दलों के बीच अभूतपूर्व एकता दिखाई दी थी । उन्नीस सौ नवासी में वीपी सिंह की सरकार गठन के बाद पहली बार बीजेपी, वामपंथी दल और लालू-मुलायम एक साथ नजर आए थे । लेकिन विपक्षी दलों की यह एकता ज्यादा समय तक चल नहीं पाई । कांग्रेस के राजनीतिक दांव के आगे विपक्षी एकता तार-तार हो गई । इससे भी बीजेपी के सरकार को घेरने के सपने पर ग्रहण लग गया । प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते इस बिखराव को ना रोक पाने का ठीकरा भी बीजेपी ही सर ही फूटा ।
संसद में बिखरी विपक्षी एकता को कांग्रेस ने बजट पर कटौती प्रस्ताव के दौरान जमकर भुनाया और एक बार फिर से साबित कर दिया कि गठबंधन की सरकार को कोई खतरा नहीं है । देश में महंगाई चरम पर है, जनता त्राहिमाम कर रही है, गैस के बाद अब पेट्रोल डीजल के दाम बढाने की सरकार तैयारी कर रही है । किसानों को सब्सिडी की रियायत खत्म करने की भी कवायद चल रही है । आम आदमी के नाम पर सत्ता में वापस लौटी कांग्रेस को आम आदमी की ही फिक्र नहीं है लेकिन बीजेपी को भी कहां फिक्र है । दिल्ली में पार्टी ने महंगाई पर एक प्रतीकात्मक रैली अवश्य की लेकिन महंगाई के मुद्दे पर देशव्यापी आंदोलन झेड़ने में बुरी तरह नाकाम रही । इसकी वजह है कि संगठन और काडर जिस बीजेपी की मजबूती हुआ करती थी आज वही संगठन और कार्यकर्ता द्वंद में हैं । राज्य इकाइयों के अध्यक्ष या तो चुने नहीं जा सके हैं या फिर जहां चुने गए हैं वहां वो पदाधिकारी बनाने और रूठे नेताओं को मनाने में लगे हैं । जनता और उसकी समस्या के लिए उनके पास वक्त ही नहीं है । दिल्ली की रैली में गर्मी से गश खाकर गिर पड़ने वाले बीजेपी अध्यक्ष विदेश में छुट्टियां मना रहे हैं । हालात तो यह है कि राज्यसभा के चुनाव होने हैं लेकिन अभी तक पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति का गठन नहीं हो पाया है । सबकुछ एडहॉक तरीके से चल रहा है । लोकतंत्र के लिए प्रमुख विपक्षी दल का इस तरह से बिखरा हुआ और दिशाहीन होना अच्छा नहीं है । जरूरत इस बात की है कि पार्टी हार के सदमे से उबरे, अंतर्कलह को दरकिनार करे और जनता के बीच जाकर फिर से अपनो खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश करे, तभी पार्टी मजबूत होगी और देश में लोकतंत्र भी मजबूत होगा ।
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