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Tuesday, June 22, 2010

हरे जख्म पर मुआवजे का मरहम

भोपाल गैस कांड पर केंद्र सरकार अपनी खाल बचाने में जुटी है । चार दिनों तक लगातार मंत्रियों के समूह की बैठक हुई । इस बैठक में भोपाल के गैस पीड़ितों के जख्मों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की गई । छब्बीस साल तक कुंभकर्णी नींद सो रही केंद्र सरकार को अब भोपाल गैस पीड़ितों की सुध लेने की सूझी । इस बात पर सहमति बनी कि सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन यानि सुधार याचिका दाखिल की जाएगी और वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की जाएगी । यह फैसला भी देश की आवाम को बरगलाने की एक कोशिश है । एंडरसन पर सिर्फ लापरवाही के आरोप हैं और अमेरिका की अदालत ने इस मामले में इंटेंट साबित नहीं हो पाने की वजह से प्रत्यर्पण की अर्जी खारिज कर दी है। अब भारत सरकार को इसके लिए एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी। प्रत्यार्पण के लिए अपने अनुरोध पत्र को बदलना होगा । एंडरसन नब्बे की उम्र पार कर चुका है और अमेरिकी कानून में प्रत्यर्पण के लिए आरोपी की उम्र को भी ध्यान में रखा जाता है । कुल मिलाकर यह एक ऐसी कोशिश है जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना लगभग तय है । तकरीबन चालीस हजार लोगों की मौत के बाद अचानक सरकार के सक्रिय दिखने की वजह कुछ और है । अदालत के फैसले के बाद केंद्र सरकार चौतरफ दबाव में थी । कांग्रेस अपने दामन पर लगे दाग को धोने और आरोपों के दलदल से निकलने के लिए बेचैन है । अदालती फैसले के बाद एंडरसन के भारत से भागने को लेकर जिस तरह से मीडिया ने सरकार को घेरा और उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर आरोप लगे उससे कांग्रेस सकते में आ गई । पार्टी नेताओं ने बचाव में अलग-अलग तर्क देने शुरू किए जिसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी में पहले भ्रम की स्थिति बनी । पार्टी के महासचिव और दस जनपथ के करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह ने एंडरसन के भारत से भगाने को लेकर राजीव गांधी को घेरे में ले लिया । पार्टी के एक और नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अलग राग अलापते हुए अर्जुन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए । मामला बिगड़ता देख पार्टी डैमेज कंट्रोल में जुटी और नेताओं को भोपाल मसले पर मुंह बंद करने का फरमान जारी कर दिया गया । अब पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी यह तर्क दे रहे हैं कि अगर वॉरेन एंडरसन को नहीं भगाया जाता तो देश की जनता उसे मार डालती । मनीष के तर्क बेहद लचर और तथ्यहीन हैं । अगर भोपाल की जनता में गैस लीक कांड को लेकर गुस्सा था और इस बात की आशंका थी वो हिंसक हो सकती थी तो तो एंडरसन को वहां से निकाल कर देश के किसी भी हिस्से में रखा जा सकता था । देश में इतने खुफिया ठिकाने हैं जिसमें से कहीं भी एंडरसन को रखा जा सकता था लेकिन उसे तो शाही ठाठ-बाट के साथ भारत से विदा किया गया । भारत से भागने के पहले उसने देश के राष्ट्रपति के साथ बैठकर चाय पी । एयरपोर्ट पर हंसते हुए कहा कि अब मैं आजाद हूं । उस वक्त एंडरसन के बॉडी लैंगवेज से यह साफ तौर पर झलकता है कि वो अपने भारत से निकल जाने को लेकर बहुत आश्वस्त था और जाहिर सी बात है कि यह आश्वासन देश के सर्वोच्च नेतृत्व से ही मिला होगा । और इस आश्वासन के पीछे का राज खुलता है तो यह बोफोर्स से बड़ा कांड साबित हो सकता है ।
भोपाल के मसले पर पर साफ तौर पर कानून को एंडरसन और यूनियन कार्बाइड के पक्ष में तोड़ा मरोड़ा गया । देश का कानून मंत्री इस बात को सरेआम स्वीकार कर चुका है कि कोर्ट ने इस मामले को हल्का कर दिया लेकिन खुद वकील होने के बावजूद हमारे कानून मंत्री यह भूल गए कि उस वक्त क्योरेटिव पीटीशन या सुधार याचिका ना डालकर केंद्र सरकार ने बड़ी गलती की थी । दरअसल इस पूरे मामले में शुरू से ही कांग्रेस के नेतृत्ववाली केंद्र और राज्य सरकार दोनों शक के घेरे में है । भोपाल गैस कांड के बाद जब मुआवजे और हजारों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदारियां तय करने संबंधित मुकदमे अलग-अलग अदालतों में दर्ज होने लगे तो फौरन से केंद्र सरकार हरकत में आई । उसने एक कानून बनाकर भोपाल गैस पीडितों की लडाई लड़ने का सारा अधिकार अपने हाथ में ले लिया । अचानक केंद्र सरकार को यह बात याद आ गई कि वो देश के गरीबों के हितों का रक्षक है और उसे इस केस में कस्टोडियन बनना चाहिए । जब केंद्र के इस नए कानून को देश की सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई तो सरकार ने संप्रभु सरकार के पेरेंस पाट्रिए के सिद्धांत की आड़ में अपना बचाव किया । मतलब यह कि एक संप्रभु राष्ट्र को अपनी जनता के अभिभावकत्व का हक है और उसका यह दायित्व भी है कि जनता के साथ किसी भी तरह से अन्याय नहीं हो । लिहाजा वो जो भी फैसला लेगी वो सही होगा । यह उसी तरह है जैसे कि कोई माता-पिता अपने बच्चों के बारे में फैसला लेते हैं । इस कानून की आड़ में सरकार ने भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ बड़ा छल किया । सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ एक समझौता किया जिसमें तकरीबन आठ सौ करोड़ मुआवजा की बात तय की गई । भोपाल के गुनहगार एंडरसन को भारत से भगा दिया गया । आम आदमी के हितों की रक्षा का ढोल पीटकर सारा अधिकार अपने हाथ में लेने के बाद भी केंद्र सरकार चालीस हजार लोगों की मौत के मुजरिमों को सिर्फ दो साल की सजा दिलवा पाने में कामयाब हो पाई । सजा भी उन धाराओं में हुई जिसमें कि हाथ के हाथ जमानत भी मिल जाती है । यह देश के साथ केंद्र सरकार का बड़ा धोखा है । एक सोची समझी रणनीति के तहत कानून बनाकर भोपाल गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ने का अधिकार केंद्र सरकार ने अपने हाथ में लिया । ताकि मनमाफिक फैसले हो सकें । क्या भोपाल गैस कांड में पीड़ितों की हक की लड़ाई का अधिकार अपने हाथ में लेने वाली कांग्रेस पार्टी को चंद दिनों पहले दिल्ली में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के नरसंहार मामले में इस कानून को बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई । क्या गुजरात दंगें में हजारों की ह्त्या के बाद केंद्र सरकार को एक संप्रभु राष्ट्र की जिम्मेदारियों का एहसास नहीं हुआ । इससे एक बात तो साफ है कि केंद्र सरकार अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड और उसके कर्ता-धर्ता को साफ तौर बचाना चाहती थी । जीओएम की कचरा साफ करने के फैसले को लेकर लिया गया निर्णय साफ तौर पर यूनियन कार्बाइड को खरीदनेवाली कंपनी डाउ केमिकल को जवाबदेही से बचाने की एक चाल है ।
लेकिन इससे भी बड़ा एक खतरा देश पर मंडरा रहा है । अमेरिका से परमाणु समझौता होने के बाद से देश में न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने की तैयारी जोर शोर से हो रही है । विदेशों से रिएक्टर की खरीददारी की बात भी चल रही है । लेकिन अमेरिका समेत कई देशों की कंपनियों ने किसी हादसे की सूरत में किसी भी तरह के मुआवजा की शर्तों का पालन ना करने की बात कही है । अगर सरकार विदेशी कंपनियों की शर्तों को मान लेती है और किसी भी तरह के हादसे की स्थिति में हर्जाने की बात के बगैर उनको रिएक्टर लगाने की इजाजत दे देती है तो देश एक बड़े खतरे के मुहाने पर बैठा रहेगा । सरकार को यह सुनिश्चित करना पडे़गा कि उसके देश की आम जनता ना केवल सुरक्षित रहे बल्कि उसे यह भरोसा भी रहे कि सरकार उसकी सुरक्षा को लेकर सतर्क है । अगर ऐसा नहीं होता है तो देश की गरीब जनता का सरकार और कानून दोनों पर से विश्वास उठ जाएगा जो देश के लिए गंभीर मसला होगा और लोकतंत्र के लिए खतरा ।

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