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Monday, September 13, 2010

पाठकों से छल करते कहानीकार

चंद दिनों पहले की बात है मेरी पत्नी किताबों की दुकान से चित्रा मुदगल की किताब- गेंद और अन्य कहानियां खरीद लाई । इस संग्रह के उपर दो मासूम बच्चों की तस्वीर छपी है और नीचे लिखा है बच्चों पर केंद्रित कहानियों का अनूठा संकलन । मुझे भी लगा कि पेंग्विन से चित्रा जी कहानियों का नया संग्रह आया है । लेकिन जब मैंने उसे उलटा पुलटा तो लगा कि उसमें तो चित्रा जी की पुरानी कहानियां छपी हैं । उसके बाद जब मैंने अपनी वयक्तिगत लाइब्रेरी को खंगालना शुरू किया तो पता चला कि चित्रा मुदगल के पांच कहानी संकलन मेरे पास हैं । भूख जो ज्ञानगंगा, दिल्ली से प्रकाशित हुई है, दस प्रतिनिधि कहानियां जो किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, चर्चित कहानियां जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा डायमंड बुक्स से प्रकाशित संग्रह भी मेरी नजर से गुजर चुका है । और अंत में सामयिक प्रकाशन ने ही चित्रा मुदगल की संपूर्ण कहानियों का संग्रह आदि-अनादि के नाम से तीन खंडों में छापा है । इन सारे संग्रहों में घूम फिर कर वही-वही कहानियां प्रकाशित हैं । हिंदी साहित्य में यह काम सिर्फ चित्रा मुदगल ने नहीं किया है । ज्यादातर कहानीकारों ने साहित्य में ये घपला किया है । हिंदी साहित्य को लंबे समय से नजदीक से देखनेवालों का कहना है कि हिंदी में ये खेल हिमांशु जोशी ने शुरू किया । जानकारों की मानें तो इस प्रवृत्ति के प्रणेता हिमांशु जोशी ही हैं । कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि जोशी जी की उतनी कहानियां नहीं हैं जितने उनके संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । कहीं से चर्चित कहानियां, कहीं से प्रतिनिधि कहानियां, कहीं से फलां तथा अन्य कहानियां, कहीं से प्रेम कहानियां, कहीं से बच्चों की कहानियां, कहीं से अमुक वयक्ति की पसंद की कहानियां । हद तो तब हो गई जब कहानीकार अपनी उम्र और सालगिरह के हिसाब से संग्रह छपवाने लगे । ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिमांशु जोशी और चित्रा मुदगल ने ही यह काम किया है । हिंदी के कमोबेश सभी कहानीकारों ने इस तरह से पाठकों को छला है । वरिष्ठ कहानीकार गंगा प्रसाद विमल के भी कई संग्रह हैं जिनमें कहानियों का दुहराव है । चंद लोगों के नाम लेने का मकसद सिर्फ इतना है कि मेरी बातें हवाई ना लगे और वो तथ्यों पर आदारित हों ।
दरअसल इस पूरे खेल का मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है। पैसा कमाने की इस दौड़ में हिंदी के कहानीकार यह भूल जा रहे हैं कि वो पाठकों के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं । चमचमाते कवर और नए शीर्षक को देखकर कोई भी पाठक अपने महबूब लेखक- लेखिका की किताबें खरीदे लेता है । लेकिन जब वो घर आकर उसे पलटता है तो अपने को ठगा महसूस करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचता है । पैसे की हानि के साथ साथ टूटता-दरकता है उसका विश्वास । वो विश्वास जो एक पाठक अपने प्रिय लेखक पर करता है । पाठकों के इसी विश्वास की बनियाद साहित्य की सबसे बड़ी ताकत है और जब उसमें ही दरार पड़ती है तो यह सीधे-सीधे साहित्य का नुकसान है जो फौरी तौर पर तो नजर नहीं आएगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे । जल्दी पैसे कमाने की होड़ में हिंदी का कहानीकार यह भूल जा रहा है कि अगर उसने यह प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तो उसको पाठक मिलने बंद हो जाएंगे । अभी ही वो पाठकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन एक अगर एक बार पाठकों का भरोसा लेखकों से उठ गया तो क्या अंजाम होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।
यह घपला सिर्फ इस रूप में नहीं आया है । हिंदी में कई ऐसे कहानीकार हैं जिनकी लंबी कहानी किसी पत्रिका में छपी फिर उसी लंबी कहानी को उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवा लिया गया । वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में हिंदी की बेहद समादृत और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की प्रकाशित हुई थी । जिसे बाद में स्वतंत्र रूप से उपन्यास के रूप में छापा-छपवाया गया । इसी तरह से दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी नमो अंधकारम भी पहले तो कहानी के रूप में प्रकाशित-प्रचारित हुई लेकिन कालांतर में वो एक उपन्यास के रूप में छपा । यही काम हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार भी कर चुके हैं जिन्होंने हंस में प्रकाशित अपनी लंबी कहानियों को डबल स्पेस में टाइप करवाकर उपन्यास बना दिया । एक ही रचना कहानी भी है और वही रचना उपन्यास भी एक ही समय पर यह कैसे संभव है लेकिन हिंदी में ऐसा धड़ल्ले से हुआ है । यह पाठकों के साथ छल नहीं तो क्या है । अपने फायदे के लिए पाठकों को ठगना कितना अनैतिक है इसका फैसला तो भविष्य में होगा ।
बाजारवाद और बाजार को पानी पी पी कर सोते जागते गरियानेवाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वो बाजार की ताकतों के हाथ क्यों खेल रहे हैं । क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाजार की शक्तियों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है । सारे सिद्धांत और सारे वाद क्या सिर्फ कागजों में या उनके आग उगलते भाषणों में ही नजर आएंगे या फिर सारी क्रांति पड़ोसी के घर से शुरू होंगी । हिंदी में बार-बार नैतिकता की बात उठाने वाले लेखकों-आलोचकों की इस मसले पर चुप्पी हैरान करनेवाली है । पिछले लगभग दो तीन दशक से कहानीकारों का पाठकों के साथ यह धोखा जारी है लेकिन कहीं किसी कोने से कोई आवाज नहीं उठी । किसी लेखक ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति नहीं उठाई । प्रगतिशीलता और साहित्यक शुचिता की बात करनेवाले वामपंथी लेखकों को भी कहानीकारों का यह छल नजर नहीं आया बल्कि वो तो खुले तौर पर इस खेल में शामिल नजर आते हैं । मार्क्सवाद को अपने कंधे पर ढोनेवाले मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों को यह धोखा नजर नहीं आया या नजर आने के बावजूद आंखें मूंदे बैठे रहे । लेखक संगठनों तक ने इस धोखेबाजी पर कुछ ना बोलना ही उचित समझा । उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है क्योंकि लेखक संगठन लगभग मृतप्राय हैं और जो बचे हैं वो भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह अपने नेताओं के जेबी संगठन मात्र बनकर रह गए हैं ।
कुछ कहानीकारों का यह तर्क है कि अलग-अलग प्रकाशकों से अलग-अलग नामों से कहानी संग्रह छपवाने का मूल मकसद वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचना है । अपने इस कृत्य के तर्क में कई कहानीकार यह भी कहते हैं कि एक प्रकाशन से संस्करण खत्म होने के बाद ही वो दूसरे प्रकाशक के यहां से अपनी कहानियां छपवाते हैं । लेकिन यह दोनों तर्क एक सफेद झूठ की तरह है । कई संकलन मेरे सामने रखे हैं जिनका प्रकाशन वर्ष या तो एक ही वर्ष में है या फिर अगले वर्ष । हिंदी प्रकाशन जगत को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि अभी हिंदी में यह स्थिति नहीं आई है कि किसी कहानी संग्रह का एक संस्करण छह माह में या एक साल में खत्म हो जाए । इसके पीछे चाहे संग्रह के कम खरीदार हों या फिर प्रकाशकों का घपला । जहां तक वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने की बात है तो यह अलग-अलग नाम से अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से छपवाने से कैसे संभव है ,यह फॉर्मूला भी अभी सामने आना शेष है ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखक इस बात पर गंभीरता से विचार करें और पाठकों के साथ दशकों से हो रहे इस छल पर मिल बैठकर बात करें और उसे रोकने के लिए तुरंत कोई कदम उठाएं वर्ना हिंदी के पाठक ही इस बात का फैसला कर देंगे । पाठक अगर फैसला करेंगे तो वो दिन हिंदी के कहानीकारों के लिए बहुत बुरा दिन होगा और फिर उस फैसले पर पुनर्विचार का कोई मौका भी नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र में वोटर का फैसला अंतिम होता है उसी तरह से साहित्य में पाठक का फैसला अंतिम और मान्य होता है ।

4 comments:

ओशो रजनीश said...

ये वक्त कि हेरा फेरी है ........

एक बार पढ़कर अपनी राय दे :-
(आप कभी सोचा है कि यंत्र क्या होता है ..... ?)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html

सतीश पंचम said...

लेखन क्षेत्र की चिलगोजईयों का बढ़िया विश्लेषण किया है।

वैसे इस तरह की चिलगोजई लगभग हर क्षेत्र में है। ब्लॉगिंग में ही देखिए...कितने सारे लोग एक ही पोस्ट को कई कई ब्लॉगों पर एक साथ पोस्ट करते हैं :)

जब चिट्ठाजगत को स्क्रॉल किया जाता है तो उन सारी पोस्टों के कतारबद्ध एक ही शीर्षक देख लगता है मानों ढेर सारे राजनीतिक बैनर है जो बार बार नजरों के सामने से गुजरे जा रहे है :)

रवि रतलामी said...

प्रिंट में तो फिर भी ठीक है, कि पुराने संस्करण यदा कदा उपलब्ध नहीं होते तो नए संस्करण नए नाम इत्यादि से निकाल लिए जाएं, मगर नेट पर जैसा कि ऊपर सतीश पंचम जी ने भी कहा है, लोग अपनी एक ही रचना को दर्जन भर जगह छाप-छपा रहे हैं!

रवि रतलामी said...

प्रिंट में तो फिर भी ठीक है, कि पुराने संस्करण यदा कदा उपलब्ध नहीं होते तो नए संस्करण नए नाम इत्यादि से निकाल लिए जाएं, मगर नेट पर जैसा कि ऊपर सतीश पंचम जी ने भी कहा है, लोग अपनी एक ही रचना को दर्जन भर जगह छाप-छपा रहे हैं!