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Saturday, July 23, 2011

जागो हिंदी के प्रकाशको !

हिंदी में प्रकाशित किसी भी कृति- उपन्यास या कहानी संग्रह या फिर कविता संग्रह को लेकर हिंदी जगत में उस तरह का उत्साह नहीं बन पाता है जिस तरह से अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में बनता है । क्या हम हिंदी वाले अपने लेखकों को या फिर उनकी कृतियों को लेकर उत्साहित नहीं हो पाते हैं । हिंदी में प्रकाशक पाठकों की कमी का रोना रोते हैं जबकि पाठकों की शिकायत किताबों की उपलब्धता को लेकर रहती है । यह स्थिति पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी है । लेकिन इसमें हम हिंदीवालों का नुकसान हो रहा है । अपनी भाषा को लेकर जिस तरह का गर्व हमारे मन में होना चाहिए या फिर जिस तरह का लगाव दिखना चाहिए उसका नितांत अभाव दिखाई देता है । दरअसल इसके लिए हिंदी के लेखक भी कम जिम्मेदार नहीं है । हिंदी के लेखकों में एक दूसरे को नीचा दिखाने की जो प्रवृत्ति है उससे उसका बड़ा नुकसान हो रहा है । इस स्थिति से उबरने के लिए हिंदी के लेखक, उनके तीन संगठन और जाहिर सी बात है प्रकाशक भी कोई ज्यादा प्रयास नहीं कर रहे हैं । अब हम अंग्रेजी को देखें । हाल ही में अग्रेजी के भारतीय लेखक अमिताभ घोष की महात्वाकांक्षी ट्रायोलॉजी के तहत लिखा जा रहा दूसरा उपन्यास प्रकाशित हुआ । कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कारो से नवाजे जा चुके अमिताभ घोष के उपन्यास रिवर ऑफ स्मोक के प्रकाशित होने के पहले और बाद में हमारे देश के अंग्रेजी अखबारों ने एक ऐसा माहौल बनाया जैसे लगा कि साहित्यिक जगत में कोई विशेष घटना घटी हो । अंग्रेजी के कई राष्ट्रीय अखबारों ने आधे पन्ने पर अमिताभ घोष के इंटरव्यू छापे । अखबारों के रविवारीय सप्लिमेंट में लेखक पर कवर स्टोरी प्रकाशित हुई । बात यहीं तक नहीं रुकी । उपन्यास के प्रमोशन के लिए लेखक का वर्ल्ड टूर आयोजित किया गया । ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ अमिताभ घोष के लिए ही किया गया। ये अंग्रेजी प्रकाशन जगत के लिए सामान्य सी बात है । कोई भी उपन्यास या अहम कृति प्रकाशित होती है तो उसको लेकर योजनाबद्ध तरीके से एक समन्वित प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में अंग्रेजी के अखबार भी सहयोग करते हैं । अमिताभ घोष या फिर अन्य अंग्रेजी लेखकों को जिस तरह से उनकी कृति के बहाने प्रचारित किया जा रहा है या जाता रहा है उससे हिंदी समाज को सीख लेनी चाहिए । लेकिन बजाए उनसे कुछ सीख लेने की हम अपनी जड़तो को लेकर ही बैठे रहते हैं ।
हमें तो यह याद नहीं पड़ता कि हिंदी के किसी लेखक को उसकी कृति के प्रकाशन के बाद इतना प्रचार मिला हो । चाहे वो हमारे स्टार लेखक राजेन्द्र यादव हो, कमलेश्वर हों, निर्मल वर्मा हो या फिर आज की पीढ़ी का कोई नया लेखक हो । सवाल प्रचार का नहीं है एक समन्वित प्रयास का है । क्या हिंदी के प्रकाशकों ने कभी अपने लेखकों को प्रचारित करने, उनकी कृति को प्रमोट करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास किया गया। मैं तो बहुत नजदीक से हिंदी प्रकाशन को तकरीबन डेढ दशक से देख रहा हूं, उस तरह का कोई प्रयास मुझे नजर नहीं आया । मैं यह कह सकता हूं कि इस मामले में हिंदी प्रकाशन की स्थिति बेहद दयनीय है ।
हिंदी का इतना विशाल पाठक वर्ग है, सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी पट्टी में अपने बाजार का विस्तार कर रही है लेकिन हमारे हिंदी के प्रकाशक अब भी सरकारी खरीद के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें हिंदी के पाठकों पर भरोसा नहीं है । हिंदी के प्रकाशक किताबों के प्रचार प्रसार पर खर्च नहीं करना चाहते । किसी लेखक का विदेश यात्रा की बात तो दूर हिंदी पट्टी में भी पाठकों से संवाद का कार्यक्रम आयोजित नहीं करवाया जाता । हमारे प्रकाशक किताब का विमोचन, वो भी लेखकों के साझा प्रयास से, करवाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं । कई बार तो लेखकों को विमोचन पर आए खर्च को भी साझा करना पड़ता है । उसके पीछे यह मनोविज्ञान काम करता है कि ये सब फिजूलखर्ची है । जबकि प्रकाशकों को ये समझना चाहिए कि ये एक लंबी अवधि का निवेश है जिसमें जमकर रिटर्न मिलने की संभावना है। लेकिन इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों को तात्कालिक लाभ का मोह छोड़ना होगा। हिंदी के पाठकों के बीच एक संस्कार विकसित करने की दिशा में प्रयास करना होगा । इसके लिए हमें अपने लेखकों को उनके बीच लेकर जाना होगा । ऐसा नहीं है कि हमारे प्रकाशकों के पास पैसे की कमी है लेकिन उसे खर्च करने की इच्छाशक्ति का अभाव जरूर है ।
दरअसल अंग्रेजी और हिंदी के प्रकाशकों में एक बुनियादी फर्क है । अंग्रेजी के प्रकाशक भविष्य की योजना बनाकर काम करते हैं जबकि हिंदी के प्रकाशकों की कोई भी फॉर्वर्ड प्लानिंग नहीं होती । उदाहरण के तौर पर आपका बताऊं कि जब 1857 की क्रांति की डेढ सौ साल पूरे हो रहे थे तो अंग्रेजी के प्रकाशकों ने धड़ाधड़ कई किताबें छापी लेकिन हिंदी प्रदेश में हुई इस घटना से हिंदी के प्रकाशक उदासीन रहे । कोई भी बड़ी घटना या फिर अहम तिथि आती है तो अंग्रेजी में धड़ाधड़ किताबें आ जाती है । देश में कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन हुआ तो अंग्रेजी में कई किताबें आईं लेकिन हिंदी में ऐसे इक्का दुक्का प्रयास ही देखने को मिले । अंग्रेजी और हिंदी प्रकाशन में इस तरह के अंतर के कई उदाहरण मौजूद हैं ।
अंग्रेजी प्रकाशकों का तंत्र बेहद मजबूत और प्रोफेशन है जबकि हिंदी का प्रकाशन व्यवसाय अब भी पारिवारिक कारोबार है । किसी भी हिंदी प्रकाशन गृह में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है । प्रोफेशनल काम करनेवाले लोग किसी भी हिंदी प्रकाशन गृह में लंबे समय तक टिक नहीं सकते । अंग्रेजी के मुकाबले में हिंदी का प्रचार-प्रसार तंत्र बेहद लचर है । अंग्रेजी प्रकाशन गृह में एक सूची होती है जिसमें वैसे चुनिंदा लोग होते हैं जिनको किताब छपने से पहले ही उसके अंश और बाजार में किताब आने के पहले उनको किताब मुहैया करवा दिया जाता है । पाठकों में रुचि जगाने के लिए किताब के चुनिंदा अंशों को लीक करवाकर पाठकों के मन में जिज्ञासा पैदा करवाया जाता है । इसके दो बेहतरीन उदाहरण हैं एक तो टोनी ब्लेयर की आत्मकथा- अ जर्नी और दूसरा जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब द ग्रेट सोल । ब्लेयर और उनकी पत्नी के पूर्व प्रकाशित सेक्स प्रसंग और गांधी और कैलनबाख के संबंध को सनसनीखेज तरीके से प्रचारित किया गया जैसे कोई नया खुलासा हो । जबकि दोनों प्रसंग पहले से ही ज्ञात थे । नतीजा यह हुआ कि किताब आने के पहले ही उसका एक बाजार तैयार हो गया । प्रकाशकों को भी लाभ हुआ और लेखकों को भी रॉयल्टी में लाखों रुपए मिले । मैं अपने देश के भी दो तीन अंग्रेजी लेखकों को जानता हूं जिन्हें उनकी किताब पर लाखों रुपए की रॉयल्टी मिली । लेकिन हिंदी के शीर्ष लेखकों को भी साल में एक कृति पर लाख रुपए की रॉयल्टी मिलती हो उसमें मुझे संदेह है । जबकि हिंदी में समीक्षकों को किताबें देने में , कुछ अपवाद को छोड़कर, अधिकतर प्रकाशक आनाकानी करते हैं ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के प्रकाशक अपनी संकुचित मानसिकता से उठकर विचार करें और एकल या सामूहिक रूप से लेखकों और उनकी कृतियों को पाठकों के बीच ले जाने का प्रयास करें । कृतियों को प्रचारित या प्रसारित करने के लिए एक प्रोफेशनल तंत्र का विकास करें। हिंदी के अग्रणी प्रकाशन गृह होने की वजह से राजकमल और वाणी प्रकाशन समूह की यह जिम्मादरी बनती है कि वो इसमें पहल करें । ऐसा करने से उनका और लेखक दोनों का भला होना निश्चित है । सिर्फ प्रकाशकों की नहीं हिंदी मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है कि हम हमारे लेखकों को उचित सम्मान और स्थान दें ।

1 comment:

Anonymous said...

किसके आगे बीन बजा रहे हो, भाई!
जब तक सरकारी खरीद वाला समाजवादी ड्रग रहेगा, आम हिन्दी-प्रकाशक की लत जाने से रही।