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Friday, July 22, 2011

किताबों में बनता इतिहास

प्रभाष जोशी हमारे समय के बड़े पत्रकार थे । उनके सामजिक सरोकार भी उतने ही बड़े थे । समाज और पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंता का दायरा भी बेहद विस्तृत था । हिंदी पट्टी और हिंदी समाज में प्रभाष जी की काफी इज्जत भी थी । उनके निधन के बाद हिंदी पत्रकारिता में एक खालीपन आ गया है । जिस तरह से प्रभाष जोशी समाज को लेकर चिंतित रहा करते थे या फिर पत्रकारिता के गिरते स्तर को बचाने के लिए उन्होंने जिस तरह से एक अभियान की अगुवाई की थी वो हम सबके लिए अनुकरणीय है । प्रभाष जी जो भी सोचते थे बेखौफ होकर उसे या तो अपने स्तंभ में व्यक्त करते थे या फिर सभाओं या गोष्ठियों के जरिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाते थे । देश भर की यात्राओं के बावजूद प्रभाष जोशी अपने स्तंभ लेखन को लेकर बेहद सतर्क रहते थे और बिना नागा उसको लिखते थे।हर हफ्ते हमलोग रविवार का इंतजार इस बात के लिए करते थे कि कागद कारे पढ़ने को मिलेगा । प्रभाष जी के स्तंभ से पाठकों का जो एक अपनापा कायम हुआ था वही उनकी ताकत थी । अपने स्तंभ के माध्यम से प्रभाष जी का पाठकों से सीधा संवाद था । लेकिन उनके निधन के बाद ये संवाद टूट गया । जनसत्ता और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके स्तंभ हिंदी समाज के लिए थाती हैं और पाठकों के लिए सहेजकर रखनेवाला धरोहर ।
प्रभाष जी के जीवन काल में ही 2003 में राजकमल प्रकाशन ने उनके लेखों का संग्रह -हिंदू होने का धर्म- छापा था जिसकी खासी चर्चा हुई थी । अब एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से ही उनके लेखों के दो संग्रह- आगे अन्धी गली है और 21वीं सदी पहला दशक- छपे हैं । इन दोनों पुस्तकों का संपादन वरिष्ठ पत्रकार सुरेश शर्मा ने किया है । आगे अन्धी गली है में प्रभाष जोशी के प्रथम प्रवक्ता और तहलका हिंदी में छपे लेख संकलित हैं । अपने संपादकीय में सुरेश शर्मा ने लिखा है कि – आगे अन्धी गली प्रभाष जी के अंतिम दिनों का लेखन है । ....वे प्रथम प्रवक्ता और तहलका में में कॉलम लिख रहे थे । ये कॉलम अपने समय की धड़कनों के जीवन्त दस्तावेज हैं । इस पुस्तक के संपादकीय में सुरेश शर्मा ने प्रभाष जी की जिंदगी के अंतिम दिनों पर विस्तार से लिखा है । सुरेश शर्मा के इस लेख से आम पाठकों के मन पर प्रभाष जी के व्यक्तित्व की तस्वीर और साफ होती है । बीमारी में भी समाज और पत्रकारिता के अपने पेशे के उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए प्रभाष जी ने अपनी जान को भी दांव पर लगा दिया । तबीयत खराब होने के बावजूद उन्होंने हिंद स्वराज पर आयोजित गोष्ठी में हिस्सा लिया और अपनी बात श्रोताओं के साथ साझा की । सुरेश शर्मा ने प्रभाष जी की अंतिम घड़ी को उनकी अदम्य जिजिविषा से जोड़कर एक बेहद संजीदा तस्वीर पेश की है । इस किताब में कई ऐसे लेख हैं जो वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है । जैसे मई 2008 में प्रथम प्रवक्ता में प्रभाष जी ने लिखा- राहुल के अंदेशे से दुबलीं मायावती । प्रभाष जी का यह लेख उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में आज भी उतना ही मौजूं है जितना तीन साल पहले था । उस वक्त दलितों के घर राहुल के खाना खाने और रात बिताने को लेकर मायावती परेशान थी और आज भट्टा पारसौल में राहुल के धरने ने मायावती को परेशानी में डाल रखा है । मायवती की परेशानी पर प्रभाष जी विस्मित होते हुए लिखते हैं – राहुल गांधी के दलित प्रेम से मायावती इतनी घबरा क्यों गई हैं । दूसरे नेताओं की तरह वो कोई जड़विहीन हवाई नेता नहीं जो मीडिया में लगातार बने रहने के कारण नेता हो गई हैं । मई 2008 में ही प्रभाष जी ने एक और लेख लिखा था- चूके अवसरों की महादेवी । इस लेख के केंद्र में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी है । उस लेख में प्रभाष जी ने निराशा भरे लहजे में लिखा था- इस त्याग ( प्रधानमंत्री पद ठुकराना) ने सोनिया गांधी को भारत ते जनमानस में वह जगह दी जो उन्हें अपनी पार्टी कांग्रेस में प्राप्त थी । ....उन्हें ऐसा नैतिक आभामंडल मिला जो उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी के पास भी नहीं था । पअपने इस लेख में सोनिया की रहनुमाई में चल रही सरकार के चार साल के कार्यकाल से प्रभाष जी निराश थे, निराश तो वो सोनिया गांधी के प्रदर्शन से भी थे । उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस को फिर से सरकार बनाने का मौका मिलेगा । लेकिन वो हो नहीं सका और कांग्रेस ने सोनिया की अगुवाई में 2004 के मुकाबले ज्यादा सीटें हासिल की । प्रभाष जी के लेखों में विभिन्न विषयों की जो रेंज थी वो उनकी विद्वता और अध्ययन को दिखाता है । समाज और राजनीति के अलावा प्रभाष जी साहित्य के भी गहरे अध्येता थे । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का शताब्दी वर्ष जिस तरह से हिंदी समाज में मनाया गया और जो लापरवाहियां हुई उसपर भी प्रभाष जी ने एक बेहद तल्ख टिप्पणी लिखी । जिस तरह से दिनकर शताब्दी समारोह में बिहार के एक मंत्री ने बाद में मंच पर आकर उलजलूल बातें की उससे प्रभाष जी बेहद खिन्न थे । दिनकर जन्म शताब्दी वर्ष में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार और बिहार सरकार की लापरवाही से भी प्रभाष जी दुखी थे । इसी तरह से एक और अन्य विषय समलैंगिकता पर भी इसमें प्रभाष जी का एक लेख संकलित है । कुल मिलाकर यह किताब प्रभाष जी की विचारधारा और अपने समय, समाज और राजनीति को जानने की एक कुंजी है जिस इसके संपादक सुरेश शर्मा ने श्रमपूर्वक तैयार किया है ।
दूसरी किताब -21वीं सदी पहला दशक है जिसमें प्रभाष जोशी के दो हजार एक से लेकर 2009 तक के बीच में जनसत्ता में लिखे लेख संकलित हैं । संपादक का कहना है कि इस जनसत्ता में प्रकाशित इस कालखंड के तकरीबन सारे लेख इस किताब में संकलित किए गए हैं । यह संकलन इस लिहाज से अहम है कि इसमें लगभग एक दशक की राजनीति गतिविधयां की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है । प्रभाष जी के लेखों को पढकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और बीजेपी के काम करने के तरीकों को समझने में मदद मिल सकती है । लेकिन दोनों किताबों के कुछ लेखों में मोहभंग को भी साफ तौर रेखांकित किया जा सकता है । मई 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री मनोनीत किया था तो प्रभाष जी को उनमें एक उम्मीद की किरण दिखाई दी थी । उन्होंने एक लेख लिखा था- आइए सोनिया जी, अनन्त संभावनाओं की दहलीज पर । इस लेख में प्रभाष जी ने सोनिया गांधी की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी । उस लेख की दो लाइन देखिए- किन्हीं भी कारणों और कैसे भी इराजदों से सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ा हो पर सच बताइये कितने माई के लाल ऐसा कर सकते हैं और कितनों ने ऐसा किया है ? जिसने किया है, उठिए और उनको सलाम कीजिए । लेकिन चार साल में ही प्रभाष जी का सोनिया से मोहभंग हो गया और 2008 में मई में लिख डाला- चूके अवसरों की महादेवी । जिसका जिक्र मैं उपर कर चुका हूं । इस तरह के कई लेख देखकर आप इस बात का अंदाज लगा सकते हैं कि देश और पत्रकारिता का मूड कैसा रहा होगा । प्रभाष जी के वस्तुनिष्ठ लेखों से समाज की उस सोच का भी पता चलता है जिसमें लोग राजनेताओं के बारे में क्या विचार रखते हैं । प्रभाष जोशी के इन लेखों को एक साथ सामने लाने के लिए सुरेश शर्मा ने जो श्रम किया उसके लिए वो साधुवाद के पात्र हैं ।

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