Translate

Thursday, December 29, 2011

समीक्षा पर घमासान

विश्व की सबसे प्रतिष्ठित और पुरानी पत्रिकाओं में से एक लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स के पन्नों पर इन दिनों दो लेखकों में जंग चल रही है । दरअसल विवाद की जड़ में एक समीक्षा है । हॉवर्ड के प्रोफेसर और लोकप्रिय टेलीविजन इतिहासकार नायल फर्ग्युसन की किताब सिविलाइजेशन- द वेस्ट एंड द रेस्ट छपकपर आई । भारतीय मूल के लेखक और स्तंभकार पंकज मिश्रा ने उस किताब की लंबी समीक्षा लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में लिखी जो कि नवंबर की तीन तारीख के अंक में प्रकाशित हुई । अपनी किताब की समीक्षा देखकर नायल फर्ग्युसन बुरी तरह भड़क गए और अगले ही अंक में संपादक के नाम पत्र लिखकर साहित्यिक जंग का ऐलान कर दिया । सत्रह नवंबर के अंक में नायल का एक पत्र प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने पहले तो यह हाई मोरल स्टैंड लेते हुए कहा कि वो विध्वंसात्मक समीक्षा के खिलाफ सफाई देने के आदि नहीं हैं लेकिन अगर समीक्षा में व्यक्तिगत हमले हों तो फिर सामने आना हमारी मजबूरी है । फर्ग्युसन का आरोप है कि पकंज मिश्रा ने उसे रेसिस्ट बताया है जो कि निहायत ही गलत है । नायल के मुताबिक पंकज मिश्रा ने उनके लेखन की तुलना अमेरिकी रेसिस्ट सिद्धांतकात थियोडोर स्ट्रोड की 1920 में लिखी गई किताब- द राइजिं टाइड ऑफ कलर अगेंस्ट व्हाइट वर्ल्ड सुपरमेसी लेखन से की है, जो निहायत ही गलत है । नायल का यह भी आरोप है कि पंकज मिश्रा ने उनके लेखन को बगैर समझे और सही परिप्रेक्ष्य में देखे उसपर टिप्पणी कर दी । अपने पत्र में फर्ग्यूसन ने पंकज मिश्रा की समीक्षा छापने के लिए लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स की भी खासी लानत मलामत की है । उन्होंने एलआरबी पर लेखन में वामपंथी राजनीति को बढ़ावा देने और अपने दरबारियों को लगातार छापने का भी आरोप लगाया । आरोपों की बौछार करते हुए नायल यहीं नहीं रुके उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि पंकज मिश्रा की उक्त समीक्षा से एलआरबी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका की प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ है । नायल ने पत्रिका और पंकज दोनों से माफी की भी मांग की। विवाद का किस्सा यहीं खत्म नहीं होता है और उसी अंक में पंकज ने नायल के आरोपों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया देकर अपने तर्कों को सही साबित किया है । माफी न तो पंकज ने मांगी न ही पत्रिका ने । हां पंकज ने इतना जरूर साफ कर दिया कि उन्होंने नायल पर रेसिस्ट होने का आरोप नहीं लगाया ।
अगले अंक में फिर दोनों के पत्र छपे जिनमें तर्कों और प्रति तर्कों के आधार पर दोनों ने अपना पक्ष रखा है । पंकज मिश्रा ने साफ तौर पर अपनी समीक्षा में वैज्ञानिक आधार पर नायल के लेखन की आलोचना की है । अगर बात सभ्यताओं की हो रही है तो भारत और चीन की सभ्यताओं को तो खासी तवज्जो देनी होगी । उन्होंने यह सवाल उठाया है कि क्या महात्मा गांधी के बिना पिछली सदी की सभ्यता का मूल्यांकन किया जा सकता है । क्या चीन की उत्पादन क्षमता और भारतीय टेक्नोक्रैट के योगदान को नजरअंदाज किया जा सकता है । पंकज मिश्रा ने तर्कों के आधार पर यह साबित भी किया है कि यह नहीं हो सकता ।लेकिन नायल अब भी पत्रिका और पंकज दोंनों से माफी की मांग पर अड़े हैं । कुछ दिनों पहले तो उन्होंने कोर्ट में जाने की धमकी भी दी थी । लेकिन लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स मजबूती के साथ पंकज मिश्रा के लेखन के साथ खड़ा है । दोनों माफी नहीं मांगने और अपने स्टैंड पर अड़े हैं ।
दरअसल साहित्य में इस तरह के विवाद नए नहीं हैं । नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी एस नॉयपाल और अमेरिका के वरिष्ठ लेखक पॉल थेरू के बीच के लंबे विवाद को अब तक अंग्रेजी साहित्य में याद किया जाता है । इसके अलावा नायपॉल की महिला लेखिकाओं पर की गई टिप्पणियों पर भी खासा विवाद हुआ था । जब सर विदया ने जान ऑस्टिन के लेखन की संवेदनात्मक महात्वाकांक्षा की आलोचना करते हुए कह डाला था कि किसी महिला लेखक के लेखन में धार नहीं होती । उसी तरह विद्या ने ई एम फोस्टर को भी शक्तिहीन समलैंगिकों से अनुतिच लाभ लेने वाला बताकर और उनके उपन्यास अ पैसेज टू इंडिया को बकवास करार देकर अंग्रेजी साहित्य में भूचाल ला दिया था । जिसके बाद हेलन ब्राउन से लेकर एलेक्स क्लार्क तक जैसे लेखकों ने विदया पर जमकर हमले किए थे और विवाद काफी लंबा चला था । अंग्रेजी में इस तरह के विवाद सिर्फ साहित्य में ही नहीं बल्कि विज्ञान, दर्शन, राजनीतिक लेखन में लंबे समय से चलते रहे हैं । इन विवादों पर कई किताबें भी छप चुकी हैं ।
लेकिन इस बार नायल और पंकज मिश्रा के बीच का विवाद थोड़ा अलहदा है । यह विवाद इस मायने में थोड़ा अलग है कि एक तो इसमें रेसिज्म का आरोप लगा है और दूसरे अदालत में जाने की धमकी है । अंग्रेजी साहित्य पर नजर रखने वाले कई स्वतंत्र पर्यवेक्षकों इस साहित्यिक लड़ाई को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में भी देख रहे हैं । पिछले एक दशक से जिस तरह से एशियाई मूल के नए लेखकों ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी दखल और पैठ दोनों बढ़ाई है उससे पश्चिमी लेखकों का एक खेमा काफी क्षुब्ध रहने लगा है । जब कई एशियाई मूल के लेखकों को पुलित्जर और मेन बुकर पुरस्कार मिलने लगे थे तो एक प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक ने एलेक्स ब्राउन ने मजाक में एक बार कहा था- वी फील थ्रेटन्ड । इन तीन शब्दों में पश्चिमी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सकता है । वी फील थ्रेटन्ड की जो मानसिकता है है वही अपनी आलोचना बर्दाश्त करने से न केवल रोकता है बल्कि विरोधियों के प्रति आक्रामक भी बनाता है ।
दरअसल साहित्यिक विवादों के इतिहास पर अगर हम नजर डालें तो हिंदी में भी विवादों का एक समृद्ध इतिहास रहा है । पाडे बेचन शर्मा उग्र के लेखन के बाद उठे चॉकलेट विवाद में तो गांधी जी तक को दखल देना पड़ा था । कल्पना में उर्वशी विवाद लंबे समय तक चला था । हाल के दिनों में राजेन्द्र यादव के लेख होना सोना पर भी हिंदी साहित्य में बवाल मचा था । विभूति नाराण राय तो छिनाल विवाद में बुरी तरह फंसे ही थे । लेकिन साहित्य के मामले कोर्ट कचहरी तक नहीं पहुंचते हैं । काफी समय पहले उदय प्रकाश और रविभूषण के विवाद में भी कोर्ट कचहरी की धमकी दी गई थी ।

Thursday, December 22, 2011

खत्म होता नक्सलियों का खौफ

जनलोकपाल बिल पर सरकार और टीम अन्ना के बीच जारी बवाल, रिटेल में विदेशी निवेश पर सरकार, उसके सहयोगी दलों और विपक्ष के बीच मचे घमासान और गृहमंत्री चिंदबरम पर एक के बाद एक लग रहे आरोपों के बीच देश में कई अहम खबरें गुम सी हो गई । हर दिन या तो अन्ना हजारे कोई ऐलान करते हैं, कांग्रेस का कोई नेता अन्ना पर हमला करता है या फिर किसी न किसी वजह से संसद में हंगामा हो जाता है या फिर अदालत कोई ऐसा फैसला सुना देता है या फिर कोई टिप्पणी कर देता है जो सुर्खियां बन कर मीडिया में छा जाता है । देशभर में हुए हालिया उपचुनावों के नतीजों के कई गंभीर निहितार्थ निकले जिसपर मीडिया में न तो मंथन हो पाया और न ही ढंग से उसपर चर्चा हो सकी । अखबारों में कहीं किसी कोने अंतरे में वैसी खबरें दब गई और न्यूज चैनलों में तो तवज्जो ही नहीं मिल पाई । अगर हम ओडीशा विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो साफ तौर पर यह देखा जा सकता है कि ओडीशा में माओवादियों का असर कम होना शुरू हो गया है । जिन इलाकों में माओवादियों को लंबे समय से आदिवासियों से हर तरह का समर्थन मिल रहा था वहां भी अब वो लगभग बेअसर होने लगे हैं ।ओडीशा के आदिवासी बहुल जिले नवरंगपुर के उमरकोट विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो नक्सलियों के समर्थन में आ रही इस कमी को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । चुनाव के ऐन पहले माओवादियों ने नक्सल प्रभावित उमरकोट विधानसभा में आदिवासियों से वोटिंग का वहिष्कार करने का फरमान जारी कर दिया । लेकिन नक्सलियों के फरमान को धता बताते हुए भारी संख्या में आदिवासियों ने मतदान किया और चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक पचहत्तर फीसदी से ज्यादा आदिवासियों ने वोट डाले । इसी विधानसभा के छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे रायगढ़ इलाके में, जो दशकों से माओवादियों का गढ़ माना जाता है, सबसे ज्यादा मतदान हुआ। गौरतलब है कि यह वही रायगढ़ है जहां बीजू जनता दल के विधायक जगबंधु मांझी की माओवादियों ने एक जनसभा के दौरान नृशंस तरीके से हत्या कर दी थी । मांझी की मौत के बाद हो रहे इस उपचुनाव में नक्सलियों के मतदान के बहिष्कार के फरमान के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में वोटिंग होना उस इलाके में नक्सलियों के कमजोर पड़ने की निशानी है । इस पूरे इलाके में जबरदस्त वोटिंग का फायदा सत्तारूढ बीजू जनता दल के उम्मीदवार को हुआ जिसने तकरीबन बीस हजार वोटों से जीत हासिल की । माओवादियों ने वोट के बहिष्कार के साथ-साथ बीजू जनता दल के खिलाफ भी अपनी राय जाहिर की थी । जो लगभग बेअसर रही ।
उपचुनावों के नतीजों और नक्सलियों के वोट के बहिष्कार के अलावा भी ओडीशा में काफी कुछ घटित हो रहा है जिसको अगर रेखांकित किया जाए तो माओवादियों के लगातार कमजोर होते जाने की तस्वीर सामने आती है । माओवादियों के बड़े नेता किशन जी को जब पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया था तो माओवादियों ने दो दिनों के बंद का ऐलान किया । इस बंद का भी ओडीशा और झारखंड के कई इलाकों में असर देखने को नहीं मिला । मलकानगिरी, जो ओडीशा का सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता है, में ये बंद लगभग बेअसर रहा । आदिवासी इलाकों के लड़के,लडकियां अपने स्कूल पहुंचे । बंद के दौरान छात्रों का ऐसा व्यवहार अबतक इस इलाके में कभी नहीं देखा गया था । मलकानगिरी जैसे नक्सलियों के गढ़ में तो बंद के ऐलान के बाद कर्फ्यू जैसे हालात हो जाते थे । सड़कों पर सन्नाटा और पूरे इलाके में कामकाज ठप । नक्सलियों का खौफ इतना ज्यादा होता था कि बंद के दौरान मां-बाप अपने बच्चों को घर से बाहर तक नहीं निकलने देते थे । यही हाल झारखंड के डाल्टनगंज और पलामू जिलों में देखने को मिला । दो दिन के बंद के दौरान स्कूलों में छात्र पहुंचे । लोग सड़कों पर निकले अपने कार्यालय पहुंचे। सड़कों पर गाड़ियां चलीं । सबसे आश्चर्यजनक बात तो ओडीशा के नुआपाड़ा में देखने को मिला । वहां नक्सलियों ने यातायात बंद करने के लिए पेड़ काटकर सड़क पर डाल दिया था । स्थानीय नागरिकों ने नक्सलियों से बगैर डरे सड़क से पेड़ हटाकर उसे यातायात के लिए खोल दिया । पहले यह काम सुरक्षा बल किया करते थे । स्थानीय जनता के इस कदम को भी नक्सलियों के घटते प्रभाव के तौर पर देखा गया ।
दरअसल यह सब दो वजहों से हो रहा है । एक तो राज्य और केंद्र सरकार खामोशी के साथ मिलकर उन इलाकों में नक्सलियों का प्रभाव कम करने की दिशा में काम कर रहे थे जिसका थोड़ा बहुत नतीजा अब दिखाई देने लगा है । नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर समग्र विकास के प्रयास किए । नक्सलियों को सत्ता के भय से मुक्त किया और उनके शोषण पर लगाम लगाकर उनका विश्वास हासिल करने में आंशिक सफलता भी हासिल की । अर्धसैनिक बलों ने नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासियों का विश्वास जीतने के फॉर्मूले पर काम किया गया और बहुत हद तक सफलता भी पाई । सरकार के रणनीतिकारों का मानना है कि आदिवासियों का जितना भरोसा सरकार या सत्ता पर बढ़ेगा उतना ही नक्सलियों को समर्थन मिलना कम होगा ।
नक्सलियों का समर्थन कम होने की एक और जो सामाजिक वजह है वह यह कि अब इस आंदोलन में अपराधी तत्वों का प्रवेश हो गया है जो आंदोलन के नाम पर इलाके में वसूली करते हैं । पैसेवालों का अपहरण करके फिरौती वसूलते हैं । इस तरह की भी कई खबरें सामने आईं जहां पता चला कि माओवादियों ने लड़कियों को जबरन अपने साथ रखकर उनका बलात्कार किया । सिद्धांत और विचारों का स्थान लूटपाट और चोरी डकैती ने ले लिया । जबरन हफ्ता वसूली, फिरौती, लड़कियों और महिलाओं के साथ बढ़ती बदसलूकी, आंदोलन के नाम पर हत्या आदि जैसी वारदातों ने आम जनता के मन में नक्सलियों के प्रति नफरत का भाव पैदा कर दिया । जो आदिवासी नक्सलियों को तम मन धन से समर्थन दे रहे थे वो अब डर से समर्थन देने लगे । लेकिन डर, खौफ या भय से मिला समर्थन ज्यादा दिन चलता नहीं है और जैसे ही मौका मिलता है वही समर्थन विरोध का स्वर बनकर खड़ा हो जाता है । माओवादियों का साथ भी वही हुआ । जैसे ही आदिवासी इलाके की जनता का माओवादियों से मन टूटा और राज्य सत्ता में भरोसा कायम हुआ वैसे ही विरोध के स्वर उठने लगे और जब भी मौका मिला विरोध या तो मुखर या फिर मौन के रूप में सामने आया । अब जरूरत इस बात की है कि इस बदलाव की अहमियत को समझते हुए राज्य सत्ता आदिवासियों का भरोसा तो जीते ही उनके दिल को जीतने भी कोशिश करे ताकि नक्सल समस्या का जड़ से अंत किया जा सके । लेकिन ऐसा लगता है कि लोकपाल के शोरगुल में इस देश के शासक वर्ग और जनता दोनों का इस समस्या से ध्यान लगभग हट सा गया है । नक्सलवाद हमारे देश के लिए एक ऐसी समस्या है जो लगभग नासूर की शक्ल अख्तियार कर चुका है ।
ऐसे में इस समस्या में अगर थोड़ा भी सकारात्मक बदलाव दिखाई देता है तो उसका प्रचार प्रसार होना चाहिए । इसका फायदा यह होगा कि नक्सल प्रभावित दूसरे इलाकों में सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा और नक्सलियों के प्रति भरोसा घटेगा । भरोसे के इसी घटत और बढ़त में इस समस्या का समाधान निकलेगा । लेकिन केंद्र में सरकार चला रही पार्टी कांग्रेस अपनी कामयाबियों को जनता तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील ही नहीं है । कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता जनता से संवाद नहीं कर पा रहे हैं । अपनी कामयाबियों को जनता तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं । पहले पार्टी ने अपने दर्जनभर नेताओं की एक सूची जारी की जो मीडिया में पार्टी का पक्ष रखेंगे लेकिन उन नेताओं का कहीं अता पता नहीं है । नतीजा यह हुआ कि सरकार के प्रयत्नों से समाज में जो सकारात्मक बदलाव आए उसका प्रचार नहीं हो सका । वहीं विपक्ष और टीम अन्ना ने बढ़-चढ़कर सरकार की नाकामियों को मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचाया । अभी हाल में सरकार के दस युवा मंत्रियों को सरकार की उपल्बधियों को जनता तक पहुंचाने का जिम्मा दिया गया । लेकिन ये युवा मंत्री भी गाहे बगाहे ही नजर आते हैं । नतीजा यह हो रहा है कि सरकार की उपल्बधियां जनता तक नहीं पहुंच पा रही है । लंबे समय से नक्सलियों का बडा़ हमला नहीं हुआ है, नक्सलियों का बड़ा नेता किशन जी को मारकर माओवादियों की कमर तोड़ दी गई । लेकिन इन कामयाबियों को नक्सल इलाकों में पहुंचाकर वहां की जनता का विश्वास जीतने का प्रयास नहीं किया जा रहा है । गरीबों के लिए खाने की गारंटी देनेवाला ऐतिहासिक कानून आनेवाला है जिसका बड़ा फायदा जंगलों में रहनेवालों को होगा यह बात भी उन इलाकों में नहीं पहुंच पा रही है । यूपीए सरकार अपने पहले कार्यकाल में हर छोटी बड़ी उपल्बधि का ढिंढोरा पीटती नजर आती थी वही अब आलस में डूबी नजर आ रही है । लेकिन वक्त आ गया है कि सरकार के कर्ताधर्ता सत्ता के मद से बाहर निकलें और जनता से संवाद स्थापित करें ताकि नक्सलवाद की समस्या को समूल खत्म किया जा सके ।

Saturday, December 17, 2011

संकट में हॉवर्ड की प्रतिष्ठा ?

दुनिया के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक हॉवर्ड युनिवर्सिटी इऩ दिनों विवादों में घिर गया है। विश्वविद्यालय के दो निर्णयों की दुनियाभर में आलोचना हो रही है । पहला निर्णय तो भारतीय राजनेता और अर्थशास्त्री सुब्रह्ण्यम स्वामी को गर्मी के दौरान चलने वाले अर्थशास्त्र के दो पाठ्यक्रम के शिक्षण से हटा देने का है । गौरतलब है कि सुब्रह्ण्यम स्वामी पिछले कई सालों से हॉवर्ड के समर स्कूल में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे थे । स्वामी को वहां से निकालने के पीछे जो तर्क दिया गया है वह यह है कि उन्होंने एक लेख लिखा जिसकी वजह से एक खास समुदाय की प्रतिष्ठा धूमिल हुई और उस समुदाय के पवित्र स्थलों को लेकर अपमानजनक और हिंसा भड़कानेवाली टिप्पणी की गई । विश्वविद्यालय के शिक्षकों और वहां के कर्ताधर्ताओं के बीच हुई लंबी बैठक में गर्मागर्म बहस के बाद यह फैसला लिया गया कि हॉवर्ड युनिवर्सिटी का यह नैतिक दायित्व है कि वह किसी भी ऐसे व्यक्ति या संस्था के साथ नहीं जुड़े जो किसी अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाता हो । विश्वविद्यालय के शिक्षकों के बीच चली बहस में कई लोगों को इस बात पर आपत्ति थी कि स्वामी का लेख अभिवयक्ति की आजादी नहीं बल्कि घृणा की राजनीति का हिस्सा है, लिहाजा हॉवर्ड से स्वामी को हटा दिया जाना चाहिए ।
दरअसल यह पूरा विवाद सुब्रह्ण्यम सावमी के 16 जुलाई को लिखे एक लेख से शुरू हुआ जिसका शीर्षक था- हाउ टू वाइप आउट इस्लामिक टेरर । अपने उस लेख में स्वामी ने लिखा कि भारत को एक संपूर्ण हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए और वहां उन्हीं लोगों को वोट देने का अधिकार मिले जो यह ऐलान करें कि उनके पूर्वज हिंदू थे । स्वामी ने अपने लेख में यह भी लिखा कि हिंदू धर्म से किसी भी धर्म में धर्मांतरण की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। स्वामी इतने पर भी नहीं रुके और अपने लेख में उन्होंने मांग कर दी कि काशी विश्वनाथ मंदिर समेत तीन सौ अन्य स्थानों से विवादास्पद मस्जिदों को हटाया जाए । जब यह लेख प्रकाशित हुआ तो उसपर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्क शुरू हो गया । हॉवर्ड ने भी पहले स्वामी के इस लेख को अभिव्यक्ति की आजादी माना और उनके ही साथ खड़ा दिखा । शुरूआत में हॉवर्ड प्रशासन को यह लेख फ्रीडम ऑफ स्पीच की कैटिगरी में दिखाई दिया । लेकिन चंद छात्रों ने स्वामी के खिलाफ विश्वविद्यालय में अभियान छेड़ दिया । उस अभियान में इस बात पर जोर दिया गया कि स्वामी ने हॉवर्ड की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया है लिहाजा विश्वविद्यालय स्वामी के साथ अपने संबंधों को खत्म करे ।
चंद छात्रों की इस मुहिम के आगे विश्व के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ने अपने सदियों पुराने सिद्धांतो से समझौता कर लिया । पहले जो लेख विश्वविद्यालय को फ्रीडम ऑफ स्पीच दिख रहा था वही लेख चंद छात्रों और दो तीन वामपंथी रुझान वाले शिक्षकों की अगुवाई वाले मुहिम के बाद घृणा फैलानेवाले लगने लगा । युनिवर्सिटी प्रशासन ने स्वामी के इस लेख को घृणा फैलानेवाले वैसा लेख माना जो हिंसा के लिए उकसाता है । यह सही है कि हॉवर्ड हमेशा से उस सिद्धांत के तहत काम करता है जहां विश्व में एक ऐसे समाज की कल्पना की जाती है जहां पूरी दुनिया के संस्कृति के लोग मिलजुलकर रह सकें । लेकिन वहीं हॉवर्ड में अभिवयक्ति की आजादी को सर्वोपरि भी माना जाता है । विश्वविद्यालय की जो फ्री स्पीच गाइडलाइंस है उसके अनुसार स्वामी के खिलाफ लिया गया निर्णय न सिर्फ अनुचित है बल्कि खुद हॉवर्ड के बनाए गए गाइडलाइंस का उल्लंघन भी है । 15 मई 1990 में हॉवर्ड में युनिवर्सिटी फ्री स्पीच गाइडलाइंस तैयार किया जो यह कहता है कि अभिव्यक्ति की आजादी विश्वविद्यालय के लिए इस वजह से बेहद अहम है क्योंकि हमारा समूह कारण और तर्कों पर आधारित डिस्कोर्स की वकालत करता है । अपने विचारों को बगैर किसी दवाब के सबके सामने रखना हमारी प्राथमिकता है । किसी भी व्यक्ति के विचारों को दबाना या फिर उसमें काट छांट करने से हमारी बौद्धिक स्वतंत्रता के विचारों को ठेस पहुंचा सकता है । यह किसी वयक्ति के उन विचारों को भी सामने आने से रोकता है जिसमें उसके विचार बेहद अलोकप्रिय हों और किसी समुदाय को पसंद नहीं आते हों । साथ ही उस खास समुदाय को भी अपनी आलोचना सुनने के अधिकार से वंचित करता है ।
विश्वविद्यालय के इस गाइडलाइंस में और भी बातें कही गई हैं जो बहुत ही मजबूती से विचारों को अभिव्यक्त करने की इजाजत देता है । लेकिन अपने ही गाइडलाइंस को दरकिनार करते हुए स्वामी को कोर्स से हटा देना कई सवाल खड़े करता है । सवाल तो इस बात पर भी खड़े हो रहे हैं कि सुब्रह्ण्यम स्वामी से इस बाबत कोई सफाई नहीं मांगी गई न ही उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया । दशकों से हॉवर्ड का हिस्सा रहे एक भारतीय विद्वान के साथ इस तरह का व्यवहार बेहद अफसोसनाक और हॉवर्ड के प्रतिष्ठा के खिलाफ होने के साथ साथ न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के खिलाफ भी है । हॉवर्ड में हर तरह के विचारों को जगह मिलती रही है । वहां के कई शिक्षकों ने एशियाई देशों के खिलाफ कई आपत्तिजनक लेख लिखे, हिंदू धर्म और देवी देवताओं के बारे में टिप्पणियां की, लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई । शोध के नाम पर लिखे गए लेखों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता की धज्जियां उड़ाई गई लेकिन उन सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आईने में देखा गया,कभी किसी लेखक के खिलाफ युनिवर्सिटी ने कोई कार्रवाई नहीं की । छात्रों और शिक्षकों के किसी समूह ने कोई विरोध नहीं किया ।
स्वामी ने भी भारत के एक अखबार में लिखकर अपने विचारों को प्रकट किया है । वो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखना चाहते हैं इसमें क्या बुराई है । ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं और अपने विचार बनाना और उसे प्रकट करना हर व्यक्ति का हक है । भारत और विदेशों में भी कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखना चाहते हैं । विवादास्पद मस्जिदों को मंदिर परिसरों से हटाने की वकालत तो भारत का प्रमुख विपक्षी दल भी करता है और भारत के एक बड़े समुदाय का यह मत भी है । तो अगर स्वामी ने अपने मत को जाहिर कर दिया तो क्या गुनाह कर दिया । तीसरी बात स्वामी ने धर्मांतरण के खिलाफ कही है वह भी उनका निजी विचार है और उसपर किसी भी तरह की पाबंदी लगाना जायज नहीं कहा जाएगा । आप उनको अपने विचारों को प्रकट करने से नहीं रोक सकते, असहमत हो सकते हैं । लेकिन असहमति का दंड लेखक को देना हॉवर्ड विश्वविद्यालय के खुद के गाइडलाइंस और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के सिद्धांत के खिलाफ है । हॉवर्ड ने तो स्वामी से बगैर कुछ पूछे, बगैर उनका पक्ष जाने उनको अपने कोर्स से हटा दिया ।
दूसरी अहम बात जो हॉवर्ड की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाता है वह यह है कि विश्वविद्यालय ने ऑक्यूपॉय मूवमेंट के आंदोलन के मद्देनजर विश्वविद्यालय के हॉवर्ड यॉर्ड को बाहरी गतिविधियों के लिए बंद कर दिया । यह एक ऐसी जगह थी जहां छात्र, पर्यटक,सामाजिक सूमह आते थे ,बैठते थे, बहस मुहाबिसे करते थे और चले जाते थे । दशकों से वहां ऐसी परंपरा चल रही थी और हॉवर्ड यार्ड कई आंदोलनों का गवाह भी रहा है । लेकिन आरोप है कि अमेरिका में जारी ऑक्यूपॉय मूवमेंट को रोकने के लिए विश्वविद्यालय ने यह कदम उठाया । इन दो कदमों से विश्वविद्यालय की अभिवयक्ति की आजाजदी के समर्थक की उस उस छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ठेस पहुंची है जिसके लिए वह जाना जाता है । जरूरत इस बात कि है कि विश्वविद्यालय अपने पुरानी परंपरा की ओर लौटे और विचारों को बैखौफ होकर अभिव्यक्त करनेवालों को मंच प्रदान करे । अंतराष्ट्रीय जगत को इस बात का इंतजार भी है कि हॉवर्ड अपनी गलतियों को सुधारे और स्वामी से माफी मांगे और हॉवर्ड यॉर्ड पर लगाई गई पाबंदी को हटाए ।

Friday, December 16, 2011

बढ़ती रहेगी महंगाई

हमारा देश आज दो बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है । पहली बड़ी समस्या है महंगाई जो सुरसा की मुहं की तरह फैलती जा रही है । दूसरी बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार, जिसको लेकर लोगों के मन में गुस्सा बढ़ता जा रहा है । बढ़ती महंगाई को लेकर सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं । हर तीसरे महीने या तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई पर काबू पाने की एक डेडलाइन दे देते हैं । सरकार हर बार यह विश्वास दिलाती है कि फलां महीने तक महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा लेकिन होता ठीक उसके उल्टा है । पेट्रोल के दाम बढ़ जाते हैं । मंहगाई दर और खाद्य महंगाई दर में बढ़ोतरी हो जाती है । बढ़ती महंगाई को लेकर विरोधी दल संसद में सक्रिय नजर आते हैं लेकिन आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दाम को लेकर विपक्षी दल अबतक कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए हैं । भारतीय जनता पार्टी ने मंहगाई को लेकर देशव्यापी आंदोलन का ऐलान तो किया था लेकिन व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल पाने की वजह से आंदोलन टांय टांय फिस्स हो गया था । भारतीय जनता पार्टी के महंगाई के खिलाफ आंदोलन का हश्र देखकर अन्य विपक्षी दलों के भी हाथ पांव फूल गए और उन्होंने कोई आंदोलन नहीं किया । लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र के शुरूआती दिनों में विपक्ष ने मंहगाई को लेकर खासा बवाल किया । सदन में कामकाज भी ठप करवाया । महंगाई के खिलाफ जनता से समर्थन नहीं मिल पाने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी और बंगाल में अपनी प्रासंगिकता खो चुके वामदलों को संसद में एक अवसर दिखाई दिया । सवाल यह उठता है कि क्या संसद सत्र को ठप करके मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है । क्या बहस से मंहगाई काबू में आ जाएगी । यह बात विपक्ष के कद्दावर नेताओं को समझ में नहीं आती । वो संसद में लंबे-लंबे भाषण करके देश के लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि बढ़ती कीमतों को लेकर वो चिंतित है । लेकिन जनता अब खाने और दिखाने के दांत के फर्क को समझ गई है ।
दरअसल विकास के पायदान पर उपर की ओर चढ़ रहे देश में बढ़ती मंहगाई पर काबू पाना लगभग नामुमकिन है । खुली अर्थवयवस्था में बाजार ही सबकुछ तय करती है और बाजार तो मांग और आपूर्ति के बहुत ही आधारभूत सिद्धांत पर चलता है । अगर हम भारत में ही देखें तो पिछले दो दशक में हमारे देश में हर चीज की मांग में जबरदस्त इजाफा हुआ है लेकिन उस अनुपात में आपूर्ति में बढो़तरी नहीं हुई है लिहाजा वस्तुओं के दाम बढ़े । किसी के कम तो किसी के ज्यादा । पिछले दो दशकों में भारतीय जनता की खर्च करने की क्षमता में भी तकरीबन दो गुना इजाफा हुआ है । नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के शोध- मॉर्केट इंफॉर्मेशन सर्वे ऑफ हाउसहोल्ड- से इस बात की पुष्टि भी हुई थी । इस सर्वे के मुताबिक आम भारतीय हाउसहोल्ड की खर्च करने की क्षमता 1985 के मुकाबले 2004 में दुगनी हो गई । नतीजा यह हुआ कि भारत में एक नए मध्यवर्ग का उदय हुआ जिसके पास पैसे थे । क्षमता बढ़ी तो खर्च करने की इच्छा भी बढ़ी । मैंकेजी के एक सर्वे के मुताबिक अगर भारत की विकास दर आनेवाले सालों में वर्तमान स्तर पर कायम रहती है तो भारतीय बाजार में और उपभोक्ताओं के नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है । एक मजबूत और नए मध्यवर्ग का उदय संभव है जिसकी आय अगले दो दशक में लगभग तिगुनी हो जाएगी । इस विकास का फायदा सिर्फ शहरी मध्यवर्ग को नहीं होगा बल्कि अनुमान है कि ग्रामीण क्षेत्र के हाउसहोल्ड आय में भी बढ़ोतरी होगी । जिस ग्रामीण हाउसहोल्ड की आय 2.8 प्रतिशत है वो अगले दो दशक में बढ़कर 3.6 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है । जाहिर है शहरी और ग्रामीण दोनों उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता और ललक दोनों में बढ़ोतरी होगी । नतीजा यह होगा कि खाद्य पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य, परिवहन पर लोगों का खर्च बढ़ेगा । लेकिन उस अनुपात में अगर उत्पादन नहीं हुआ तो मूल्य बढ़ोतरी को रोका नहीं जा सकता ।
महंगाई सिर्फ भारत में ही नहीं बढ़ रही है । विश्व के कई विकासशील और विकसित मुल्कों में जहां लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है और उनकी आय और खर्च करने की क्षमता में बढ़ोतरी हो रही है वहां हर तरह की कमोडिटी के दामों में इजाफा हो रहा है । एक अंतराष्ट्रीय एजेंसी की सर्वे के आंकड़ों को मानें तो अगले बीस सालों में तीन अरब उपभोक्ता खरीदारी के बाजार में आएंगे । एक अनुमान के मुताबिक अगले दो दशक में विश्व में खाद्य पदार्थ से लेकर, बिजली, पानी, पेट्रोल और गाड़ियों की मांग बेहद बढ़ जाएगी । अभी की खरीदारी पैटर्न और ऑटोमोबाइल सेक्टर के ग्रोथ के आधार पर जो प्रोजेक्शन किया जा रहा है उसके मुताबिक दो हजार तीस तक विश्व में गाड़ियों की संख्या एक अरब सत्तर करोड हो जाने का अनुमान है । सिर्फ गाड़ियों में ही नहीं बल्कि हर तरह के कमोडिटी की खपत बढ़ने से कीमतों पर भारी दबाव पड़ सकता है । अंतराष्ट्रीय एजेंसी मैकेंजी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैलोरी खपत के बीस फीसदी बढ़ जाने का अनुमान लगाया जा रहा है जिसका असर साफ तौर पर खाद्य महंगाई दर पर पड़ेगा और इस सेक्टर की कमोडिटी महंगी हो जाएगी । इसी तरह चीन में भी प्रति व्यक्ति मांस के खपत में 60 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है । वहां मांस की खपत प्रति व्यक्ति 80 किलोग्राम सालाना होना का अनुमान है । अगले बीस साल तक भारत में बुनियादी ढांचे पर भी खासा जोर दिए जाने की योजना है । अगर ये योजना परवान चढ़ती है तो निर्माण कार्य में खपत होनेवाली चीजों की खपत बढ़ेगी और अगर उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ा तो उसका दबाव भी मूल्य पर पडे़गा ।
ऐसा नहीं है कि कमोडिटी के खपत में इस तरह की बढ़ोतरी से भारत और विश्व का पहली बार पाला पड़ा है । बीसबीं शताब्दी में भी इस तरह का दबाव महसूस किया गया था जब पूरी सदी के दौरान विश्व की जनसंख्या तिगुनी हो गई थी और तमाम तरह की चीजों की मांग में 6000 से 2000 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली थी । लेकिन उस वक्त कीमतों पर यह दबाव इस वजह से ज्यादा महसूस नहीं किया गया था क्योंकि उस सदी के दौरान बहुत सारी वैकल्पिक वस्तुओं की खोज के अलावा पूरे विश्व में खेती में जबरदस्त बदलाव हुआ था । नतीजे में खाद्य उत्पादन में हुई बढ़ोतरी ने मूल्य के दबाव को थाम सा लिया था और कीमतें बेकाबू नहीं हो पाई। लेकिन इस सदी में पिछली सदी के मुकाबले तीन तरह की दिक्कतें सामने आ रही हैं । कार्बन उत्सर्जन को लेकर मौसम पर पड़नेवाले असर को लेकर जिस तरह से पूरे विश्व में जागरूकता आई है उससे किसी भी प्रकार का अंधाधुंध उत्पादन संभव नहीं है । दूसरा यह कि अब कमोडिटी एक दूसरे से इस कदर जुड़ गए हैं कि एक दूसरे को प्रभावित करने लगे हैं । मसलन अगर पेट्रोल की कीमतों में इजाफा होता है तो उसका दबाव खाद्य पदार्थ के मूल्य पर भी पड़ता है । अब जरूरत इस बात की है कि सरकारें मूल्य को रेगुलेट करने की बजाए कमोडिटी के उत्पादन और मांग के मुताबिक सप्लाई बढ़ाने की नीति बनाए और इसमें आनेवाली बाधाओं को दूर करे तभी महंगाई पर काबू पाया जा सकता है और तभी डेडलाइऩ को प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा हर तीन महीने पर भरोसे का बयान आता रहेगा और कीमतें बढ़ती रहेंगी ।

Wednesday, December 14, 2011

सिब्बल के सपने

अन्ना हजारे के खिलाफ सरकारी मुहिम के स्वयंभू अगुवा रहे कपिल सिब्बल लंबे समय से राजनीतिक परिदृश्य से गायब थे । विवादप्रिय नेता होने के बावदूद सिब्बल की मीडिया और विवाद से दूरी आश्चर्यचकित ही नहीं करती थी बल्कि चौंका भी रही थी । अन्ना हजारे की जनलोकपाल की मुहिम और उनके अनशन के दौरान कपिल सिब्बल के अडि़यल रुख और गैरराजनीतिक तरीकों ने सरकार की अच्छी खासी किरकिरी करवाई थी । कयास यह लगाए जा रहे थे कि उसके बाद सिब्बल को आलाकमान की तरफ से चुप रहने की सलाह दी गई थी । लेकिन एक बार जिसको विवादों का चस्का लग जाता है वह ज्यादा दिनों तक उससे दूर नहीं रह सकता है । कपिल सिब्बल ने एक बार फिर से उसको साबित भी कर दिया । इस बार सिब्बल बहुत दूर की कौड़ी लेकर आए हैं । उन्होंने इस बार सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की कवायद शुरू की है । सिब्बल ने फेसबुक, गूगल और अन्य सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के प्रतिनिधियों को अपने दफ्तर में बुलाकर उनको कंटेंट पर लगाम लगाने की हिदायत दी । अमेरिका के एक अखबार के मुताबिक सिब्बल ने फेसबुक और अन्य कंपनी के प्रतिनिधियों को बुलाकर साफ तौर पर कहा कि साइट्स पर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह से जुड़ी आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणियों पर पाबंदी लगाने या फिर उसे रोकने का का इंतजाम करें । सिब्बल ने इसके साथ ही धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले चित्रों पर भी ऐतराज जताया और कहा कि इस तरह के आपत्तिजनक कंटेट वहां न हों । फेसबुक और अन्य कंपनियों ने सरकार की इस सलाह को मानने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इन बेवसाइट्स पर यूजर्स अपनी सामग्री डालते हैं और अगर उसपर कोई पाबंदी लगाई गई तो इन बेवसाइट्स का मूल चरित्र ही खत्म हो जाएगा । इसके अलावा सिर्फ फेसबुक के पूरे विश्व में अस्सी करोड़ यूजर्स हैं और किसी भी कंपनी के लिए इतने बड़े उपभोक्ता वर्ग द्वारा डाले जाने वाले कंटेंट पर निगाह रखना मुमकिन नहीं है । ऐसा लगता है कि सिब्बल अपने इस कदम से सरकार और पार्टी के आला नेताओं को साधने में लगे हैं । मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सैकड़ों आपत्तिजनक तस्वीरें नेट पर मौजूद हैं । क्या सिर्फ सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम लगाकर सिब्बल सोनिया और मनमोहन की आपत्तिजनक और अपमानजनक तस्वीरें हटवाने में कामयाब हो जाएंगे । लेकिन अचानक से कांग्रेसी मंत्री कपिल सिब्बल को लोगों की धार्मिक भावनाओं की फिक्र कहां से होने लगी । सिब्बल को अब धर्म और धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाली तस्वीरों की याद आ रही है लेकिन उस वक्त सिब्बल कहां थे जब एम एफ हुसैन कथित तौर पर धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले पेंटिग्स बना रहे थे । उस वक्त अगर हुसैन की पेंटिग्स उत्कृष्ट कला का एक नमूना और एक कलाकार की अभिवयक्ति थी तो अब भी जो कुछ नेट पर किया जा रहा है या हो रहा है उसे भी उसी स्पिरिट में देखा जाना चाहिए । हुसैन का विरोध करनेवाले अगर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रहे थे तो सिब्बल इस वक्त क्या कर रहे हैं, इसपर भी कांग्रेस और लेफ्ट दोनों को सिर्फ विचार ही नहीं करना चाहिए बल्कि आत्मावलोकन भी करना चाहिए ।
कपिल सिब्बल चाहे जो भी सफाई दें और जिस भी वजह की आड़ में सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाने की कोशिश करें लेकिन इतना साफ है कि यह सबकुछ अन्ना हजारे की मुहिम को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है । जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था तो सरकार ने माना था कि वो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नजर नहीं रख पाई । लिहाजा इस बार सरकार ने अपनी इस भूल को सुधारने की कोशिश की और लगात है कि उसका जिम्मा दूरसंचार मंत्री होने के नाते सिब्बल को दिया गया है । फोसबुक और ट्विटर की ताकत से सरकार अंजान नहीं है । चाहे वो मिस्त्र में तहरीर स्कावयर पर लाखों लोगों के जुटने का मामला हो, चाहे वो ट्यूनीशिया में सरकार के खिलाफ आंदोलन हो, चाहे वो अमेरिका में चल रहा ऑक्योपॉय वॉल स्ट्रीट हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो, सबमें फेसबुक और टि्वटर की बेहद ही अहम भूमिका रही है । उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें तो फेसबुक पर पिछले साल नवंबर में इंडिया अगेंस्ट करप्शऩ का पेज बनाया गया और सालभर में तकरीबन साढे पांच लाख से ज्यादा लोग उसके सदस्य बन गए और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । उसी तरह अगर हम ट्विटर को देखें तो जनलोकपाल के नाम से पिछले ही साल ट्विटर अकाउंट खोला गया । टि्वटर को रेटिंग देनेवाली एजेंसी ने जनलोकपाल को एक मजबूत ब्रांड के तौर पर रेटिंग दी और शुरुआत में ही उसे दसवें नंबर पर रखा । लेकिन महीने भर में ही जनलोकपाल टॉप फाइव में पहुंच गया । और तब से वो लगातार दूसरे तीसरे नंबर पर बना रहता है । बावजूद इसके कि जनलोकपाल को फॉलो करनेवाले महज दो लाख के करीब लोग है । सरकार के पास ये सब आंकड़े तो जाते ही हैं । इन आंकड़ों की वजह और पिछले दो अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन से यूपीए सरकार के कान खड़े हो गए । अन्ना हजारे एक बार फिर से अनशन करने के लिए हुंकार रहे हैं और दूसरे वो यह भी ऐलान कर चुके हैं कि अगर लोकपाल बिल पास नहीं होता है तो वो आठ दिनों के अनशन के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगे । उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता को लेकर कांग्रेस खासी सतर्क है । इस वजह से अन्ना के उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार के ऐलान और राजनेताओं के खिलाफ साइबर दुनिया में बन रहे माहौल को देखकर ही सिब्बल उसपर लगाम लगाने की मंशा पाले बैठे हैं । लेकिन सिब्बल जैसे कानून के जानकार यह भूल जाते हैं कि इस देश का संविधान प्री सेंसरशिप की इजाजत नहीं देता । हमारे संविधान के मुताबिक कोई भी प्रचार प्रसार- दृश्य या श्रव्य अगर आपत्तिजनक दिखाई देता है तो उसके खिलाफ शिकायत होनी चाहिए और दोषी पाए जाने पर बनाने वाले और उसे प्रचारित प्रसारित करनेवालों पर कानून के हिसाब से कार्रवाई होनी चाहिए । लेकिन कहीं भी प्री सेंसरशिप की बात नहीं कही गई है ।
प्रीसेंसरशिप की बात दो बार कांग्रेस के शासनकाल में ही कही गई है । एक बार इमरजेंसी के दौरान, जब प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था और इंद्रकुमार गुजराल को हटाकर विद्याचरण शुक्ला को सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी । पद संभालने के बाद शुक्ला अपने दफ्तर में अखबार के संपादकों को बुलाकर यह बताते थे कि अखबार में क्या छापना है । इमरजेंसी लगने और पद संभालने के फौरन बाद ही विद्याचरण शुक्ला ने 26 जून 1975 को दिल्ली में अखबार के संपादकों के साथ एक बैठक करके उन्हें सेंसरशिप समझाया था । कुछ अखबारों ने उस दिन के अपने अंक में लिख दिया था कि आज के अखबार की खबरें सरकार द्वारा सेंसर की गई हैं । जिसपर विद्याचरण शुक्ला ने संपादकों को खूब खरी खोटी सुनाई थी । सेंसरशिप का नतीजा कांग्रेस ने भुगता । इसलिए एक बार जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में फिर से सेंसरशिप की बात चली तो उसे लागू करने का साहस सरकार नगहीं कर पाई । सिब्बल की सोशल मीडिया पर सेंसरशिप पर ही एक वयक्ति ने ट्विट किया- 1975 में भी एक वकील सिद्धार्थ शंकर रे ने श्रीमती गांधी को सलाह दी थी जिसका नतीजा कांग्रेस ने भुगता और अब फिर से एक वकील सरकार की तरफ से मोर्चा संभाले हैं तो दूसरी श्रीमती गांधी को इस बात पर गौर करना चाहिए ।