अभिज्ञानशाकुन्तल का एक श्लोक है – यद्यत्साधु न चित्रे स्यात् क्रियते तत्तदन्यथा । तथापि तस्या
लावण्यं रेखया किंचिदन्वितम् ।। यह बात उस
प्रसंग में कही गई है जब राजा दुश्यंत ने शकुन्तला की एक पेंटिंग बनाई थी । उस पेंटिंग
को देखने के बाद दुश्यंत ने कहा था कि अगर चित्र में जो जैसा है वैसा नहीं बन पाता
है तो उसे अलग तरीके का बना दिया जाता है । भारत के प्रख्यात पत्रकार और मानवाधिकार
कार्यकर्ता कुलदीप नैयर की आत्मकथा बियांड द लाइंस पढते हुए मुझे अभिज्ञानशाकुन्तल
का ये श्लोक याद आ रहा था । अपनी इस पूरी आत्मकथा में कुलदीप नैयर ने ‘तत्तदन्यथा’ का भरपूर इस्तेमाल किया है
। यानि अगर किताब के हिसाब से तथ्य अगर ना बन पाएं तो उसे अन्यथा कर दो, अपने हिसाब
से उसकी व्याख्या कर दो । कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा बियांड द लाइंस में इस तरकीब
का जमकर इस्तेमाल किया है । कहीं वो तथ्यों को बेहतर तरीके से पेश कर बेहतरीन तस्वीर
बना देते हैं तो कहीं जो तस्वीर बनती है उससे कुछ और ही निकल कर सामने आ जाता है ।
जैसे अपनी आत्मकथा में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने के दौरान और बाद
की परिस्थितियों की जो वो तस्वीर पेश करते हैं वो इसी ‘तत्तदन्यथा’ का नमूना है जिसपर आगे विस्तार
से चर्चा है ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारों में से एक हैं । इसके पहले भी उनकी कई किताबें प्रकाशित होकर खासी चर्चित हो चुकी हैं । दो हजार छह में जब उनकी किताब स्कूप छपकर आई थी तो उससे यह अंदाजा हो गया था कि कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं और वो जल्द ही प्रकाशित होनेवाली है । कुलदीप नैयर की आत्मकथा के छपकर आने के बाद से उनकी सरकारी पत्रकार की छवि और मजबूत हो गई है । नैयर ने अपने करियर की शुरुआत एक उर्दू दैनिक से की लेकिन उनका करियर सरकार की पब्लिसिटी के लिए बनाए गए प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो की नौकरी करने के बाद से ही परवान चढ़ा । पहले वो उस वक्त के गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के सूचना अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए फिर उनको लाल बहादुर शास्त्री के साथ काम करने का मौका मिला । इस दौरान कुलदीप नैयर ने अखबारों के लिए लिखना जारी रखा था । उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि स्वतंत्र न्यूज एजेंसी यूएनआई ज्वाइन करने के बाद भी वो अनौपचारिक रूप से लाल बहादुर शास्त्री को उनकी छवि मजबूत करने के बारे में सलाह देते रहते थे । अपनी आत्मकथा के अध्याय- लाल बहादुर शास्त्री एज अ प्राइम मिनिस्टर में पृष्ठ 141 पर उन्होंने स्वंय माना है कि उनकी स्टोरी से मोरार जी देसाई को काफी नुकसान हुआ । जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद जब पूरा देश शोक में डूबा था उसी वक्त कुलदीप नैयर ने यूएनआई की टिकर में एक खबर लगाई – पूर्व वित्त मंत्री मिस्टर मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उतरनेवाले पहले शख्स हैं । ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अपने करीबियों को इस बारे में बता दिया है । ये भी माना जा रहा है कि देसाई चुनाव के पक्ष में अड़े हुए हैं और वो किसी भी कीमत में रेस से बाहर नहीं होंगे । इसी खबर में दूसरी लाइन लिखते हैं- बगैर पोर्टफोलियो के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार माने जा रहे हैं, हलांकि वो अनिच्छुक बताए जा रहे हैं । शास्त्री के करीबियों के मुताबिक वो चुनाव टाल कर आमसहमति के पक्ष में हैं । कुलदीप नैयर ने खुद माना है कि उनकी इस खबर से मोरारजी देसाई को काफी नुकसान हुआ और वो उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं बन पाए । बाद में लाल बहादुर शास्त्री और कामराज ने उन्हें इलके लिए धन्यवाद भी दिया । हलांकि वो यह सफाई देते हैं कि उनकी मंशा मोरारजी को नुकसान पहुंचाने की नहीं थी लेकिन अगर हम समग्रता में पढ़े और शास्त्री की छवि मजबूत करने में सहायता वाली बात को जोड़कर देखें तो यह साफ तौर पर उभरता है कि एक पत्रकार के तौर पर नैयर ने वही किया जिसके वो इन दिनों खिलाफ हैं । इस वजह से वरिष्ठ पत्रकार और प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार रह चुके हरीश खरे ने भी लिखा है कि कुलदीम नैयर भारत में एंबेडेड जर्निज्म करनेवाले पहले पत्रकार हैं। हरीश की इन बातों को कुलदीप की किताब में लिखे गए तथ्यों से काफी बल मिलता है । कुलदीप नैयर लंबे समय तक सत्ता के साथ रहे और अपनी लेखनी से उनको लाभान्वित भी करते रहे ।
इमरजेंसी के बाद के दौर में तो कुलदीप नैयर ने पत्रकारिता करते हुए पूरी तरह से राजनीति शुरू कर दी थी और विपक्ष के साथ हो लिए थे । नैयर ना केवल अपनी लेखनी से बल्कि विपक्षी दलों के नेताओं के साथ घुलमिलकर इंदिरा को पद से हटाने का उपक्रम कर रहे थे । क्या ये पत्रकारिता के उन सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है जो पत्रकारों से तटस्थ रहने की अपेक्षा करता है । यह भी सही है कि अगर लोकतंत्र की हत्या का खेल खेला जा रहा हो तो पत्रकारों को उसके खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए, यह उनका दायित्व भी है, लेकिन किसको क्या पद मिले इससे पत्रकारों को क्या लेना देना है, वो इन पचड़ों में क्यों पड़े । वीपी सिंह के प्रधानमंत्री पद के चुनाव के वक्त भी कुलदीप नैयर ने बेहद सक्रिय भूमिका निभाई । उनका दावा है कि चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जो फॉर्मूला बना था वो उनका ही तैयार किया हुआ था (पृ 315) । उनके फॉर्मूले पर चलकर ही पहले देवीलाल को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया और बाद में देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया । कुलदीप नैयर का दावा है कि उनके इस फॉर्मूले की जानकारी पंजाब केसरी के संपादक अश्विनी कुमार को भी थी । सवाल यही उठता है कि एक पत्रकार के तौर पर कुलदीप नैयर क्या लॉबिंग नहीं कर रहे थे । बाद में वी पी सिंह ने उन्हें ब्रिटेन का उच्चायुक्त नियुक्त किया था । हलांकि उस वक्त नैयर के मन में यह सवाल उठा था कि एक पत्रकार के तौर पर सरकार का हिस्सा बनना कितना उचित है लेकिन वो सवाल कहीं बिला गया और कुलदीप नैयर ने विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के तमाम असहयोग के बावजूद उच्चायुक्त का पद संभाल लिया था।
इमरजेंसी के पहले के दौर में उनका इंदिरा गांधी से मोहभंग अवश्य हो गया था । इमरजेंसी के दौर में वो जेल भी गए । लेकिन इमरजेंसी में जेल जाने की घटना का जिस उल्लास और उत्साह से उन्होंने वर्णन किया है वो भी हैरान करनेवाला है । नैयर लिखते हैं कि जब पुलिसवाले उनको गिरफ्तार करके निकल रहे होते हैं तो वायरलेस पर मैसेज देते हैं- शेर पिंजरे में आ गया है । उसके बाद जिस तरह से पुलिस का आला अधिकारी उनके पास आता है और उनके लेखन की तारीफों के पुल बांध देता है । कुलदीप नैयर की आत्मकथा को पढ़ते हुए जब वो अपनी तारीफों के पुल बांध रहे होते हैं तो उन प्रसंगों को पढ़ते हुए में हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता की कुछ पंक्तियां जो कुछ इस तरह से हैं – जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब/तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा/और कुछ भी नहीं में /सबकुछ होना बचा रहेगा / - बरबस याद आने लगती है । नैयर ने अपनी आत्मकथा में अपनी प्रशंसा के अलावा आजाद भारत के कई दिलचस्प प्रसंगों को भी कलमबद्ध किया है । जैसे जब नोबोकोब का मशहूर उपन्यास लोलिता का प्रकाशन हुआ तो लाल बहादुर शास्त्री ने फौरन उसको भारत में प्रतिबंधित करने की वकालत करते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा । अपनी आदत के मुताबिक नेहरू ने अगले ही दिन लाल बहादुर शास्त्री को विस्तार से पत्र लिखकर लोलिता को प्रतिबंधित करने से मना कर दिया । नेहरू ने साथ ही ये दलील भी दी कि डी एच लारेंस का लेडी चैटर्लीज लवर भी बाजार में मौजूद होना चाहिए । नैयर लिखते हैं कि शास्त्री नैतिकतावादी तो नहीं थे लेकिन रूढ़िवादी थे । इस प्रसंग में उन्होंने लेनिनग्राद में बैले नृत्य के प्रसंग का उदाहरण देते हुए बताया कि लाल बहादुर शास्त्री कैसे असहज हो गए थे । उन्होंने नृत्य के बीच में जब शास्त्री से पूछा कि कैसा लग रहा है तो शास्त्री ने जवाब दिया कि पूरे नृत्य के दौरान वो इस वजह से असहज रहे कि नर्तकियों के पांव उपर तक खुले थे और वो अपनी पत्नी के साथ बैठे थे ।
कुलदीप नैयर की आत्मकथा इस मायने में भी थोड़ी अहम है कि उसमें आजाद भारत की राजनीति का इतिहास है थोड़ा प्रामाणिक लेकिन बहुधा सुनी सुनाई बातों पर आधारित । कुलदीप नैयर स्कूप के लिए जाने जाते रहे हैं लेकिन उनके स्कूप कई बार सुनी सुनाई बातों या राजनीतिक गॉसिप का अंग रहे हैं । जैसे संजय गांधी की मौत के बाद एक जगह नैयर लिखते हैं – इंदिरा गांधी ने दुर्घटनास्थल का एक बार फिर से दौरा किया और कोई चीज ढूंढकर अपने पास रख ली । वह क्या चीज थी, यह आजतक रहस्य बना हुआ है । क्या वह संजय के स्विस खाते का नंबर था ? संजय गांधी की मौत के बाद इस तरह की अफवाहें काफी फैली थी । तो गॉसिप को स्कूप की चासनी में पेश करने का काम भी नैयर ने अपनी पत्रकारिता में किया और उसको अपनी आत्मकथा में भी तमगे की तरह से प्रस्तुत किया । जैसे एक जगह वो लिखते हैं कि जब जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया था तो उनके फैसले के बारे में जानने के लिए उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों को देखते हुए साधु संन्यासियों का इस्तेमाल किया गया । कोई प्रमाण नहीं, लेकिन कोई कंडन करनेवाला भी नहीं । उसी तरह से जब जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए इंदिरा गांधी को पंद्रह दिनों का समय दिया था । नैयर ने लिखा- एक स्थानीय वफादार वकील वी एन खरे ने खुद ही अपनी तरफ से अपील दाखिल की (पृ 224) । यहां तो ठीक था लेकिन उसके बाद उन्होंने एक लाइन लिख दी कि खरे बाद में भारत के मुख्य न्यायधीश बने । इस तरह से उन्होंने वी एन खरे की वफादारी को उनकी योग्यता बता दिया । संदेह पैदा कर गए ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पत्रकारों में से एक हैं । उनकी योग्यता और उनकी साख पर कोई सवाल भी नहीं है । उनकी लगभग चार सौ पन्नों की यह किताब आजाद भारत का राजनीतिक इतिहास हो सकता था लेकिन नैयर साहब ने कई जगह पर सुनी सुनाई बातों और घटनाओं का वर्णन किया है जिसको भविष्य के इतिहासकार मानेंगे या नहीं इसमें संदेह है । जैसे उन्होंने अपने स्टेटसमैन से हटाए जाने का जो प्रसंग लिखा है और उसी प्रसंग को लेकर जो अन्य संपादकों की किताबें हैं वो अलग अलग तथ्य बयान करती है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कुलदीप नैयर की इस किताब को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए । इसमें कई घटनाओं का प्रामाणिक और फर्स्ट हैंड चित्रण है । अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि बियांड द लाइंस उनकी आत्मकथा है लेकिन इसमें वो बियांड और बिटवीन द लाइंस के बीच उलझ कर रह गए हैं जिससे उनकी पत्रकार की छवि पुष्ट होने के बजाए दरकती है ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारों में से एक हैं । इसके पहले भी उनकी कई किताबें प्रकाशित होकर खासी चर्चित हो चुकी हैं । दो हजार छह में जब उनकी किताब स्कूप छपकर आई थी तो उससे यह अंदाजा हो गया था कि कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं और वो जल्द ही प्रकाशित होनेवाली है । कुलदीप नैयर की आत्मकथा के छपकर आने के बाद से उनकी सरकारी पत्रकार की छवि और मजबूत हो गई है । नैयर ने अपने करियर की शुरुआत एक उर्दू दैनिक से की लेकिन उनका करियर सरकार की पब्लिसिटी के लिए बनाए गए प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो की नौकरी करने के बाद से ही परवान चढ़ा । पहले वो उस वक्त के गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के सूचना अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए फिर उनको लाल बहादुर शास्त्री के साथ काम करने का मौका मिला । इस दौरान कुलदीप नैयर ने अखबारों के लिए लिखना जारी रखा था । उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि स्वतंत्र न्यूज एजेंसी यूएनआई ज्वाइन करने के बाद भी वो अनौपचारिक रूप से लाल बहादुर शास्त्री को उनकी छवि मजबूत करने के बारे में सलाह देते रहते थे । अपनी आत्मकथा के अध्याय- लाल बहादुर शास्त्री एज अ प्राइम मिनिस्टर में पृष्ठ 141 पर उन्होंने स्वंय माना है कि उनकी स्टोरी से मोरार जी देसाई को काफी नुकसान हुआ । जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद जब पूरा देश शोक में डूबा था उसी वक्त कुलदीप नैयर ने यूएनआई की टिकर में एक खबर लगाई – पूर्व वित्त मंत्री मिस्टर मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उतरनेवाले पहले शख्स हैं । ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अपने करीबियों को इस बारे में बता दिया है । ये भी माना जा रहा है कि देसाई चुनाव के पक्ष में अड़े हुए हैं और वो किसी भी कीमत में रेस से बाहर नहीं होंगे । इसी खबर में दूसरी लाइन लिखते हैं- बगैर पोर्टफोलियो के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार माने जा रहे हैं, हलांकि वो अनिच्छुक बताए जा रहे हैं । शास्त्री के करीबियों के मुताबिक वो चुनाव टाल कर आमसहमति के पक्ष में हैं । कुलदीप नैयर ने खुद माना है कि उनकी इस खबर से मोरारजी देसाई को काफी नुकसान हुआ और वो उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं बन पाए । बाद में लाल बहादुर शास्त्री और कामराज ने उन्हें इलके लिए धन्यवाद भी दिया । हलांकि वो यह सफाई देते हैं कि उनकी मंशा मोरारजी को नुकसान पहुंचाने की नहीं थी लेकिन अगर हम समग्रता में पढ़े और शास्त्री की छवि मजबूत करने में सहायता वाली बात को जोड़कर देखें तो यह साफ तौर पर उभरता है कि एक पत्रकार के तौर पर नैयर ने वही किया जिसके वो इन दिनों खिलाफ हैं । इस वजह से वरिष्ठ पत्रकार और प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार रह चुके हरीश खरे ने भी लिखा है कि कुलदीम नैयर भारत में एंबेडेड जर्निज्म करनेवाले पहले पत्रकार हैं। हरीश की इन बातों को कुलदीप की किताब में लिखे गए तथ्यों से काफी बल मिलता है । कुलदीप नैयर लंबे समय तक सत्ता के साथ रहे और अपनी लेखनी से उनको लाभान्वित भी करते रहे ।
इमरजेंसी के बाद के दौर में तो कुलदीप नैयर ने पत्रकारिता करते हुए पूरी तरह से राजनीति शुरू कर दी थी और विपक्ष के साथ हो लिए थे । नैयर ना केवल अपनी लेखनी से बल्कि विपक्षी दलों के नेताओं के साथ घुलमिलकर इंदिरा को पद से हटाने का उपक्रम कर रहे थे । क्या ये पत्रकारिता के उन सिद्धांतों के खिलाफ नहीं है जो पत्रकारों से तटस्थ रहने की अपेक्षा करता है । यह भी सही है कि अगर लोकतंत्र की हत्या का खेल खेला जा रहा हो तो पत्रकारों को उसके खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए, यह उनका दायित्व भी है, लेकिन किसको क्या पद मिले इससे पत्रकारों को क्या लेना देना है, वो इन पचड़ों में क्यों पड़े । वीपी सिंह के प्रधानमंत्री पद के चुनाव के वक्त भी कुलदीप नैयर ने बेहद सक्रिय भूमिका निभाई । उनका दावा है कि चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जो फॉर्मूला बना था वो उनका ही तैयार किया हुआ था (पृ 315) । उनके फॉर्मूले पर चलकर ही पहले देवीलाल को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया और बाद में देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया । कुलदीप नैयर का दावा है कि उनके इस फॉर्मूले की जानकारी पंजाब केसरी के संपादक अश्विनी कुमार को भी थी । सवाल यही उठता है कि एक पत्रकार के तौर पर कुलदीप नैयर क्या लॉबिंग नहीं कर रहे थे । बाद में वी पी सिंह ने उन्हें ब्रिटेन का उच्चायुक्त नियुक्त किया था । हलांकि उस वक्त नैयर के मन में यह सवाल उठा था कि एक पत्रकार के तौर पर सरकार का हिस्सा बनना कितना उचित है लेकिन वो सवाल कहीं बिला गया और कुलदीप नैयर ने विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के तमाम असहयोग के बावजूद उच्चायुक्त का पद संभाल लिया था।
इमरजेंसी के पहले के दौर में उनका इंदिरा गांधी से मोहभंग अवश्य हो गया था । इमरजेंसी के दौर में वो जेल भी गए । लेकिन इमरजेंसी में जेल जाने की घटना का जिस उल्लास और उत्साह से उन्होंने वर्णन किया है वो भी हैरान करनेवाला है । नैयर लिखते हैं कि जब पुलिसवाले उनको गिरफ्तार करके निकल रहे होते हैं तो वायरलेस पर मैसेज देते हैं- शेर पिंजरे में आ गया है । उसके बाद जिस तरह से पुलिस का आला अधिकारी उनके पास आता है और उनके लेखन की तारीफों के पुल बांध देता है । कुलदीप नैयर की आत्मकथा को पढ़ते हुए जब वो अपनी तारीफों के पुल बांध रहे होते हैं तो उन प्रसंगों को पढ़ते हुए में हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता की कुछ पंक्तियां जो कुछ इस तरह से हैं – जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब/तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा/और कुछ भी नहीं में /सबकुछ होना बचा रहेगा / - बरबस याद आने लगती है । नैयर ने अपनी आत्मकथा में अपनी प्रशंसा के अलावा आजाद भारत के कई दिलचस्प प्रसंगों को भी कलमबद्ध किया है । जैसे जब नोबोकोब का मशहूर उपन्यास लोलिता का प्रकाशन हुआ तो लाल बहादुर शास्त्री ने फौरन उसको भारत में प्रतिबंधित करने की वकालत करते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा । अपनी आदत के मुताबिक नेहरू ने अगले ही दिन लाल बहादुर शास्त्री को विस्तार से पत्र लिखकर लोलिता को प्रतिबंधित करने से मना कर दिया । नेहरू ने साथ ही ये दलील भी दी कि डी एच लारेंस का लेडी चैटर्लीज लवर भी बाजार में मौजूद होना चाहिए । नैयर लिखते हैं कि शास्त्री नैतिकतावादी तो नहीं थे लेकिन रूढ़िवादी थे । इस प्रसंग में उन्होंने लेनिनग्राद में बैले नृत्य के प्रसंग का उदाहरण देते हुए बताया कि लाल बहादुर शास्त्री कैसे असहज हो गए थे । उन्होंने नृत्य के बीच में जब शास्त्री से पूछा कि कैसा लग रहा है तो शास्त्री ने जवाब दिया कि पूरे नृत्य के दौरान वो इस वजह से असहज रहे कि नर्तकियों के पांव उपर तक खुले थे और वो अपनी पत्नी के साथ बैठे थे ।
कुलदीप नैयर की आत्मकथा इस मायने में भी थोड़ी अहम है कि उसमें आजाद भारत की राजनीति का इतिहास है थोड़ा प्रामाणिक लेकिन बहुधा सुनी सुनाई बातों पर आधारित । कुलदीप नैयर स्कूप के लिए जाने जाते रहे हैं लेकिन उनके स्कूप कई बार सुनी सुनाई बातों या राजनीतिक गॉसिप का अंग रहे हैं । जैसे संजय गांधी की मौत के बाद एक जगह नैयर लिखते हैं – इंदिरा गांधी ने दुर्घटनास्थल का एक बार फिर से दौरा किया और कोई चीज ढूंढकर अपने पास रख ली । वह क्या चीज थी, यह आजतक रहस्य बना हुआ है । क्या वह संजय के स्विस खाते का नंबर था ? संजय गांधी की मौत के बाद इस तरह की अफवाहें काफी फैली थी । तो गॉसिप को स्कूप की चासनी में पेश करने का काम भी नैयर ने अपनी पत्रकारिता में किया और उसको अपनी आत्मकथा में भी तमगे की तरह से प्रस्तुत किया । जैसे एक जगह वो लिखते हैं कि जब जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया था तो उनके फैसले के बारे में जानने के लिए उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों को देखते हुए साधु संन्यासियों का इस्तेमाल किया गया । कोई प्रमाण नहीं, लेकिन कोई कंडन करनेवाला भी नहीं । उसी तरह से जब जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए इंदिरा गांधी को पंद्रह दिनों का समय दिया था । नैयर ने लिखा- एक स्थानीय वफादार वकील वी एन खरे ने खुद ही अपनी तरफ से अपील दाखिल की (पृ 224) । यहां तो ठीक था लेकिन उसके बाद उन्होंने एक लाइन लिख दी कि खरे बाद में भारत के मुख्य न्यायधीश बने । इस तरह से उन्होंने वी एन खरे की वफादारी को उनकी योग्यता बता दिया । संदेह पैदा कर गए ।
कुलदीप नैयर भारत के सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पत्रकारों में से एक हैं । उनकी योग्यता और उनकी साख पर कोई सवाल भी नहीं है । उनकी लगभग चार सौ पन्नों की यह किताब आजाद भारत का राजनीतिक इतिहास हो सकता था लेकिन नैयर साहब ने कई जगह पर सुनी सुनाई बातों और घटनाओं का वर्णन किया है जिसको भविष्य के इतिहासकार मानेंगे या नहीं इसमें संदेह है । जैसे उन्होंने अपने स्टेटसमैन से हटाए जाने का जो प्रसंग लिखा है और उसी प्रसंग को लेकर जो अन्य संपादकों की किताबें हैं वो अलग अलग तथ्य बयान करती है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कुलदीप नैयर की इस किताब को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए । इसमें कई घटनाओं का प्रामाणिक और फर्स्ट हैंड चित्रण है । अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि बियांड द लाइंस उनकी आत्मकथा है लेकिन इसमें वो बियांड और बिटवीन द लाइंस के बीच उलझ कर रह गए हैं जिससे उनकी पत्रकार की छवि पुष्ट होने के बजाए दरकती है ।
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