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Wednesday, January 23, 2013

लेखकों के मंथन का वक्त

भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की वजह से खुलेपन का फायदा हर क्षेत्र को हुआ । विदेशी कंपनियों को भारत में एक बड़ा बाजार दिखाई देने लगा था आर्थिक उदारीकरण का फायदा यह हुआ कि देश के अन्य क्षेत्रों की तरह प्रकाशन जगत में भी विदेशी प्रकाशकों की आवाजाही बढ़ी भारत के प्रकाशक भी विदेशी पुस्तक मेलों में जाने लगे हिंदी के कई प्रकाशकों ने अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों का अनुवाद करवाना शुरू किया नतीजा यह हुआ कि भारत के पाठकों को विदेशी लेखकों की रचनाओं से परिचय होने लगा उसके पहले तो सिर्फ रूस का प्रगति प्रकाशन ही विश्व साहित्य, या यों कहें कि एक खास विचारधारा की साहित्य, से हमारा परिचय करवाता था । इसके अलावा इस उदारीकरण का एक और फायदा यह हुआ कि हमारे देश में भी साहित्यक संस्कृतियों के नाम पर मेले शुरू होने लगे । पहले तो भारत में साहित्य संस्कृति के नाम पर चंद आयोजन होते थे । साहित्य के आयोजन या तो सृजनात्मकता की कब्रगाह (राजेन्द्र यादव के शब्द ) भारतीय विश्वविद्यालयों में होते थे या फिर कुछ लेखक संघों की पहल पर होते थे । उदारीकरण के बाद से देश में साहित्यिक आयोजन भी प्रगतिशीलों और विश्वविद्यालय शिक्षकों के हाथों से निकलकर सृजनात्मकता से लबरेज लेखकों के हाथों में भी पहुंचा । उन लेखकों के हाथों में जो साहित्यक आयोजनों के बहाने अपनी और साथी लेखकों की बात आम जनता या यों कह सकते हैं कि साहित्य में रुचि रखनेवाले लोगों तक पहुंचा सकें । पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाने के काम से मुक्त होकर ये आयोजन साहित्यक विमर्श के मंच बनने लगे । इन आयोजनों की सफलता से एक बात तो साफ हो गई कि जन और लोक की बात करनेवाले साहित्यकारों और साहित्य के ठेकेदारों के आयोजनों से ज्यादा जन और लोक दोनों की भागीदारी इन मेलों में होने लगी ।
साहित्य के नाम पर होने वाले आयोजनों में पूंजी को लेकर भी प्रगतिशीलों ने पूर्व में खासा बखेड़ा किया था । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक कोरियाई कंपनी ने साहित्य अकादमी के एक पुरस्कार की धनराशि को स्पांसर करने का फैसला लिया था । साहित्य अकादमी ने उसे मंजूरी भी दे दी थी लेकिन उस पुरस्कार को लेकर हिंदी जगत में वामपंथी लेखकों ने बड़ा वितंडा खड़ा कर दिया था । साहित्य अकादमी पर चंद लेखकों ने प्रदर्शन कर विरोध जताया था । उस पुरस्कार के खिलाफ हिंदी में कई लेख लिखे गए । बाद में जब दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में य़े कार्यक्रम आयोजित हुआ था तो मुट्ठीभर लोगों ने वहां भी विरोध जताने की कोशिश की थी । ये लोग साहित्य में पूंजीवाद का विरोध कर बड़ा सवाल खड़ा करने का दंभ भरनेवाले लोग थे । विरोध करनेवाले विचारधारा की बिनाह पर लंबे चौड़े वादे और दावे करनेवाले थे जिनको खुद की पत्रिका में देशी-विदेशी कंपनियों के विज्ञापन छापने से परहेज नहीं था । इस विरोध का नतीजा यह हुआ कि कंनी ने उस पुरस्कार से अपना हाथ खींच लिया । उस घटना के बाद से साहित्य में पूंजी लगाने में कारपोरेट कंपनियां हिचकने लगी हैं ।
इसके अलावा हिंदी के लोगों ने कई साहित्यक मेलों का विरोध भी किया था । उसमें से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी एक है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल हर साल जयपुर के दिग्गी पैलेस में आयोजित होता है । चार पांच साल पहले तो हिंदी में जयपुर लिटरेचर फेस्टविल का हिंदी के साहित्यकारों ने जमकर विरोध किया था । उन्हें लगता था कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है और उनको हाशिए पर रखा जाता है । लेकिन आनेवाले दिनों में हिंदी के लेखकों की ये शंका निर्मूल साबित हुई । जयपुर साहित्य सम्मेलन में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी और हिंदी के लेखकों की भागीदारी भी, जाहिर सी बात है कि प्रतिष्ठा में भी इजाफा हुआ । आज जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान हिंदी के दर्जनों सत्र होते हैं . हिंदी के कई लेखकों की उसमें शिरकत होती है । पिछले साल आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के आलोचर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने शुरुआती सत्रों को ही संबोधित किया था । अंतराष्ट्रीय लेखकों से उनका मिलना जुलना होता है । अंतराष्ट्रीय पाठकों और विद्वानों के सामने हिंदी के लेखकों की रचनाओं पर विमर्श होता है । इन विमर्शों का फायदा अंतत: हिंदी और हिंदी के लेखकों को ही होता है । यह बात अब हिंदी के लेखकों की समझ में आने लगी है । इस साल जनवरी में होनवाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बड़ी संख्या में हिंदी के लेखकों की भागीदारी देखी जा सकती है । इस वजह से अक्तूबर नवंबर से ही हिंदी के लेखक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करवाने में जुटे रहते हैं । दरअसल यह हम हिंदीवालों के स्वभाव में है । पहले विरोध करते हैं, फिर जब लगता है कि उससे हमारा लाभ होनेवाला है तो उसके साथ हो जाते हैं ।
अगर आप पिछले सालों में हिंदी में उठे विवादों पर नजर डालें तो यह बात पूरी तौर पर साफ हो जाती है । हिंदी की साहित्यक पत्रिका नया ज्ञानोदय में उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय का एक साक्षात्कार छपा था जिसमें उन्होंने छिनाल शब्द का इस्तेमाल किया था । उस एक शब्द को लेकर हिंदी साहित्य में काफी बवाल मचा था जिसके बाद विभूति ने खेद प्रकट कर विवाद को खत्म करने की कोशिश की थी  । लेकिन हिंदी के कई लेखकों ने राय के खिलाफ एक मुहिम शुरू की थी और ज्ञानपीठ के सामने धरना प्रदर्शन किया था । हल्ला गुल्ला और धरना प्रदर्शन में जोर शोर से शिरकत करनेवाले कई लेखक अब उसी विश्विद्यालय में अपना बुढापा काट रहे हैं । दरअसल हिंदी के लेखकों के बीच एक अजूब किस्म की स्नाबरी देखने को मिलती है । उजाले में तो वो सिद्धांत, विचारधारा, जन, लोक, आदि की बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन अंधेरा होते ही या सूना पाते ही उन सबको भुलाकर अपने लाभ लोभ के चक्कर में पड़ जाते हैं । जिससे उनकी विश्वसनीयता एकदम से दरक जाती है ।
हिंदी के प्रकाशकों को लेकर लेखकों को बहुत शिकायतें रहती हैं । यह बात बार बार सुनने में आती है कि हिंदी का लेखक गरीब होता जा रहा है और प्रकाशक अमीर होते जा रहे हैं । बहुत आसानी से प्रकाशकों पर लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप भी लगता रहता है । हो सकता है कि उन आरोपों में आंशिक सचाई हो लेकिन सवाल यह उठता है कि वही लेखक जब प्रकाशकों के सामने होते हैं तो उनका रूप बदला सा नजर आता है । वहां वो याचक की भूमिका में होते हैं । उनकी पहली इच्छा यह होती है कि प्रकाशक उनकी किताब छाप दे । हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने तो प्रकाशकों से उपन्यास और किताबें लिखने के लिए अग्रिम पैसे लिए लेकिन आजतक ना तो किताब लिखी गई और ना ही प्रकाशकों को उनका चेक वापस मिला । कई लेखकों ने तो एक प्रकाशक से पैसे लिए और दूसरे से अपनी किताब छपवा ली । यहां सवाल यह उठता है कि लेखकों के इस गोरखधंधे पर कभी बात क्यों नहीं होती है । क्या हिंदी के लेखकों, साहित्यकारों में इस बात का साहस नहीं है कि वो अपने बीच के लोगों की गड़बड़ियों का पर्दाफाश कर सकें । विचारधारा और सिद्धांत की बड़ी बड़ी बातें करने और उसकी दिन रात दुहाई देने से कुछ नहीं होनेवाला है । वो सारी बातें खोखली लगती हैं जब सिद्धांत और विचारधारा को अपने स्वार्थ के लिए ताक पर रख दिया जाता है । इन हालात में लेखकों की साख खराब होती है । पाठकों का उनपर से भरोसा टूटता है । आज जरूरत इस बात की है कि लेखकों को एक ऐसी कमेटी को बनाने पर विचार करना चाहिए जिसमें लेखकों के साथ-साथ प्रकाशकों की भी भागीदारी हो । इस कमेटी का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसकी साख निर्दोष हो, जो विचारधारा की बेड़ियों में ना जकड़ा हो और जिसकी सोच वस्तुनिष्ठ हो । इस कमेटी को साहित्य अकादमी के अंदर स्वायत्ता दी जा सकती है । जिस तरह से न्यूज चैनलों ने स्वनियमन के लिए जस्टिस जे एस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया है जो चैनलों में हो रही गड़बड़ियों पर नजर रखता है और उसका दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्रवाई भी करता है । इस तरह की कमेटी का फायदा यह होगा कि ये लेखकों प्रकाशकों के बीच की शिकायतों का निबटारा करेगा । जो लेखक बेवजह प्रकाशकों को निशाने पर लेते हैं उनकी पहचान कर उनको दंडित करने का मैकेनिज्म बनाएगा । इसी तरह जो प्रकाशक लेखकों को ठगते हैं उनकी भी पहचान की जाएगी और उनपर भी जुर्माना लगाया जा सकेगा ।

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