हिंदी की साहित्यिक पत्रिका पाखी पिछले
करीब दो महीनों से हिंदी जगत में विवादों के केंद्र में है । पहले तो उसने रांची में
रह रहे हिंदी के बुजुर्ग प्रोफेसर और लेखक श्रवण कुमार गोस्वामी का हिंदी की चर्चित
लेखिका महुआ माजी के उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला के बारे में एक विवादास्पद लेख छाप कर
हिंदी जगत में हडकंप मचा दिया । लेखकों के बीच महुआ के पक्ष और विपक्ष की रेखा साफ
तौर पर दिखाई दी । कई लोगों को महुआ में कृतघ्नता का बोध दिखा तो कई लेखकों को इसमें
महिलाओं को लेकर पुरुषों की मानसिकता का प्रतिबिंब दिखा । बहरहाल उस विवाद से एक बार
फिर से अच्छी रचना की कमी झेल रहे हिंदी साहित्य को विवाद के रूप में विमर्श की गरमाहट
मिली । लेखकों ने कम से कम इस मसले पर स्टैंड तो लिया । क्योंकि हाल के दिनों में लेखकों
ने सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करनी बंद कर दी है ।
अब ताजा विवाद पाखी के जनवरी अंक में मशहूर शायर निदा फाजली के पत्र से उठा है । अपने पत्र में निदा फाजली ने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की तुलना मुंबई हमले के गुनहगार और पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब से कर दी है। संपादक के नाम लिखे पत्र में निदा फाजली ने लिखा कि – दूसरी बात जो आपकी संपादकीय में खटकी वह ज्ञानरंजन जैसे साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है । एंग्री यंग मैन को सत्तर के दशक तक कैसे सीमित किया जा सकता है । क्या 74 वर्षीय अन्ना हजारे को भुलाया जा सकता है । मुझे तो लगता है कि सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत है, और फिर अमिताभ को एंग्री यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया ? वे तो केवल अजमल आमिर कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना हैं । एक को हाफिज मुहम्मद सईद ने बनाया था, दूसरे को सलीम जावेद की कलम ने गढ़ा था, खिलौने को फांसी दे दी गई, लेकिन उस खिलौने को बनाने वाले को पाकिस्तान खुलेआम उसकी मौत का नमाज पढ़ने के लिए आजाद छोड़े हुए है । आपने भी खिलौने की प्रशंसा की, लेकिन खिलौना बनाने वाले को सिरे से भुला दिया । ‘किसी का नाम, किसी का काम’ की कहावत शायद इसी लिए गढ़ी गई है ।“ निदा साहब के इस पत्र के बाद साहित्यिक जगत में हलचल मच गई । उनके पक्ष और विपक्ष में लेखकों के बयान आने लगे । बयानों की पड़ताल के पहले हमें निदा फाजली के पत्र का विश्लेषण करना चाहिए । निदा फाजली को इस बात पर आपत्ति है कि कथाकार ज्ञानरंजन को पाखी में एंग्री यंग मैन क्यों बताया गया । दरअसल पिछले साल सितंबर में पाखी ने ज्ञानरंजन पर भारी भरकम विशेषांक निकाला था जिसके संपादकीय में प्रेम भारद्वाज ने लिखा था –ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है । यह आक्रोश उनकी कहानियों के पात्रों में भी दिखाई देता है । इन पंक्तियों के लिखते लिखते सहसा सत्तर दशक के एंग्रीयंगमैन अमिताभ याद आ जाते हैं । कुछ समानताएं और बहुत असमानताएं हैं दोनों दिग्गजों में । फिल्म को हेय मानने वाले कुछ शुद्धतावादियों के लिए यह तुलना असहज लग सकती है । लेकिन किसी चीज को अलग बड़े कैनवास में देखने में बुराई क्या है । मुझे इस तुलना के लिए माफ किया जाए, अगर किया जा सकता है तो । अपने उसी संपादकीय में प्रेम भारद्वाज लिखते हैं कि सुधीश पचौरी ने तो केवल स्टारडम के चलते नामवर सिंह को हिंदी साहित्य का अमिताभ बच्चन तक कह डाला । प्रेम भारद्वाज के इस बात का अंदेशा था कि साहित्य से जुड़े लोग उनकी इस तुलना पर सवाल खड़े कर सकते हैं लिहाजा उन्होंने पहले ही माफी मांग ली थी । लेकिन पाखी संपादक को शायद ही इस बात का इल्म रहा होगा कि साहित्य के अलावा फिल्मों से जुड़ा एक शायर उनकी तुलना पर उंगली उठाते हुए एक भयंकर भूल कर देगा ।
पाखी के इसी संपादकीय पर निदा फाजली को आपत्ति थी और उन्होंने पत्र लिखकर उसे जाहिर किया । लेकिन निदा इतने नाराज हो गए कि उन्हें यह तक याद नहीं रहा कि आमिर अजमल कसाब को भारत पर हमला करने और एक राष्ट्र के खिलाफ युद्ध झेड़ने का दोषी करार देकर उसे फांसी पर लटकाया गया है । एक ऐसे आतंकवादी से अमिताभ बच्चन की तुलना को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है । क्या अमिताभ बच्चन के देशप्रेम और उनकी कला पर कोई शक है । लेकिन जिस तरह से बुजुर्ग शायर निदा ने उनकी तुलना की है उससे ये लगता है कि निदा अमिताभ को अपमानित करना चाहते हैं । निदा ने जो लिखा उससे एक और बात ध्वनित होती है कि अमिताभ कुछ नहीं होते अगर सलीम जावेद नहीं होते तो । निदा के इन तर्कों पर बहस हो सकती है कि अमिताभ की सफलता में सलीम जावेद की कहानियों का कितना योगदान है । लेकिन अगर निदा ये मानते हैं कि सिर्फ कहानियों की वजह से ही अमिताभ बच्चन सदी के महानायक बने तो ये उनकी भूल ही नहीं है बल्कि ऐसा कहकर वो फिल्मों से जुड़े निर्देशकों, अन्य साथी कलाकारों, संगीतकारों के योगदान को भुला रहे हैं । किसी भी फिल्म की सफलता में कई सारे लोगों का सामूहिक योगदान होता है । निदा साहब फिल्मों को बहुत करीब से जानते हैं । बावजूद इसके इस तरह की तुलना करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है । अमिताभ बच्चन ने सलीम जावेद की कहानियों के अलावा भी कई ऐसी फिल्में की जो ना केवल यादगार हैं बल्कि क्लासिक्स की श्रेणी में आती हैं । अपनी सफलता की दूसरी पारी में अमिताभ बच्चन ने ब्लैक और पॉ जैसी सार्वकालिक फिल्में की जो ना केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रही बल्कि उसे सराहना भी मिली । लेकिन इन फिल्मों में रानी मुखर्जी और विद्या बालन के किरदार के बगैर सफलता का आकलन नहीं किया जा सकता है । इसके अलावा पॉ फिल्म में अमिताभ बच्चन के बोलने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया उसके बिना क्या उस किरदार को निभा पाना संभव होता । हां इतना अवश्य है कि फिल्म और अभिनेता दोनों की सफलता में कहानियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।
कहानीकार ज्ञानरंजन की तुलना अमिताभ बच्चन से करने से निदा फाजली इतने खफा हो गए कि गुस्से में अमिताभ की तुलना कसाब से तो की ही लेकिन इसके अलावा सलीम जावेद की तुलना भी पाकिस्तान में बैठे खूंखार आतंकवादी हाफिज सईद से कर डाली । किसी भी व्यक्तित्व की तुलना का एक अलिखित नियम होता है, एक मर्यादा होती है जिसका पालन करने की अपेक्षा सबों से की जाती है । तुलना करने में परंपराओं लोक मान्यताओं का भी ध्यान रखना आवश्यक माना गया है । हमारे आजादी के आंदोलन के दौरान कई आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बेहद उग्र रुख अपनाया हुआ था लेकिन क्या हम उनको आतंकवादी कह सकते हैं ।क्या भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों की तुलना दो हजार एक में भारतीय संसद पर हमला करनेवाले आतंकवादियों से की जा सकती है । कतई नहीं । उसी तरह अमिताभ बच्चन को चाहे निदा फाजली खिलौना माने लेकिन उन्हें उनकी तुलना कसाब से नहीं करनी चाहिए थी । अगर हम देखें तो पहले भी इस तरह की तुलनाएं हुई हैं जिसे साहित्य जगत ने नकार दिया था । इस लेख का अंत मैं मशहूर कथाकार और नाटककार असगर वजाहत के शब्दों में करना चाहूंगा- इस तरह की अभिव्यक्ति हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण है ।
अब ताजा विवाद पाखी के जनवरी अंक में मशहूर शायर निदा फाजली के पत्र से उठा है । अपने पत्र में निदा फाजली ने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की तुलना मुंबई हमले के गुनहगार और पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब से कर दी है। संपादक के नाम लिखे पत्र में निदा फाजली ने लिखा कि – दूसरी बात जो आपकी संपादकीय में खटकी वह ज्ञानरंजन जैसे साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है । एंग्री यंग मैन को सत्तर के दशक तक कैसे सीमित किया जा सकता है । क्या 74 वर्षीय अन्ना हजारे को भुलाया जा सकता है । मुझे तो लगता है कि सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत है, और फिर अमिताभ को एंग्री यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया ? वे तो केवल अजमल आमिर कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना हैं । एक को हाफिज मुहम्मद सईद ने बनाया था, दूसरे को सलीम जावेद की कलम ने गढ़ा था, खिलौने को फांसी दे दी गई, लेकिन उस खिलौने को बनाने वाले को पाकिस्तान खुलेआम उसकी मौत का नमाज पढ़ने के लिए आजाद छोड़े हुए है । आपने भी खिलौने की प्रशंसा की, लेकिन खिलौना बनाने वाले को सिरे से भुला दिया । ‘किसी का नाम, किसी का काम’ की कहावत शायद इसी लिए गढ़ी गई है ।“ निदा साहब के इस पत्र के बाद साहित्यिक जगत में हलचल मच गई । उनके पक्ष और विपक्ष में लेखकों के बयान आने लगे । बयानों की पड़ताल के पहले हमें निदा फाजली के पत्र का विश्लेषण करना चाहिए । निदा फाजली को इस बात पर आपत्ति है कि कथाकार ज्ञानरंजन को पाखी में एंग्री यंग मैन क्यों बताया गया । दरअसल पिछले साल सितंबर में पाखी ने ज्ञानरंजन पर भारी भरकम विशेषांक निकाला था जिसके संपादकीय में प्रेम भारद्वाज ने लिखा था –ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है । यह आक्रोश उनकी कहानियों के पात्रों में भी दिखाई देता है । इन पंक्तियों के लिखते लिखते सहसा सत्तर दशक के एंग्रीयंगमैन अमिताभ याद आ जाते हैं । कुछ समानताएं और बहुत असमानताएं हैं दोनों दिग्गजों में । फिल्म को हेय मानने वाले कुछ शुद्धतावादियों के लिए यह तुलना असहज लग सकती है । लेकिन किसी चीज को अलग बड़े कैनवास में देखने में बुराई क्या है । मुझे इस तुलना के लिए माफ किया जाए, अगर किया जा सकता है तो । अपने उसी संपादकीय में प्रेम भारद्वाज लिखते हैं कि सुधीश पचौरी ने तो केवल स्टारडम के चलते नामवर सिंह को हिंदी साहित्य का अमिताभ बच्चन तक कह डाला । प्रेम भारद्वाज के इस बात का अंदेशा था कि साहित्य से जुड़े लोग उनकी इस तुलना पर सवाल खड़े कर सकते हैं लिहाजा उन्होंने पहले ही माफी मांग ली थी । लेकिन पाखी संपादक को शायद ही इस बात का इल्म रहा होगा कि साहित्य के अलावा फिल्मों से जुड़ा एक शायर उनकी तुलना पर उंगली उठाते हुए एक भयंकर भूल कर देगा ।
पाखी के इसी संपादकीय पर निदा फाजली को आपत्ति थी और उन्होंने पत्र लिखकर उसे जाहिर किया । लेकिन निदा इतने नाराज हो गए कि उन्हें यह तक याद नहीं रहा कि आमिर अजमल कसाब को भारत पर हमला करने और एक राष्ट्र के खिलाफ युद्ध झेड़ने का दोषी करार देकर उसे फांसी पर लटकाया गया है । एक ऐसे आतंकवादी से अमिताभ बच्चन की तुलना को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है । क्या अमिताभ बच्चन के देशप्रेम और उनकी कला पर कोई शक है । लेकिन जिस तरह से बुजुर्ग शायर निदा ने उनकी तुलना की है उससे ये लगता है कि निदा अमिताभ को अपमानित करना चाहते हैं । निदा ने जो लिखा उससे एक और बात ध्वनित होती है कि अमिताभ कुछ नहीं होते अगर सलीम जावेद नहीं होते तो । निदा के इन तर्कों पर बहस हो सकती है कि अमिताभ की सफलता में सलीम जावेद की कहानियों का कितना योगदान है । लेकिन अगर निदा ये मानते हैं कि सिर्फ कहानियों की वजह से ही अमिताभ बच्चन सदी के महानायक बने तो ये उनकी भूल ही नहीं है बल्कि ऐसा कहकर वो फिल्मों से जुड़े निर्देशकों, अन्य साथी कलाकारों, संगीतकारों के योगदान को भुला रहे हैं । किसी भी फिल्म की सफलता में कई सारे लोगों का सामूहिक योगदान होता है । निदा साहब फिल्मों को बहुत करीब से जानते हैं । बावजूद इसके इस तरह की तुलना करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है । अमिताभ बच्चन ने सलीम जावेद की कहानियों के अलावा भी कई ऐसी फिल्में की जो ना केवल यादगार हैं बल्कि क्लासिक्स की श्रेणी में आती हैं । अपनी सफलता की दूसरी पारी में अमिताभ बच्चन ने ब्लैक और पॉ जैसी सार्वकालिक फिल्में की जो ना केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रही बल्कि उसे सराहना भी मिली । लेकिन इन फिल्मों में रानी मुखर्जी और विद्या बालन के किरदार के बगैर सफलता का आकलन नहीं किया जा सकता है । इसके अलावा पॉ फिल्म में अमिताभ बच्चन के बोलने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया उसके बिना क्या उस किरदार को निभा पाना संभव होता । हां इतना अवश्य है कि फिल्म और अभिनेता दोनों की सफलता में कहानियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।
कहानीकार ज्ञानरंजन की तुलना अमिताभ बच्चन से करने से निदा फाजली इतने खफा हो गए कि गुस्से में अमिताभ की तुलना कसाब से तो की ही लेकिन इसके अलावा सलीम जावेद की तुलना भी पाकिस्तान में बैठे खूंखार आतंकवादी हाफिज सईद से कर डाली । किसी भी व्यक्तित्व की तुलना का एक अलिखित नियम होता है, एक मर्यादा होती है जिसका पालन करने की अपेक्षा सबों से की जाती है । तुलना करने में परंपराओं लोक मान्यताओं का भी ध्यान रखना आवश्यक माना गया है । हमारे आजादी के आंदोलन के दौरान कई आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बेहद उग्र रुख अपनाया हुआ था लेकिन क्या हम उनको आतंकवादी कह सकते हैं ।क्या भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों की तुलना दो हजार एक में भारतीय संसद पर हमला करनेवाले आतंकवादियों से की जा सकती है । कतई नहीं । उसी तरह अमिताभ बच्चन को चाहे निदा फाजली खिलौना माने लेकिन उन्हें उनकी तुलना कसाब से नहीं करनी चाहिए थी । अगर हम देखें तो पहले भी इस तरह की तुलनाएं हुई हैं जिसे साहित्य जगत ने नकार दिया था । इस लेख का अंत मैं मशहूर कथाकार और नाटककार असगर वजाहत के शब्दों में करना चाहूंगा- इस तरह की अभिव्यक्ति हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण है ।
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निदा साहब ने इतनी निम्नतम तुलना की और महाकवि,संत क्रांतिकारी कबीर को अपने छंदों और शायरी में जीवंत करने वाले निदा फाजली। हिन्दुस्तानी शायरी की पहचान ..निदा फाजली ऐसा कर सकते हैं ,यकीं ही नहीं होता। मुमकिन हैं वे जीवन भर सलीम खान साहब ,जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन साहब से चिड़ते -कुड़ते रहो हो।इन लेखको और कलाकार के लिए उनके मन में कभी सम्मान रहा ही नहीं हो।और अब उनकी दमित इक्षाओं का ऐसा विस्फोट-महा-विस्फोट। संभवतः अपनी दमित इक्षाओं की प्रतिक्रिया में वे देशप्रेम ,कला -संस्कृति और देशद्रोह का फर्क भूल बैठे।।वे भूल बैठे कला-साहित्य -सिनेमा-समाज -संस्कृति की विरासत , वे कर बैठे समाज शास्त्रीय डांचे की अवहेलना केवल केवल अपनी रुग्ण दमित इक्षाओं की खातिर। दहशत-गर्दी का वो प्रतिनिधि ,मुंबई हमलो का व्यवथापक ,जिसे आप मात्र खिलोना कहते हैं -निदा साहब -खिलोना बना ही क्यों यह जान पाने के लिए आपको अपसामान्य और समाज मनोविज्ञान का अध्धयन -चिंतन और अनुपालन करना होगा। अगर अगर निदा साहब आप ऐसा ही सोचते हैं तो अमिताभ बच्चन को गदा गया हैं।और आपके लिए वो कलाकार के तौर और घ्रणित हैं तो आपका दाइत्व 40 साल से यह हैं आप किसी और खिलोने को गड़ दे -जिससे हिन्दुस्तान ऐसी ही बेपनाह मोहबात करे- हां हम आपके गड़े हुए खिलोने का ऐसा घिनोना मजाक कभी न बनायेगे।
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