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Saturday, January 5, 2013

अकादमी के लिए मंथन का वक्त


अभी हाल में कोलकाता में आयोजित साइंस कांग्रेस के अधिवेशन में देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वो विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार जीतने के लिए काम करें । प्रधानमंत्री के उस बयान को देश के वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती और उत्साहवर्धन दोनों के तौर पर देखा जा रहा है । लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि सृजनात्मक लेखन के लिए भारत के लेखकों को नोबेल पुरस्कार के लिए ना तो कोई चुनौती देता है और ना ही उत्साहवर्धन करता है । गाहे बगाहे ये खबर छपती हैं कि साहित्य अकादमी ने अमुक साहित्यकार का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया है । साहित्य अकादमी से निकलनेवाली उस खबर को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि अमुक साहित्यकार नोबेल पुरस्कार की रेस में है । लेकिन वो प्रचार वास्तविकता से कोसों कूर होती है । दरअसल नोबेल पुरस्कार के लिए कोई भी संगठन किसी का भी नाम प्रस्तावित कर सकता है । ठीक उसी तरह से जैसे भारत में पद्म पुरस्कारों के लिए कोई भी किसी का नाम प्रस्तावित कर सकता है ।
सवाल नोबेल पुरस्कार का नहीं है । यहां सवाल यह है कि भारत के, खासकर हिंदी के, लेखकों को अंतराष्ट्रीय पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए हम कितना प्रयास कर रहे हैं । क्या हमारे लेखक, प्रकाशक, साहित्य अकादमी और राज्यों की अकादमियां इस दिशा में शिद्दत से प्रयास कर रही हैं । अगर हम इस सवाल का जवाब ढूंढने निकलते हैं तो हमें पूरे परिदृष्य में घुप्प अंधेरा नजर आता है । लेखक और प्रकाशक तो अपने तईं कोशिश करते हैं लेकिन जिस तरह से साहित्य अकादमी पर भारतीय भाषाओं के रचनात्मक लेखन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी थी उसमें अकादमी बुरी तरह से विफल रही है । 12 मार्च 1954 को जब संसद के सेंट्रल हॉल में साहित्य अकादमी का उद्धघाटन हुआ था तो उस वक्त के उपराष्ट्रपति और विद्वान चिंतक एस राधाकृष्णन ने कहा था कि -साहित्य अकादमी ऐसे लोगों का समूह है जो सृजनात्मक और आलोचनात्नक लेखन में रुचि रखते हैं । उन्होंने आगे कहा था कि साहित्य अकादमी का उद्देश्य है कि वो सृजनात्मक लेखकों की पहचान करें और उन्हें प्रोत्साहित करे । इसके अलावा साहित्य अकादमी के अन्य उद्देश्यों में उन्होंने सृजनात्मक लेखन को बढ़ावा देने के कामों पर भी जोर दिया था । लेकिन लगभग अट्ठावन साल बाद यह सवाल जोरदजार तरीके से उठाया जाना चाहिए कि साहित्य अकादमी ने सृजनात्मक लेखन की पहचान करने और उसे आग बढ़ाने के लिए क्या किया । दरअसल साहित्य अकादमी में नब्बे के दशक के आखिरी सालों में राजनीति बुरी तरह से हावी हो गई । लेखकों के बीच की राजनीति का असर यह हुआ कि धीरे धीरे   साहित्य अकादमी सृजनात्मक लेखकों से दूर होकर विश्वविद्लाय के शिक्षकों के शिकंजे में चली गई । भारत के उन विश्वविद्लायों के शिक्षकों के कब्जे में जिन्हें राजेन्द्र यादव सृजनात्मक लेखन की कब्रगाह कहते हैं । साहित्य अकादमी के अपने उद्देश्यों के भटक जाने से सृजनात्मक लेखन का बड़ा नुकसान हुआ । साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों पर नजर डालें तो पाते हैं कि लेखकों से मिलिए जैसे कार्यक्रमों के अलावा कोई खास कार्यक्रम नहीं होते । पर्दे के पीछे और कागजों पर अगर होते होंगे तो वो जनता को ज्ञात नहीं हैं ।
दरअसल अगर हम साहित्य अकादमी की सामान्य परिषद के सदस्यों पर नजर डालेंगे तो तस्वीर आईने की तरह से साफ हो जाएगी । साहित्य अकादमी का जब गठन हुआ था तो उसके सामान्य सभा के सदस्यों में एस राधाकृष्णन, अबुल कलाम अजाद, सी राजगोपालाचारी, के एम पाणिक्कर, ए एम मुंशी, वी एन मेनन, जाकिर हुसैन, हुमांयू कबीर, सुनीति कुमार चटर्जी, उमाशंकर जोशी, जैनेन्द्र कुमार, नीलमणि फूकन, हजारी प्रसाद द्विववेदी, एम वी आयंगर, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे उदभट विव्दान थे जो खुद भी बेहतरीन सृजनात्मक लेखन कर रहे थे । लेकिन कोई भी व्यक्ति साहित्य अकादमी की बेवसाइट पर जाकर वर्तमान सदस्यों की सूची देख सकता है । स्तरीयता और स्तरहीनता का पता खुद चल जाएगा । सृजनात्मक लेखन करनेवाले वहां बहुत कम हैं । साहित्य अकादमी की कार्यशैली एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी बाद में विस्तार से चर्चा होगी लेकिन सवाल यगह उठता है कि मीडियॉकर लोगों से क्या हम ये अपेक्षा कर सकते हैं कि वो देश की सृजनात्मक प्रतिभा को नोबेल पुरस्कार दिलवाने जैसी योजना पर काम कर पाएंगे, उसके लिए कोई रणनीति बना पाएंगे । जबाव ना में ही मिलेगा । राज्यों की अकादमियों का हाल तो और भी बुरा है । राज्यों की भाषा और साहित्य की अकादमियां वहां की सरकारों के लिए प्रचार प्रसार के काम में जुड़ी हैं ।
अब बचते हैं प्रकाशक जिनसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश में सृजनात्मक लेखकीय प्रतिभा को सामने लाने का काम करेंगे । हाल के दिनों में हिंदी के कम से कम तीन प्रकाशकों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया है जो संतोष देने के लिए तो काफी है । वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन और प्रभात प्रकाशन ने हिंदी के लेखकों की किताबों को अंग्रेजी में छापना शुरू कर दिया है । इससे एक फायदा तो यह होगा कि हिंदी के लेखकों की कृतियां उस भाषा में उपलब्ध होंगी जो पूरे विश्व में एक संपर्क भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है । अभी हाल में वाणी प्रकाशन से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कृति कुरुक्षेत्र का अंग्रेजी में अनुवाद छपा है द बैटल रॉयल इस काम को अंजाम दिया है डॉक्टर सचिकांत और डॉक्टर रमन पी सिंह ने । अब अगर हम देखें तो दिनकर का ये प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र आज से तकरीबन छियासठ साल पहले 1946 में प्रकाशित हुआ था लेकिन उसके अनुवाद का काम छह दशक बाद हुआ । जिस वक्त दिनकर जी इस काव्य की रचना कर रहे थे वह वक्त युद्ध और उसके बाद की शांति का था । उनके काव्य में युद्ध और शांति समान रूप से चलते जाते हैं । उसमें वो अपने समय से पहले की बात भी करते हैं और उसे सार्वजनिक भी करते चलते हैं । दिनकर या यह प्रबंध काव्य अगर उस वक्त या बाद के दस बीस वर्षों में भी अंग्रेजी में अनुदित होकर दुनिया के पाठकों के बीच जाता तो विश्व के उस वक्त के माहौल में उक्त कृति का मूल्यांकन होता लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका । ऐसा नहीं है कि सिर्फ रामधारी सिंह दिनकर ही बेहतरीन कवि हैं, हिंदी में कई ऐसे कवि हुए हैं जिनकी कृतियां नोबेल पुरस्कार के योग्य हैं । क्या अज्ञेय और निर्मल वर्मा की कृतियां ओरहन पामुक या फिर फ्रेडरिक येलेनिक से कमजोर हैं । कतई नहीं । यहां सवाल यह है कि जिस तरह से ओरहन पामुक की कृतियां अग्रेजी समेत विश्व की अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुई उससे उन कृतियों को एक विशाल पाठक वर्ग मिला और उसकी चर्चा कई देशों के अखबारों में हुई । नतीजा यह हुआ कि उनकी कृतियों के पक्ष में एक माहौल बना जो बाद में उनके नोबेल पुरस्कार का आधार बना । लेकिन हमारे यहां जिनके कंधों पर साहित्यक कृतियों के प्रचार प्रसार और पाठकों के बीच पहुंचाने की जिम्मेदारी है वो बेहद छोटे कामों में उलझे हैं । मैं कई ऐसे लेखकों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं जिन्होंने साहित्य अकादमी को अहम पुस्तकों का अनुवाद कर दे दिया लेकिन पांच छह वर्षों बाद भी वहां यह बतानेवाला कोई नहीं है कि उन पुस्तकों का प्रकाशन कब होगा । दरअसल यहां भी एक भयंकर भूल है कि साहित्य अकादमी खुद से किताबों का प्रकाशन करेगा । यह काम प्रकाशकों के जिम्मे छोड़ देना चाहिए । होना यह चाहिए कि अकादमी पुस्तकों का अनुवाद करवाए और प्रकाशकों पर उसे छापने की जिम्मेदारी दे । अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी अपने क्रियाकलापों को बदले और उसका जो मूल उद्देश्य था उसके लिए काम करे और छोटे छोटे कामों में ना उलझे ।
इसके अलावा हिंदी के प्रकाशकों को अपनी भाषा के क्लासिक्स को ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी में अनुवाद करवाना चाहिए और अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेलों में भागीदारी के दौरान उसको शोकेस करना चाहिए । इसमें लेखक की तो प्रतिष्ठा बढे़गी ही, नया पाछक वर्ग भी मिलेगा।  लेकिन अगर हमारे किसी लेखक को कोई अंतराष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया तो किताब की भी जबरदस्त बिक्री होगी और अंतत: उनका लाभ प्रकाशकों को ही होगा । पश्चिम में इस तरह की प्रवृत्ति है आम है कि वहां पुरस्कृत कृतियों को पाठक हाथों हाथ लेते हैं । और कारोबार के नजरिए से भी इस तरह के काम करना प्रकाशकों के लिए फायदे का सौदा रहेगा । भारतीय लेखकों को अंतराष्ट्रीय मंच पर पहुंचाने में जहां साहित्य अकादमी विफल रही है वहां से प्रकाशकों की जिम्मेदारी शुरू होती है ।

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