साहित्यक पत्रिका सामयिक सरस्वती के ताजा अंक में कथाकार और पेंटर
प्रभु जोशी और कहानीकार भालचंद्र जोशी के बीच का एक विवाद प्रकाशित हुआ है । इस
विवाद को लेकर संपादक की एक टिप्पणी है- ‘साहित्य में विवाद का पुराना रिश्ता
है । समय समय पर साहित्य की दुनिया में लेखकों के लिखे पर विवाद होता रहते हैं । कुछ
वर्ष पुरानी बात है जब मैत्रेयी पुष्पा को लेकर ये हवा गरम रहती थी कि उनके लिए राजेन्द्र
यादव और उनकी एक पूरी टीम लिखती है । फिर ये विवाद महुआ माजी को लेकर विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना । ...तो कथाकार जयश्री रॉय के लेखन पर भी इस
विवाद के छींटे आयी। इधर ताजा विवाद प्रभु जोशी के ऑडियो ने फैलाया है, जिसमें वो
कथाकार भालचंद्र जोशी पर अपनी बात कहते हैं । हमने उनके ऑडियो को ज्यों का त्यों
प्रस्तुत करने की कोशिश की है । साथ ही इस विषय पर भालचंद्र जोशी का मत भी
प्रकाशित कर रहे हैं । हमारा मानना है कि साहित्य में इस तरह के विवादों से
साहित्य को ही नुकसान होता है । इस विवाद पर पाठकों की प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित
है ।‘ जोशी बनाम जोशी
विवाद पर थोड़ा ठहरकर आते हैं लेकिन पहले सामयिक सरस्वती के संपादक की टिप्पणी पर
विवात कर लेते हैं । संपादक का मानना है कि इस तरह के विवादों से साहित्य का
नुकसान होता है लेकिन अगली ही पंक्ति में वो पाठकों से प्रतिक्रिया मांग रहे हैं ।
संभव है वो अपने मत पर पाठकों की स्वीकृति चाहते हों लेकिन अगर संपादक का मानना है
कि इस तरह के विवादों से साहित्य का नुकसान होता है तो उसको अपनी प्रतिष्ठित
पत्रिका में इतना जगह देना क्या उचित है । यह तो वैसी ही प्रवृत्ति है जो इन दिनों
न्यूज चैनलों में खासतौर पर दिखाई देने लगी है । बहुधा विवादित वीडियो पर ये लिखा
होता है कि – चैनल इस वीडियो की प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं करता है लेकिन उस
वीडियो को दिनभर बार-बार दिखाया जाता है । अगर विवाद साहित्य के लिए नुकसानदायक
हैं तो उसको हवा देने की क्या आवश्यकता और अगर वीडियो के प्रामाणिकता की पुष्टि
नहीं कर सकते हैं तो उसको लगातार दिखाने की क्या मजबूरी ? इसके पीछे की वजह
क्या है इस बारे में फैसला लेने का अधिकार पाठकों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए ।
अब आते हैं जोशी बनाम जोशी विवाद पर । दरअसल पिछले दिनों इंदौर में
एक साहित्यक जलसे में कथाकार और चित्रकार प्रभु जोशी के दिए भाषण का एक ऑडियो साहित्यप्रेमियों
के बीच व्हाट्सएप पर जमकर साझा किया गया । इस ऑडियो में प्रभु जोशी अपनी दमदार
आवाज में भालचंद्र जोशी के लेखन को लेकर आक्रामक नजर आ रहे थे । लेकिन ऑडियो और
उसकी सत्यता की प्रामाणिकता हमेशा से संदिग्ध रही है लिहाजा साहित्य जगत में आपसी
बातचीत में तो प्रभु जोशी के इस कथित ऑडियो को लेकर खूब चर्चा हुई लेकिन कहीं इसके
बारे में ना तो लिखा गया और ना ही छापा गया । अब सामयिक सरस्वती ने प्रभु जोशी के
उस ऑडियो का लिप्यांतरण कर छाप दिया है और साथ में भालचंद्र जोशी की लंबी सफाई भी
छापी गई है । प्रभु जोशी ने अपने भाषण में दावा किया है कि जबतक भालचंद्र जोशी
उनके साथ रहे तबतक उनकी कहानियों का पुनर्लेखन करते रहे । अपने दावों के समर्थन
में वो अपने बेटे का उदाहरण देते हुए कहते हैं - ‘मेरा बेटा कभी-कभी फोन करता और
बाइचांस ये ( भालचंद्र जोशी) होते तो उठा लेता था तो वो चिढ़ता था कि ये
आदमी..क्या फिर आपसे कहानी लिखवाने आ गया है । आप अपनी भाषा का क्लोन पैदा करना
चाहते हो क्या पापा ? जिस दिन आप लिखना शुरू करोगे तोलोग
समझेंगे कि भालचंद्र जोशी की नकल कर रहा है ।‘ प्रभु जोशी ने अपने भाषण में ये साबित
करने के लिए कि वो भालचंद्र की कहानियों का पुनर्लेखन करते हैं, अपनी पत्नी से हुई
बातचीत से लेकर बेटे को लिखे पत्रों का हवाला देते हैं । वो कई साहित्यकारों से हुई
बातचीत का हवाला भी देते हैं और भालचंद्र को मूर्ख साबित करने की कोशिश करते हुए
ये सलाह भी देते हैं कि वो खोखला जीवन जीना बंद करे ।
इसके अलावा प्रभु जोशी ने भालचंद्र पर किए एहसानों की सूची भी
गिनाई । लेकिन बात सिर्फ इतनी सी प्रतीत होती है कि प्रभु जोशी को ये अब लगता है
कि उन्होंने भालचंद्र जोशी के लिए कहानियां लिखकर गलती कर दी । भालचंद्र उनसे
ज्यादा मशहूर हो गया । लेकिन प्रभु जोशी ने जिस तरह से दूसरे साहित्यकारों का नाम
लिया है उससे उनकी भी कुंठा उजागर होती है । जैसे एक जगह वो आलोचक रोहिणी अग्रवाल
को रोहिणी-वोहिणी अग्रवाल कहते हैं । क्या इस तरह से साथी रचनाकारों का नाम लेनास
वो भी सार्वजनिक मंच पर, मर्यादित व्यवहार है? इससे पता चलता है कि प्रभु जोशी के अंदर
भालचंद्र को लेकर कोई ग्रंथि है जिसकी वजह से वो ऐसी हल्की और अमर्यादित बातें
करते हैं । अगर कुछ देर के लिए ये मान भी लिया जाए कि प्रभु जोशी उनकी कहानियों का
क्लाइमेक्स बदल देते हैं या फिर कुछ बदलाव का सुझाव देते हैं तो इसमें गलत क्या है
। हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने जाने कितने कहानीकारों की कहानियों का अंत
बदलवाया होगा, कितनी कहानियों के पात्रों के चरित्र को बदलवाया होगा तो क्या ये
मान लिया जाए कि सबके लिए यादव जी ही लिखते थे । साथी रचनाकार एक दूसरे से अपनी रचनाएँ
साझा करते हैं और उसपर सुझाव आदि भी मांगते और उसपर अमल करते हैं । इसमें बुराई
क्या है ।
भालचंद्र जोशी ने अपनी सफाई में भी ये माना है कि प्रभु जोशी ने
उनकी कुछ कहानियों में बदलाव के सुझाव दिए
थे जो उन्होंने मान लिए थे । अपनी सफाई में भालचंद्र ने भी मर्यादा की सारी
हदें पार कर दी हैं । उनकी टिप्पणियों पर गौर करें- ‘शहर के इस असफल और
भारत भवन के पेंटरों की भाषा में प्राथमिक स्कूल के बच्चोंनुमा पेंटिंग करनेवाले
पेंटर और एक चुके हुए लेखक दोनों ने अपनेसभी क्षेत्रों की असफलता और कुंठा की
भड़ास मुझ पर निकाली और इस कुंठा, भड़ास और ईर्ष्या से लिपटी भाषा से निर्मित खुद
की स्तरहीन छवि से उपस्थित श्रोताओं को हतप्रभ कर दिया।‘ इसके अलावा अपने
लेख में भालचंद्र जोशी ने प्रभु जोशी पर अंधविश्वासी होने का आरोप भी लगाया ।
उन्होंने कई प्रसंगों को उद्धृत कर प्रभु जोशी के दोहरे चरित्र को उजागर करने का
उपक्रम भी किया है । परंतु लगभग हप विवाद की तरह इस विवाद की नींव भी पांच लाख
रुपय़ों को लेकर पड़ी प्रतीत होती है जब प्रभु जोशी के लिए भालचंद्र जोशी ने जुटाए
थे । खैर ये व्यक्तिगत मसले हैं और उनको साहित्यक विवाद की आड़ देना उचित नहीं है
। दरअसल इन दिनों हिंदी में साहित्यक विवादों की जगह व्यक्तिगत राग-द्वेष ने ले ली
है ।
जोशी बनाम जोशी विवाद के अलावा जिस तरह से कवयित्री गगन गिल को
लेकर फेसबुक पर विवाद उठा वो भी बिल्कुल अवांछित था । जिस तरह से गगन गिल के विवाद
में फेसबुक पर लेखक बंटे नजर आए वो भी चिंतनीय है । गगन गिल विवादों से दूर रहती
हैं और निर्मल वर्मा की मृत्यु के बाद साहित्यक समारोहों आदि में भी कम ही नजर आती
हैं । उन्होंने खुद को समेट लिया है तो ऐसे माहौल में उनपर कीचड़ उछालना गलत है । जिस
तरह से कुछ लेखकों ने अपनी साथी लेखिकाओं को लेकर टिप्पणियां की वो उनकी मानसिकता
को उघाड़ने वाली हैं । हमारा तो मानना है कि लेखिकाओं पर टिप्पणी करनेवाले लेखक अपने
गिरेबां में झांक कर देखना चाहिए । दरअसल हिंदी साहित्य में इन दिनों विवादों का
स्तर बहुत गिर गया है । हिंदी के पाठकों को याद होगा कि मई दो हजार एक में
साहित्यक पत्रिका वर्तमान साहित्य में उपेन्द्र कुमार की एक कहानी- झूठ कीमूठ छपी
थी । उस कहानी में तलवार को रूपक के रूप में उठाकर महानगर दिल्ली के बजबजाते हुए
समकालीन साहित्यक परिदृश्य को उभारने की कोशिश की गई थी । उस व्यंग्यात्मक रचना की
सफलता इस बात में थी कि वो कहानी सपाटे से हिंदी साहित्यकारों के चरित्र, व्यवहार
और लेखन को गहराईमें उजागर ही नहीं करती, साहित्य की राजनीति से भी परिचित कराती
हुई सीधे मर्म पर चोट करती है । उस वक्त हिंदी के कुछ साहित्यकारों ने तलवार के
प्रतीक को जातीय दंभ से जोड़कर देखा था लेकिन उसपर हुई चर्चा में एक साहित्यक
मर्यादा कायम रही थी । कई अखबारों ने उस कहानी पर पूरे पृष्ठ की परिचर्चा करवाई थी
परंतु कहीं भी लक्ष्मण रेखा नहॆं लांघी गई थी । कुछ ऐसा ही हुआ था जब राजेन्द्र
यादव ने होना सोना लिखा था । जमकर बहसे हुईं, तर्क वितर्क हुए लेकिन तब भी कुतर्क
को कोई स्थान नहीं मिला था । जबकि अब तो विवादों में कुतर्क ही केंद्र में है और
बाकी सबकुछ परिधि के बाहर ।
1 comment:
बहुत सही और विचारणीय ..
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