पीईएन इंटरनेशनल, कवियों, लेखकों और उपन्यासकारों की एक वैश्विक
संस्था, जिसका दावा है कि वो पूरी दुनिया में साहित्य और अभिव्यक्ति की आजादी के
लिए काम करती है । उन्नीस सौ इक्कीस में स्थापित इस संस्था का ये भी दावा है कि भारत
समेत पूरी दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में इसकी शाखाएं काम कर रही हैं । पेन
इंटरनेशनल के नाम से मशहूर इस संस्था ने अभी अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की है – इमपोजिंग
साइलेंस, द यूज ऑफ इंडियाज लॉज टू सप्रेस फ्री स्पीच । पेन कनाडा, पेन इंडिया और
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरेंटो के फैकल्टी ऑफ लॉ ने संयुक्त रूप से इस अध्ययन को अंजाम
दिया है । हाल ही में इसका प्रकाशन हुआ है जिसमें कई बातें इस तरह से पेश की गई
हैं जैसे लगता है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर स्थिति बेहद विकट
है । इस रिपोर्ट के अपने आधार हैं लेकिन रिपोर्ट की शुरुआती पंक्ति से ही शोधकर्ताओं
के मंसूबे साफ दिखते हैं । शोध के नतीजे की पहली लाइन है – भारत में इन दिनों
असहमत होनेवालों को खामोश कर देना बहुत आसान है । इसी रिपोर्ट में लिखा है कि
दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ये स्थिति बेहद शर्मनाक है । अपनी इस रिपोर्ट
में कई उदाहरण दिए गए हैं और कुछ भारतीय लेखकों ने भी अपनी राय रखी है । रिपोर्ट
के मुताबिक भारत में धर्म पर लिखना मुश्किल होता जा रहा है । इस संबध में वेंडी
जोनिगर की किताब द हिंदूज, एम अल्टरनेटिव हिस्ट्री का उदाहरण दिया गया है । यह ठीक
है कि वेंडी डोनिगर की किताब को लेकर एक संगठन ने प्रकाशक को कानूनी नोटिस आदि
दिया था । लेकिन बात आगे बढ़ती इसके पहले ही पेंग्विन ने इस किताब को बाजार से
वापस बुला लिया और आगे नहीं छापने का एलन कर दिया । अब अगर हम इस पूरे वाकए को
यहीं तक देखेंगे तो यह लगेगा कि एक संगठन ने एक लेखक की अभिव्यक्ति की आजादी के
अधिकार का हरण कर लिया । संगठन की कानूनी प्रक्रिया की धमकी की वजह से वेंडी
दोनिगर की किताब पाठकों तक पहुंचने से रुक गई । अब जरा इसके बाद की कहानी सुनिए।
पेंग्विन के वेंडी डोनिगर की किताब छापने से मना करने के बाद देशभर में इसपर बहस
हुई और तमाम लोगों ने इसके पक्ष विपक्ष में लिखा । उसके बाद एक अन्य प्रकाशक ने वेंडी
डोनिगर की इस किताब का प्रकाशन किया और ये अब भी खुले बाजार में बिक रही है लेकिन
पीईएन के शोधकर्ताओं को अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भारत के कानून में खामी दिखाई
देती है लेकिन ये नहीं दिखाई देता है कि वेंडी डोनिगर की किताब पर किसी तरह की कोई
रोक काम नहीं कर पाई । अब अगर लोकतंत्र में किसी संविधान ने अपने नागरिकों को कोई
हक दे रखा है तो वो उसका इस्तेमाल करने के लिए आजाद है । यह अदालत के विवेक पर
निर्भर करता है कि वो देखे कि एक नागरिक के या एक संगठन की आपत्तियों में तिततना
दम है । और भारत की अदालतों ने वक्त वक्त पर इसको साबित भी किया है । जैसे पेरुमल मुरुगन
के मामले में मद्रास हाईकोर्ट से जो फैसला आया वो लेखक को पुर्नजीवन देनेवाला था ।
हाईकोर्ट के उस फैसले पर आपत्तियां हो सकती हैं, हुई भी लेकिन कमोबेश उस फैसले ने
वन पार्ट वूमन के प्रकाशन और वितरण में आ रही तमाम बाधाओं को दूर कर दिया । पेरुमल
मुरुगन के मामले को इस रिपोर्ट में प्रमुखता मिली है । यह सही है कि पेरुमल मुरुगन
को अपने उपन्यास की वजह से काफी झेलना पड़ा लेकिन अतत; जीत उनकी ही हुई और
उनके सभी अधिकार प्रतिष्ठापूर्व बहाल कर दिए गए । लेकिन आप देखें कि पेरुमल मुरुगन
एक मामला है लेकिन लेखकों ने उसी तरह के मुद्दे पर विपुल लेखन भी किया । जैसे
मराठी लेखक भालचंद्रन नेमाडे की किताब हिंदू, जीने का समृद्ध कबाड़ प्रकाशित होकर
धड़ल्ले से बाजार में बिक रहा है । इसमें कितनी आपत्तिजनक बातें हैं इसका अंदाज
शायद पेन इंटरनेशनल के शोधकर्ताओं को नहीं होगा लेकिन फिर भी ये किताब बाजार में मौजूद
है । ये भारतीय संविधान की ताकत है ।
साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए काम करनेवाली लेखकों और कलाकरों
की इस अंतराष्ट्रीय संस्था ने भारत में आमिर खान की फिल्म पी के लोकर विरोध को भी
अपने तर्कों के पक्ष में इस्तेमाल किया गया है । भारत जैसे विशाल देश में अगर
छिटपुट विरोध होता भी है तो इससे पूरी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना कितना उचित
है। रिपोर्ट में प्रकाशित लेखों में फिल्मों को लेकर सेंसर बोर्ड के रुख पर भी
आपत्ति जताई गई है । सवाल यही है कि क्या शोधकर्ताओं को भारत की विशालता और
बहुलतावादी संस्कृति का अंदाजा नहीं है । पी के फिल्म का चंद लोगों का विरोध और यो
यो हनीसिंह पर एक शख्स के नागपुर में केस कर देने जैसे उदाहरणों से अगर अभिव्यक्ति
की आजादी का आंकलन किया जाएगा तो पीईएऩ जैसी संस्था की साख पर सवाल खड़ा होगा ।
भारत जैसे विशाल देश के बारे में साहित्य, कला और संस्कृति के
बरक्श अभिव्यक्ति की आजादी को परखने के लिए शोधकर्ताओं को बाहर निकलना होगा । फाइव
स्टार लेखक और पत्रकारों के लेखों के आधार पर बनाई गई रिपोर्ट से सच्ची तस्वीर
नहीं उभर सकती है । इस रिपोर्ट को साहित्य और कला तक ही सीमित रखा जाना चाहिए था
लेकिन ग्रीन पीस इंटरनेशनल पर पाबंदी को भी इसमें शामिल करके शोधकर्ताओं ने खुद ही
इसकी विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में ला दिया । इस बात पर बहस हो सकती है कि
भारत में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो लेखकों और कलाकारों को डराने का काम करते हैं
लेकिन उनकी संख्या लगभग नगण्य है । कर्नाटक के कालबुर्गी की हत्या के मामले पर
इतना शोर शराबा हुआ लेकिन अब जब जांच पने मुकाम तक पहुंच रही है तो उसको लेकर कोई
विमर्श क्यों नहीं हो रहा है । यह एक खास किस्म की मानसिकता है जो भारत जैसे विशाल
लोकतांत्रिक देश को इस तरह के अनर्गल आरोपों के आधार पर बदनाम करने की कोशिश की
जाती है । भारत में साहित्य सृजन का जो वातावरण है वो विश्व के कई देशों के
मुकाबले बेहतर है । पीईएन की इस रिपोर्ट की खामियों पर विस्तार से बहस होनी चाहिए
ताकि कोई भी कुछ भी कहकर निकलने नहीं पाए
2 comments:
बहुत अच्छा
बहुत अच्छा
Post a Comment