अभी पिछले दिनों युवा पत्रकार- लेखक यासिर उस्मान की किताब फिल्म
अभिनेत्री रेखा पर प्रकाशित हुई है । किताब का नाम है – रेखा, द अनटोल्ड स्टोरी । इस
किताब के बाजार में आने के पूर्व ही खूब हलचल शुरू हो गई थी । तमाम अंग्रेजी के
अखबारों और पत्रिकाओं ने इस किताब के अंश और लेखक के इंटरव्यू आदि छापने शुरू कर
दिए । सोशल साइट्स पर भी इसको लेकर चर्चा रही। देखते-देखते इस किताब के पक्ष में
उत्सकुता का बड़ा माहौल बन गया । उत्सुकता के इस माहौल ने किताब की मांग बढ़ा दी और
प्रकाशन के चंद दिनों के बाद ही यासिर की किताब का पहला संस्करण बिक गया ।
अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब को लेकर अंग्रेजी के अखबारों में कितना उत्साह था
यह कवरेज में दिखाई दे रहा था । वरेज को देखकर मन में यह सवाल भी घुमड़ रहा था कि हिंदी
के अखबारों में किसी हिंदी के किताब को लेकर इतनी उत्सकुकता क्यों नहीं दिखाई देती
है । याद नहीं पड़ता कि किसी हिंदी लेखक की किताब प्रकाशित होते ही किसी भी
राष्ट्रीय अखबार में आधे पन्ने का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ हो । खैर -रेखा द अनटोल्ड
स्टोरी को मिली कवरेज या उसकी विषय वस्तु पर चर्चा करना अवांतर है । इस विषय पर
फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
हाल के दिनों में अंग्रेजी में उन चुनिंदा फिल्मी अभिनेत्रियों पर
किताबें आईं जिनके जीवन के बारे में जानने की पाठकों के अंदर प्रबल इच्छा दिखाई
देती रही है । पाठकों की इस इच्छा का प्रकटीकरण इन अभिनेत्रियों को लेकर उठे किसी
प्रसंग के दौरान पाठकों की ललक से लगता रहा है । रेखा इन अभिनेत्रियों में से एक
है जिनका जीवन एक तिलस्म की तरह रहा है और उनके जीवन से जुड़ी कई किवदंतियां सुनाई
देती रही हैं । अमिताभ से उनके संबंध से लेकर उद्योगपति मुकेश अग्रवाल की शादी और
फिर अग्रवाल की खुदकुशी जैसी घटनाएं रेखा के जीवन में पाठकों को झांकने के लिए
उकसाती रही हैं । यासिर की किताब में इस तरह के प्रसंगों की भरमार है ।
एक अन्य अभिनेत्री हैं स्मिता पाटिल । भारतीय फिल्म इतिहास में स्मिता
पाटिल सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली और संवेदनशील अभिनेत्रियों में से शीर्ष पर हैं । जब
मैथिली राव ने उनपर किताब लिखी तो पाठकों
के मन में स्वाभाविक तौर पर ये जानने की इच्छा हुई थी कि वो कौन सी परिस्थितियां
थी जिनमें स्मिता पाटिल ने अपने से उम्र में काफी बड़े और शादीशुदा अभिनेता राज
बब्बर से शादी की और फिर दोनों साथ नहीं रह सके । स्मिता पाटिल की इस जीवनी में उनकी
जिंदगी का ये पन्ना गायब है । लेखिका ने स्वीकार किया है कि उसकी स्मिता पाटिल से
मुलाकात नहीं हुई थी और राज बब्बर से उनकी इस जटिल संबंध के बारे में बात नहीं हो
पाई । इस मायने में मैथिली की ये किताब यासिर उस्मान की किताब से थोड़ी अलग है । स्मिता
पाटिल की ये जीवनी अन्य जीवनियों से भी थोड़ी अलग है । इसमें अमुक जगह पैदा हुई,
अमुक जगह लालन पालन हुआ, अमुक जगह स्कूल शिक्षा ली और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए
अमुक जगह गईं शैली नहीं अपनाई गई है । स्मिता पाटिल एक ऐसी कलाकार थी जिन्हें
इक्कीस साल की उम्र में नेशनल अवॉर्ड मिल गया था । मैथिली राव की ये किताब हमें इस
बेहतरीन अदाकारा की जिंदगी से जुड़ी दिलचस्प दुनिया में लेकर जाती है । इस किताब
में भले ही राज बब्बर के बारे में बात ना हो लेकिन स्मिता और शबाना के रिश्तों पर
लेखिका ने विस्तार से लिखा है । स्मिता पाटिल की बात शबाना आजमी के बगैर अधूरी
रहती है । स्मिता पाटिल और शबाना आजमी में जबरदस्त स्पर्धा थी और लोग कहते हैं कि
साथ काम करने के बावजूद उनमें बातचीत नहीं के बराबर होती थी । हलांकि किताब के
लांच के वक्त शबाना ने स्मिता पाटिल के बारे में बेहद स्नेहिल बातें की और यहां तक
कह डाला कि उनका नाम शबाना पाटिल होना चाहिए था और स्मिता का नाम स्मिता आजमी होना
चाहिए था । मौथिली राव ने स्मिता पर किताब लिखते वक्त तमाम तरह के लोगों से बात की
लेकिन गंभीरता से गॉसिप को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ती चली गई ।
रेखा और स्मिता के अलावा एक और अभिनेत्री में पाठकों की रुचि है वो
हैं अनु अग्रवाल । उन्नीस सौ नब्बे में महेश भट्ट की फिल्म आशिकी के सुपर हिट होने
के बाद अनु अग्रवाल भी हिट हो गई थी । सफलता के कुछ दिनों बाद ही अनु अग्रवाल
फिल्मी परिदृश्य से गायब हो गईं । वन फिल्म वंडर के नाम से बॉलीवुड में मशहूर अनु
अग्रवाल ने खुद ही आत्मकथात्मक संस्मरण लिखी है जो कि अनुयूजअल, मेमॉयर ऑफ अ गर्ल
हू केम बैक फ्रॉम द डेड के नाम से प्रकाशित हुई है । करीब पौने दो सौ पन्नों की इस
किताब में अनु अग्रवाल ने खुलकर अपनी जिंदगी के उन पन्नों को खोला है जिसके बारे
में पाठकों में जानने की इच्छा दिखाई देती है । अनु अग्रवाल का क्या हुआ ? वो कहां गायब हो गई ? उसने फिल्म के बाद मॉडलिंग का अपना करियर क्यों
छोड़ दिया ? आदि आदि । अनु अग्रवाल अपने रंग को लेकर बेहद
सटीक टिप्पणी करती है । वो कहती हैं कि अस्सी के दशक तो फिल्मों में जो फेयर वही
लवली माना जाता था लेकिन फिर उसने अपनी सांवलेपन को ही अपनी ताकत बनाया । अनु
अग्रवाल ने 1980 में दिल्ली से मुंबई आने और फिर एक संगीतकार के प्रेम में पड़ने
के किस्से को विस्तार से लिखा है । अनु अग्रवाल ने आशिकी की सफलता के बाद दो तीन
फिल्मों में काम किया और उसके बाद एक भयंकर हादसे का शिकार हो गईं और सालों तक
कोमा में रहीं । कोमा से वापस आने के बाद अनु योग और अध्यात्म में लीन हो गई और इस
किताब में दो अध्याय उनके इन अनुभवों पर है । अध्यात्म से लेकर ब्रह्म और भ्रम पर
अनु ने विस्तार से लिखा है । कहना ना होगा कि इन किताबों से पाठकों की ज्ञानझुधा
की पूर्ति होती है ।
स्मिता पाटिल, अनु अग्रवाल और रेखा पर किताबों के प्रकाशन के आसपास ही
शोमा चटर्जी की किताब सुचित्रा सेन पर प्रकाशित हुई थी । किताब का नाम था-
सुचित्रा सेन दे लीजेंड एंड द एनिग्मा । किताब के शीर्षक से ही साफ है कि लेखिका
इस लीजेंड की पहेली के बारे में इस किताब में बात करना चाह रही है । किया भी
उन्होंने यही है । सुचित्रा सेन के बारे में भी तमाम तरह की किंवदंतियां चलती रही
हैं । उनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने सत्यजित राय की फिल्म ठुकरा दी थी । सुचित्रा
सेन के बारे में ये भी कहा जाता था कि फिल्मों के छोड़ने के बाद वो सार्वजनिक तौर
पर सामने नहीं आती थीं । कहा तो ये भी जाता है कि वो अपने लुक को लेकर बेहद
संवेदनशील थी । फिल्मों से जुड़े लोग ये भी कहते हैं कि सुचित्रा सेन ने इस वजह से
दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने से मना कर दिया क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि उनके
फैन उनको बढ़ी उम्र के साथ देखें । अब इस किताब में भी लेखिका कभी सुचित्रा सेन से
मिली नहीं बल्कि एकाधिक बार सिर्फ उनसे फोन पर बात हुई थी । इस किताब में लेखिका
ने सुचित्रा सेन के बारे में कई दिलचस्प तथ्य बताए हैं जैसे सुचित्रा सेन पहली ऐसी
अभिनेत्री थी जो मां बनने के बाद फिल्मों
में आई और छा गई । उनकी बेटी मुनमुन सेन के साथ भी ऐसा हुआ । शाहरुख की फिल्म
बाजीगर से जुड़ा भी एक बेहद दिसलचस्प तथ्य इस किताब में है ।
एक के बाद एक इस तरह की किताबों के अंग्रेजी में प्रकाशित होने के बाद
फिर से ये सवाल खड़ा होने लगा है कि फिल्मों पर हिंदी में लिखनेवाले लेखक गंभीरता
से इस तरह का कोई प्रयास क्यों नहीं करते हैं । हिंदी में ज्यादातर लेखक फिल्मी
समीक्षाओं के संग्रह को छपवाने में रुचि रखते हैं । हिंदी के प्रकाशकों को भी इस
दिशा में काम करने की जरूरत है । उनको भी फिल्मों पर गंभीर लेखन करनेवाले हिंदी
लेखकों को चिन्हित करना होगा और उनको उन अभिनेता-अभिनेत्रियों पर लिखने के लिए
प्रोत्साहित करना होगा ताकि उन पाठकों को हिंदी भाषा की ओर आकृष्ट किया जा सके जो
कहानी कविता उपन्यास से इतर हिंदी में कुछ दिलचस्प पढ़ना चाहते हों । हिंदी पाठकों
के बीच भी फिल्मों को लेकर पढ़ने की चाहत है लेकिन उनकी इस चाहत को पूरा करने का
गंभीरता से उपक्रम नहीं किया जा रहा है और
लेख आदि को सजा संवारकर किताब के रूप में पेश कर उनको भरमाने की कोशिश होती है ।
अगर हमें हिंदी को विस्तार देना है तो हमें कोशिश करनी होगी कि उन विधाओं और उन
शख्सियतों के बारे में किताबें छपें जो नए पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट कर सकें ।
1 comment:
आपके विचार से मैं पूरी तरह सहमत हूं।
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