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Sunday, June 11, 2017

वैचारिक स्वतंत्रता का सम्मान

दो हजार चौदह में, जब से केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार बनी है, उस वक्त से ही साहित्य जगत में इस बात को लेकर काफी शोरगुल मच रहा है कि देश में फासीवाद लगभग आ ही गया है। अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे खतरे को लेकर भी खूब हो हल्ला मचा, बल्कि यों कहें कि अब भी मच रहा है । उस वक्त इस बात की आशंका भी जताई गई थी कि नई सरकार संस्थाओं का भगवाकरण करने में जुट जाएगी । कालांतर में इस बात को लेकर भी विरोध प्रदर्शन आदि हुए कि सरकार कला, साहित्य, शिक्षा और संस्कृति की स्वायत्त संस्थाओं पर कब्जा करना चाहती है । पुणे के फिल्म संस्थान से लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में हुई नियुक्तियों पर सवाल खड़े होने लगे। सीताराम येचुरी तक ने राम बहादुर राय तक की नियुक्ति पर सवाल उठाया था । इस बात की आशंका भी व्यक्त की जाने लगी थी कि सरकार देश का इतिहास बदलने की मंशा से काम कर रही है। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की आहट को लेकर भी विरोधी सक्रिय हो गए थे और सरकार पर भगवा एजेंडे को थोपने का आरोप लगने लगा था। इस बीच बिहार विधानसभा चुनाव का एलान हो गया और लगभग उसी वक्त पुरस्कार वापसी का बवंडर उठा। अशोक वाजपेयी की अगुवाई में पुरस्कार वापसी ब्रिगेड ने देश में बढ़ते असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने शुरू कर दिए। कुछ फिल्मकारों ने भी अपने पुरस्कार वापस किए। इनका एक ही आरोप कि संस्थाओं को सरकार नष्ट कर रही है और अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर खाने पीने की आजादी पर अपनी मर्जी थोपना चाहती है। पुरस्कार वापसी अभियान को तबतक हवा दी जाती रही जबतक कि बिहार विधानसभा का चुनाव निबट नहीं गया। बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के साथ ही पुरस्कार वापसी और असिहुष्णता के खिलाफ अभियान नेपथ्य में चले गए। फिर गाहे बगाहे जब भी इन सांस्कृतिक संस्थाओं में किसी तरह की नियुक्ति होती तो विरोध के सुर उठते हैं, कभी स्वर तीखा तो कभी हल्का। सरकार ने भी धीरे धीरे इन संस्थाओं में नियुक्तियां करनी शुरू कर दीं लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद भी इन संस्थाओं में सभी नियुक्तियां हो नहीं पाई हैं, हां लगभग सभी संस्थाओं के मुखिया नियुक्त हो गए। यह अलहदा विषय है कि इन संस्थाओं में काम-काज किस तरह से हो रहा है। या इन संस्थाओं के रहनुमाओं को अपने तरीके से काम कर पाने की कितनी सहूलियत मंत्रालय से मिल रही है । इस विषय में पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है।
केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि साहित्यक,सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर विश्यविद्यालयों तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मर्जी और सलाह से ही नियुक्तियां होती हैं। लेकिन हाल में जो दो नियक्ति हुई उससे इस आरोप की भी हवा निकल जाती है। विरोधियों के वो आरोप भी धराशायी हो जाते हैं कि संस्थाओं पर सरकार अपनी विचारधारा के लोगों को थोपना चाहती है। या सरकार संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में अपनी मर्जी के लोगों को चुन चुन कर बिठा रही है। कुछ दिनों पहले बिलासपुर विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर सदानंद शाही की नियुक्ति की गई। सदानंद शाही जी केदारनाथ सिंह और गोरखपुर के प्रेमचंद शोध संस्थान से जुड़े रहे हैं। उनकी विचारधारा साहित्य जगत में ज्ञात है। उनकी नियुक्ति के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने कड़ा प्रतिवाद किया और परिषद का आरोप है कि सदानंद शाही पुरस्कार वापसी कर रहे लेखकों के समर्थन में थे और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उन्होंने नक्सलियों के समर्थक कवि वरवर राव की रचनाओं का पक्ष लिया था। इस नियुक्ति के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने राज्यव्यापी आंदोलन की धमकी दी थी जिसके बाद तकनीकी कारणों से प्रोफेसर सदानंद शाही की नियुक्ति को टाल दिया गया। बार-बार इस बात को भी फैलाया जाता है कि संघ से हरी झंडी के बाद ही नियुक्ति होती है। अब सवाल यही उठता है कि अगर नियुक्तियों में संघ का दखल होता तो प्रोफेसर शाही की नियुक्ति कैसे हो जाती है। सरकार पर इस तरह के आरोप गलत है कि वो सिर्फ अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति दे रही है।
केंद्र सरकार पर इस तरह के आरोप किस कदर मिथ्या हैं इसका एक और सबूत है इलाहाबाद के जी बी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक के पद पर प्रोफेसर बदरी नारायण तिवारी की नियुक्ति। प्रो तिवारी जाने माने प्रगतिशील लेखक रहे हैं। दो हजार नौ में प्रकाशित उनकी किताब फैसिनेटिंग हिदुत्वा, सैफ्रन पॉलिटिक्स एंड दलित मोबलाइजेशन का हिंदी अनुवाद दो हजार चौदह में हिंदुत्व का मोहिनी मंत्र के नाम से छपा था। हिदुत्व का मोहिनी मंत्र की प्रस्तावना में बदरी नारायण जी लिखते हैं – दो हजार चौदह के चुनाव परिणाम ने इस पुस्तक के शोध के परिणाम की ओर इशारा कर इस पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ा दी है, जो शायद मैं नहीं चाहता था। वस्तुत: जिस खतरे की ओर इशारा करने के उद्देश्य से यह पुतक लिखी गई थी, उस खतरे को टाला नहीं जा सका। किन्तु, हमारा राजनीतिक वर्ग इस खतरे के प्रति सजग हो दलित समूह के एक वर्ग के भगवाकरण को रोक पाता, ऐसा नहीं हुआ। इस पुस्तक की जो प्रासंगिकता मैं चाहता था, वह ना होकर उल्टा हुआ और हिन्दुत्ववादी शक्तियों के सतत एवं सघन वर्षों के प्रयास से 2014 के चुनाव में दलित समूह का एक वर्ग भाजपा की ओर उन्मुख होता दिखा। यहीं यह लगता है कि अकादमिक शोध किसी खतरे की तरफ सिर्फ इशारा कर सकते हैं, उसे सीधे रोक नहीं सकता। बदरी जी जिस खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं वह है भारतीय जनता पार्टी का उभार। तो जो आदमी भारतिय जनता पार्टी के उभार या बहमुत को खतरा मानता हो उसको ही महत्वूपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाना सरकार पर लग रहे आरोपों को नकारती है। इसी पुस्तक में एक जगह बदरी नारायण भारतीय जनता पार्टी के बारे में लिखते हैं- अपने जन्म से ही यह पार्टी सांप्रदायिक राजनीति के लिए जानी जाती है। इस तरह की टिप्पणियां इस पुस्तक में कई बार और कई जगह दिखाई देती है।  अब अगर यह सरकार बदले की भावना से काम करती या फिर अपने विरोधियों को हाशिए पर डालती होती तो बदरी नारायण जी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय पांच साल के लिए निदेशक के पद पर नियुक्ति कैसे देता। बदरी नारायण जी के प्रतिरोध के स्वर तो पुरस्कार वापसी के दौर से लेकर अखलाक की हत्या के बाद तक बहुत मुखर थे । अगर अपने विरोधियों को नियुक्ति नहीं देने का कोई अघोषित फैसला होता तब भी बदरी जी की नियुक्ति नहीं हो सकती थी। बदरी नारायण की नियुक्ति इस बात का उदाहरण है कि सरकार नियुक्तियों में भेदभाव नहीं करती है ।

अपनी विचारधारा वाले लोगों की नियुक्तियां हर सरकार करती रही हैं। आम आदमी पार्टी ने भी अपनी पार्टी से सहानुभूमि रखनेवालों को हिंदी अकादमी से लेकर हर जगह नियुक्ति दी। सरकारों को इस बात का हक भी है कि वो अपनी विचारधारा को बढ़ावा दे। विचारधारा को मजबूकी देने के लिए यह आवश्यक भी होता है कि अपने से जुड़े लोगों को मजबूत किया जाए। लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार इस मायने में थोड़ी अलग है। यह वामपंथियों की तरह अपने विरोधी विचारधारा वालों को भी अस्पृश्य नहीं मानती है। उनसे दूरी नहीं बनाती या सायास उनको हाशिए पर धकेलने के लिए संगठित प्रयास नहीं करती है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार से सहमत विद्वानों को सरकारी सस्थाओं में प्रवेश तक नहीं था। उनका मजाक उड़ाया जाता था । फेलोशिप से लेकर तमाम तरह कि नियुक्तियों में प्राथमिक शर्त यह होती थी कि वो उनकी विचारधारा को मानने वाला हो। यहां तक कि गोष्ठियों में भी इस बात का खास ध्यान रखा जाता था कि हिदुत्व की विचारधारा को मानने वाले मंच पर नहीं बैठें। साहित्य अकादमी से लेकर अन्य अकादमियों के पुरस्कारों में विरोधी विचारधारा के विद्वानों के नाम पर पुरस्कारों के लिए विचार ही नहीं होता था। दिन रात फासीवाद-फासीवाद की रट लगानेवालों को इस बात पर गौर करना चाहिए कि पिछले तीन साल में ऐसी स्थिति नहीं है। हर विचारधारा वाले को मंच मिलता है, नियुक्ति मिलती है और अन्य तरह की सहूलियतें भी। सवाल यही उठता है कि जो लोग संघ की आड़ लेकर सरकार पर हमले करते रहे हैं उनको बहुत ध्यान से आरोप लगाने चाहिए अन्यथा इन आरोपों से उनकी ही किरकिरी होती है।