पिछले तीन चार सालों से नियमित
अंतराल पर इस बात के कयास लगते रहे हैं कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को
पार्टी की कमान सौंपी जाने वाली है। सोनिया गांधी की बीमारी के बाद कयास का अंतराल
कम होता चला गया है। जब भी कांग्रेस के सामने किसी तरह की क्राइसिस या राजनीति का
अहम पड़ाव आता है तो इस तरह की खबरें आने लगती हैं कि राहुल गांधी के पार्टी के
अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी अमुक वक्त तक हो जाएगी। पर अबतक ऐसा हो नहीं पाया है। अभी
हाल ही में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर रणनीति बनाने के लिए कांग्रेस के तमाम आला
नेता जब सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बैठे तो एक बार फिर से इस बात के कयास लगने
लगे कि राहुल गांधी को पार्टी की रहनुमाई सौंप दी जाएगी। पिछले साल सात नवंबर को
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इस बात पर जमकर चर्चा हुई थी कि राहुल गांधी को
कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभालनी चाहिए। कार्यसमिति के ज्यादातर सदस्य इस पक्ष
में थे भी लेकिन तब दिग्विजय सिंह ने कहा था कि सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में इस
तरह का कोई फैसला लेना उचित नहीं था। गौरतलब है कि उस वक्त सोनिया गांधी तबीयत
खराब होने की वजह से उक्त बैठक में शामिल नहीं हो पाई थी।
इस साल के अंत तक कांग्रेस पार्टी
में संगठनात्मक चुनाव होने हैं। राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष पद सौंपने की एक
बार फिर से तैयारी शुरू हो गई है। कयासबाजी भी। अब सवाल यही है कि राहुल गांधी
कांग्रेस पद की जिम्मेदारी से भाग रहे हैं या फिर पार्टी में उनकी ताजपोशी को लेकर
दो मत हैं। पार्टी से जुड़े कुछ नेताओं का दावा है कि राहुल गांधी लोकतांत्रिक
तरीके से चुनकर पार्टी अध्यक्ष बनना चाहते हैं जबकि ज्यादातर नेता चाहते हैं कि
कांग्रेस कार्यसमिति राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष नामित कर दे और फिर उसके बाद
राष्ट्रीय अधिवेशन में उनके नाम पर मुहर लग जाए। यह तो वो बातें हैं जो सिद्धांत
रूप से सामने आने पर अच्छी लगती हैं लेकिन इसके अलावा भी उनके अध्यक्ष बनने में एक
पेंच है। वो पेंच है पार्टी के वो नेता जो सोनिया गांधी की पीढ़ी के हैं। वो चाहते
हैं कि मौजूदा व्यवस्था ही चलते रहे जिसते तहत पार्टी के बारे में अंतिम फैसला
लेने का हक सोनिया गांधी के हाथ में ही रहे और राहुल गांधी उपाध्यक्ष के तौर पर
काम करते रहे। उनके तर्क हैं कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्ष एकजुट हो सकता
है लेकिन नीतीश और ममता बनर्जी जैसे दिग्गजों को राहुल गांधी का नेतृत्व मंजूर ना
हो। इस तरह के तर्क देकर राहुल गांधी की ताजपोशी में फच्चर फंसाया जाता रहा है ।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस वक्त उस दौर से गुजर रही है
जहां नेतृत्व को लेकर नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में एक भ्रम और उलझन लक्षित
किया जा सकता है । सोनिया के नेपथ्य में रहने की वजह से पुरानी पीढ़ी के नेता स्वत: परिधि पर चले गए थे
और राहुल गांधी के आसपास के नेता पार्टी के केंद्र में दिखाई देने लगे थे । यह
संसद और उसके बाहर दोनों जगह पर साफ तौर पर देखा जा सकता था । सोनिया के नेपथ्य
में जाने के बावजूद उनके इर्दगिर्द के नेता भले ही पृष्ठभूमि में चले गए हों लेकिन
उनकी ताकत कम नहीं हुई थी । ये जरूर हुआ कि राहुल गांधी के नजदीकी नेताओं का भाव
बढ़ गया । इस परिस्थिति में पार्टी के फैसलों और नेताओं के बयान में एकरूपता नहीं
दिखाई देती है । कुछ नेताओं का मानना है कि राहुल गांधी जब नोटबंदी का विरोध कर
रहे थे और धीरे-धीरे अन्य विपक्षी दलों के नेता उनके साथ आते दिख रहे थे वैसे में
राहुल गांधी बगैर सबको विश्वास में लिए प्रधानमंत्री मिलकर विपक्षी एकता के
प्रयासों को झटका दे गया । दरअसल अगर हम देखें तो दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के
बाद ही राहुल गांधी को कमान सौपने की मांग के बाद से यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है
। इस भ्रम ने दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डुबोई थी । सात
आठ साल से यह स्थित बनी हुई है और एक के बाद एक चुनाव हारने के बाद यह और बढ़ता
चला जा रहा है । नेतृत्व में भ्रम की वजह से पार्टी का कोई सीधा रास्ता नहीं बन पा
रहा है जिसपर चला जा सके।
दो हजार उन्नीस का आमचुनाव अब आ ही चला है । एक तरह से देखें तो
उसमें डेढ साल का वक्त बचा है क्योंकि छह महीने पहले से तो आचार संहिता आदि लगा दी
जाती है। अब वक्त कांग्रेस के हाथ से लगभग निकल चुका है। य़ूपी चुनाव के बाद तो
जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अबदुल्ला ने कह ही दिया था कि अब दो हजार
चौबीस की तैयारी करनी चाहिए। दरअसल अगर कांग्रेस अब भी राहुल गांधी के हाथ में
कमान सौंपती है तो उनके अबतक के अप्रोच को देखकर लगता नहीं है कि वो बहुत गंभीरता
से इस जिम्मेदारी को निभा ले जाएंगे। पहले ही कई बार कहा जा चुका है कि राजनीति
चौबीस घंटे का काम है इसको कैजुअल तरीके से नहीं किया जा सकता है। अब जब देश में
किसान अपनी समस्या को लेकर उग्र हो रहे हैं तो राहुल गांधी इटली चले गए हैं और
पार्टी में फिर से सभी नेता हो गए हैं। अगर कांग्रेस को 2019 की लड़ाई में बने भी
रहना है तो राहुल गांधी को कमान फौरन सौंपनी होगी और राहुल बाबा को भी खालिस
राजनेता की भूमिका में उतरना होगा क्योंकि उनका मुकाबला अमित शाह जैसे मेहनती
अध्यक्ष से है।
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