समकालीन साहित्यक परिदृश्य पर अगर नजर डालते हैं तो एक प्रवृत्ति
खास तौर पर नजर आती है। यह प्रवृत्ति उन लेखकों के बीच ज्यादा नजर आती है जिनको अपने
लेखन पर कम साहित्येतर गतिविधियों पर ज्यादा भरोसा है। यह प्रवृत्ति है एक दूसरे
की तारीफ करने की, और एक दूसरे के आलोचकों को ठिकाने लगाने की। तारीफ करना अच्छी
बात है लेकिन ‘तू पंत मैं निराला’ वाली तारीफ आसानी
से रेखांकित हो जाती है। इन लेखकों में इस बात का धैर्य भी नहीं है कि वो अपने
साथी लेखक की तारीफ के बाद कुछ समय इंतजार करें और फिर उसके बाद उनकी प्रशंसा
करें। हाथ के हाथ लेन-देन संपन्न हो जाता है। किसी तरह का उधार नहीं रहता है। आपने
मंच से तारीफ की तो उन्होंने फेसबुक पर आपको महान बता दिया। आपने फेसबुक पर लिखा
तो उन्होंने फौरन ब्लॉग पर आपकी प्रशंसा कर डाली। मौजूदा साहित्यक परिदृश्य पर नजर
रखनेवाले पाठकों को ऐसे लेखकों को पहचानने में जरा भी दिक्कत नहीं होगी। सोशल
मीडिया पर ऐसे लेखकों का एक समूह सक्रिय है जो सिर्फ एक दूसरे की तारीफ ही करते
रहते हैं। ये ना सिर्फ एक दूसरे की तारीफ करते हैं बल्कि अपने कॉमरेड की कृति की
आलोचना का उत्तर भी देते हैं। कृति पर बात करना जरूरी है, और होनी भी चाहिए, लेकिन
कृति पर बात करते करते जब कृतिकार पर बात होने लगती है, तब समस्या शुरू हो जाती
है। यह जरूरी नहीं है कि कोई कृतिकार अगर विनम्र हो तो उसकी रचना विश्वस्तरीय
होगी। यह भी जरूरी नहीं है कि कोई रचनाकार किसी खास समुदाय से आता है, तो उसके
लेखन में उस समुदाय के पूरे संघर्ष का चित्रण होता हो या फिर उस खास समुदाय का
अंतर्विरोध उसमें मुखर होकर पाठकों तक पहुंचे। अव्वल बात तो सिर्फ रचना पर होनी
चाहिए और चर्चा या आलोचना की परिधि से लेखक या लेखक के स्वभाव या समुदाय को बाहर
रखा जाना चाहिए, लेकिन समूह गान करनेवाले लोग सबकुछ भूलकर सिर्फ रचना की आलोचना
करनेवाले पर टूट पड़ते हैं और येन केन प्रकारेण उनको नीचा दिखाने की कोशिशें शुरू
हो जाती हैं ।आलोचना करनेवालों पर व्यक्तिगत टिप्पणियां ना केवल अवांछित होती हैं
बल्कि बहुधा स्तरहीन भी होती हैं। लक्ष्य आलोचक की छवि खराब करने की होती है लेकिन
होता इसके उलट है और टिप्पणीकार ही कालांतर में संदिग्ध हो जाता है।
तारीफ समूहों के विचरण और उनकी टिप्पणियों से कभी कभार साहित्यक
परिदृश्य मनोरंजक भी हो जाता है क्योंकि गढ़े हुए तर्कों में वो प्रामाणिकता नहीं
आ पाती है और टिप्पणीकार खुद को हास्यास्पद बना लेता है। दिसबंर उन्नीस सौ पचपन
में रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने लिखा था – ‘ज्वार और भाटे का अपना नियम है। आकाश
में अनेक बिजली के डंडे टंगवा दीजिए, जो पूर्णचंद्र से भी अधिक रोशनी दे सके,
उसमें ज्वार आप ला नहीं सकते। बड़ी से बड़ी नदियों की धाराएं भी उसके जल की सतह
में घट-बढ़ ला नहीं सकतीं। मंदराचल की अनेक मथनियों से उसे मथिए, उसके वीचि-विलास
में कोई अंतर नहीं आ सकेगा। वह अपने नियम का अनुसरण करेगा। सारे कृत्रिम उपाय
व्यर्थ जाएंगे, व्यर्थ जाएंगे। यही नहीं ऐसे उपाय प्राय: ही उल्टा फल
लाएंगे।‘ आज से करीब छह दशक
पहले बेनीपुरी जी जो लिख रहे थे वो आज के साहित्यिक परिदृश्य पर सटीक बैठता है। उस
वक्त फेसबुक आदि नहीं था और प्रशंसा-प्रवृत्ति का इतने जोरशोर से चलन भी नहीं था। कहते
हैं कि अच्छा लेखक युगदृष्टा होता है सो बेनीपुरी जी ने इस प्रवृत्ति की आहट को
सुन लिया था। ना केवल आहट को सुना था बल्कि अपने लेखन से उन्होंने हिंदी जगत को
सचेत भी किया था।
बेनीपुरी जी के कहे पर गौर करें तो यह तो साफ तौर पर समझ में आता
है कि किसी भी कमजोर कृति को चाहे कितना भी जोर लगा लिया जाए उसको स्थापित नहीं
किया जा सकता है । चाहे उसकी कितनी भई तारीफनुमा समीक्षा प्रकाशित हो जाए वो
पाठकों के दिलों में स्थान नहीं बना पाती है, साहित्यक जगत में, पाठकों के बीच स्पंदन
पैदा नहीं कर सकती है। किसी कृति के बारे में सोशल मीडिया पर चाहे कितना भी माहौल
बनाने की कोशिश कर ली जाए. चाहे उसके नाम को हैशटैग के साथ ट्रेंड की क्यों ना
करवा लिया जाए वो स्थायी महत्व हासिल नहीं कर पाता है। तात्कालिकता के शोरगुल में
भले ही किताबों की कुछ प्रतियां बिक जाएं, लेखक अपनी प्रायोजित प्रशंसा से खुश हो
ले लेकिन रचना दीर्घजीविता हासिल नहीं कर पाती है। बेनीपुरी जी ने सही कहा था कि
सारे कृत्रिम उपाय व्यर्थ जाएंगे और इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि उन्होंने ‘व्यर्थ जाएंगे’ दो बार लिखा था,
यानि वो इस बात पर खासा जोर दे रहे थे। यह अकारण नहीं है कि आज कोई ‘गुनाहों का देवता’ या ‘कसप’ जैसी रचना नहीं आ
पाती है । और तो और ‘मुझे चांद चाहिए’ या ‘आवां’ या ‘चाक’ या फिर ‘काला पहाड़’ या फिर ‘कैसी आग लगाई’ जैसी रचनाएं भी सामने
नहीं आ पाती हैं। एक तरफ जहां स्तरीय कृतियों का आभाव नजर आता है वहीं दूसरी तरफ
फेसबुक आदि पर नजर डालें तो हर दूसरी कृति की महानता के गुण वहां बिखरे नजर आएंगे।
‘तू पंत, मैं निराला’ के पैरोकार लेखक
बहुधा आलोचकों को भी कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। आलोचना के औजार पुराने पड़ने से
लेकर आलोचकों के विवेक आदि पर सवाल खड़े करते रहते हैं। आलोचकों पर व्यक्तिगत रूप
से हमले कर उनको अपमानित करने की भी कोशिश होती है। वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन ने
कुछ वर्षों पूर्व लिखा भी था कि –‘इन दिनों किसी कृति पर आलोचनात्मक
टिप्पणी करने से बचती हूं क्योंकि कौन कब बुरा मान ले पता नहीं।‘ हलांकि आलोचकों को अपने ऊपर होनेवाले हमलों से
घबराना नहीं चाहिए। प्रेमचंद का एक पात्र कहता भी क्या बिगाड़ के डर से ईमान की
बात नहीं कहोगी। आलोचकों को बिगाड़ के डर की चिंता नहीं करनी चाहिए। आलोचकों पर
हमला, पुरानी प्रवृत्ति है लेकिन उसमें स्तरहीनता का बढ़ता अनुपात चिंता का विषय
हो सकता है। कई रचनाकार आलोचना को सर्टिफिकेट देने में लगे रहते हैं वो यह भूल
जाते हैं कि अभी ‘आलोचना’ के इतने बुरे दिन नहीं आए हैं कि
उसको रचनाकारों के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता पड़े।
‘तू पंत, मैं निराला’ की प्रवत्ति के
साहित्य जगत पर हावी होने की वजह है साहित्य को विमर्श से जोड़कर उसको विभाजित कर
अलग अलग खांचे में डालना । दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श और अब तो
पिछड़ों के साहित्य का एक अलग कोष्ठक तैयार करने की तैयारी हो रही है । दरअसल
राजेन्द्र यादव ने हिंदी में दलित और स्त्री विमर्श का जो कथा-मैदान तैयार किया
उसपर कई रचनाकार खिलाड़ी इन दिनों खेल रहे हैं। राजनीतिक टिप्पणियों को कहानी
मानने का दुराग्रह करते इस मैदान पर कुलांचे भरनेवाले तमाम लेखक हिंदी साहित्य में
चिन्हित किए जा सकते हैं। स्त्री विमर्श के कोष्ठक में लिखी जानेवाली ज्यादातर
कहानियों में स्टेटमेंट होता है और कहानीपन या किस्सागोई की कमी बहुधा पाठकों को
महसूस होती है। इसी तरह से अगर दलित विमर्श की कहानियों को देखें तो ज्यादातर
कहानियों में समाज की कुरीतियों को पर लिखा जाता रहा है । वहां हर दूसरी कहानी में
एक खास तरह की सामाजिक स्थितियां दिखाई देती हैं। दलित लेखन के नाम पर जिस तरह का
फॉर्मूलाबद्ध लेखन हो रहा है वह हिंदी कहानी की चौहद्दी का विकास नहीं कर पा रहा
है। दलित लेखन में जिस तरह से मराठी के लेखकों ने प्रयोग किए उस तरह का प्रयोग
हिंदी में कम ही दिखाई देता है। शरण कुमार लिंबाले से लेकर लक्ष्मण गायकवाड़ तक के
लेखन में जो धार दिखाई देती है वह दलित चेतना को एक नई ऊंचाई पर ले जाता है। वहां
कहानी के विकास को साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है।हिंदी में नहीं। विमर्श के
अलावा ‘भोगा हुआ यथार्थ’ का परचम भी भी कई
रचनाकर लहराते नजर आ जाते हैं । खासकर अगर हम विमर्श वाले साहित्य की बात करे तो
यहां तो ‘भोगा हुआ यथार्थ’ को लेकर एक खास
किस्म का लगाव देखने को मिलता है। अभी दिल्ली में डॉ सच्चिदानंद जोशी के कहानी
संग्रह के विमोचन के मौके पर हिंदी में प्रेमचंद साहित्य के अध्येता डॉ कमल किशोर
गोयनका ने ‘भोगा हुआ यथार्थ’ पर बेहद तल्ख
टिप्पणी की । दरअसल ‘भोगा हुआ यथार्थ’ के नाम पर
कहानियों में जिस तरह की सपाटबयानी हुई है, उसने कहानी की जमीन को कमजोर किया है।
कई कहानियों में कहानी और रिपोर्ट के बीच का फर्क मिट सा गया है । बावजूद इन
कमियों के इस तरह के विमर्श वाले कहानीकारों के बीच तू पंत मैं निराला का भाव जोर मारता
रहता है। प्रशंसा की डफली बजते रहे लेकिन साथ ही अच्छी बुरी कहानियों पर साहस के
साथ बोला या लिखा जाना भी जरूरी है।
2 comments:
सही बात।
अच्छा लिखा है . यह इन दिनों अपनी जवानी पर है . लेकिन लंबा चलेगा नहीं . चार-छह को अपना क्रीत दास बनाकर कुछ चेहरे चर्चा में हैं . उन्हें शायद पता नहीं , बिकने वाले बार-बार बिकते हैं . आज जिनके साथ हैं कल उनसे छिटक भी सकते हैं .
कृष्ण बिहारी
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