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Saturday, July 29, 2017

इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बनती सांस्कृतिक संस्थाएं

चंद दिनों पहले कला से जुड़ी केंद्रीय संस्था के मुखिया ने बताया था कि उनके पहले जो लोग उस संस्था को संभाल रहे थे उन्होंने शासी निकाय के माध्यम से दो हजार बाइस तक के कार्यक्रम तय कर दिए थे। उनका कहना था कि इस निर्णय को बदलने का अधिकार मौजूदा शासी निकाय को है, लेकिन मौजूदा समिति के सदस्य पूर्ववर्ती फैसलों में बदलाव कर कोई बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहते हैं। नतीजा यह हो रहा है कि मोदी सरकार के तीन साल से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी उस संस्था की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव लक्षित नहीं किया जा सकता है। या फिर मौजूदा मुखिया के पास अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने का ज्यादा अवसर भी नहीं बचा है।यह स्थिति सिर्फ एक संस्था की है या देशभर की अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं में भी यही हाल है, इसको जानने के लिए पर्याप्त शोध करने की जरूरत है। एक चीज जो सतह पर दिखाई देती है वह यह है कि इन सरकारी साहित्यक संस्थाओं की कार्यप्रणाली में कोई आमूल चूल बदलाव नहीं दिखाई पड़ता है। केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद संस्कृति के क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी काम हुआ हो, यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है। हां, साहित्य कला और संस्कृति से जुड़ी इन संस्थाओं ने तीन सालों में खुद को एक बेहतर इवेंट मैनेजमेंट कंपनी के तौर पर स्थापित कर लिया है। जब भी इनके कर्ताधर्ताओं से सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रियता की बात करिए तो वो अपने द्वारा आयोजित कार्यक्रमों को गिनाना शुरू कर देते हैं। कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए लेकिन सिर्फ कार्यक्रमों को आयोजित कर क्या सांस्कृतिक मोर्चे पर बदलाव किया जा सकता है। क्या हम अतीत की गलतियों को इन कार्यक्रमों के जरिए सुधार सकते हैं । क्या हम इन कार्यक्रमों के जरिए भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने में योदगान कर सकते हैं.
हम जिस भारतीय ज्ञान परंपरा के बाधित किए जाने को लेकर लगातार आयातित विचारधारा को जिम्मेदार ठहराते हैं, उस ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने का क्या उपक्रम किया गया इसपर ध्यान देने की जरूरत है। जिन संस्थाओं पर इसकी जिम्मेदारी थी वो भी इवेंट मैनेजमेंट के काम में लगी है। प्रधानमंत्री पर एक पुस्तक को लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में दिनभर का कार्यक्रम होता है। पोस्टरों और बैनरों पर प्रधानमंत्री की भव्य तस्वीर लगी होती है। ऐसा करके हम क्या और किसको संदेश देना चाहते हैं। इस बात पर भी गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री पर प्रकाशित उस पुस्तक से किस तरह से संस्कृति या साहित्य पर असर पड़ रहा है। उस पुस्तक की गुणवत्ता से लेकर उसके व्यापक प्रभाव पर अलग से बात हो सकती है, होनी भी चाहिए। इंदिरा गांधी कला केंद्र में पुस्तकों और लेखकों को लेकर पुस्तकालय में एक मासिक कार्यक्रम होता रहा है ऐसे में प्रधानमंत्री पर प्रकाशित पुस्तक पर अलग से कार्यक्रम का औचित्य समझ में नहीं आता है। यह ठीक है कि इस तरह के कार्यक्रम कभी कभार हो सकते हैं लेकिन अन्य कार्यक्रमों को लेकर भी उतनी ही संजीदगी दिखनी चाहिए।
कला, साहित्य और संस्कृति के विकास और उसको मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से बनाई गई इन संस्थाओं में एक और नई प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। यह प्रवृत्ति दिखती है वक्ताओं के चयन में। कला और संस्कृति से जिनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है उन वक्ताओं को भी इस तरह के कार्यक्रमों में आमंत्रित कर संपर्क सुधर सकते हैं लेकिन श्रोताओं का किसी नई दृष्टि से साक्षात्कार नहीं हो पाता है। सरकार और संगठन से जुड़े लोगों को बतौर वक्ता आमंत्रित कर इन संस्थाओं के कर्ताधर्ता अपनी कुर्सी भले ही सुरक्षित कर लें लेकिन वो भारतीय संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के मूल काम से भटकते नजर आते हैं। कला साहित्य और संस्कृति के विकास में इन इवेंट्स का क्या योगदान हो सकता है इसका मूल्यांकन भी होना चाहिए। परिवर्तन की इस रफ्तार को ना तो सुधार कह सकते हैं, ना ही बदलाव और क्रांति तक तो पहुंचना ही मुमकिन नहीं है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के एक कार्यक्रम का सिर्फ उदाहरण दिया गया है कमोबेश हर संस्था यही रास्ता अपना रही है। रामधारी सिंह दिनकर ने सालों पहले लिखा था- दिल्ली में संस्कृति शब्द का का अर्थ नाच गान और नाटक तक सीमित होता जा रहा है। नृत्य संगीत और नाटक संस्कृति के अंग हैं किन्तु,संस्कृति उन्हीं तक सीमित नहीं हैं।दिनकर के इन विचारों से सालों बाद भी असहमत होने की कोई वजह दिखाई नहीं देती है। 
इस तरह के इवेंट्स में वेद, उपनिषद, पुराण आदि पर जमकर बातें होती है। कुछ विद्वान वक्ता अपने वक्तव्यों में इन ग्रंथों से पंक्तियां भी उद्धृत करते हैं लेकिन आज इन ग्रंथों की जो हालत है उसको देखकर क्या हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि नए पाठक या हमारे देश का युवा इनको पढ़ेगा। आज बाजार में मौजूद वेदों की छपाई या उसके हिंदी भाष्य को उठाकर देख लें तो यह बात साफ तौर पर समझ में आती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इन ग्रंथों की बेहतर छपाई हो और सामान्य, सरल और समकालीन हिंदी में उसकी टीका पर काम करवाकर उसको प्रकाशित किया जाए। लेकिन वेद, पुराण और उपनिषद पर काम करवाने में इन संस्थाओं में कोई उत्साह नहीं दिखाई देता है। उत्साह में इस कमी की वजह है कि यहां मौजूद लोग वामपंथियों से आक्रांत हैं। कहीं ना कहीं उनके अवचेतन मन में यह चलता है कि इन ग्रंथों पर काम शुरू करवाने से वो वामपंथियों के निशाने पर आ जाएंगे। वो इस बखेड़े में पड़े बिना सुरक्षित तरीके से काम करते हुए अपना कार्यकाल पूरा करना चाहते हैं। जबकि सांस्कृतिक बदलाव हमेशा क्रांति से ही संभव हुई है। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा भी था कि हम जैसे विचारों में विश्वास करते हैं, हमारे कर्म वैसे ही हो जाते हैं। निवृत्ति की माला जपते जपते हम गुलाम हो गए और प्रवृत्ति की आराधना का आरम्भ करते ही हमारी गुलामी चली गई। किन्तु, संस्कृति न तो केवल निवृत्ति है, न केवल प्रवृत्ति।‘  इस बात को समझने की जरूरत है।
इन संस्थाओं के कर्ताधर्ताओं में एक और अन्य अहम बात जो दिखाई देती है कि वो काम तो अपनी विचारधारा के आधार पर करना चाहते हैं लेकिन उनकी ख्वाहिश होती है कि उसको इस तरह के किया जाए कि वामपंथी विचारधारा वाले मित्रों की भी उसमें रजामंदी रहे। यह ख्वाहिश भी सांस्कृतिक बदलाव में सबसे बड़ी बाधा है। वामपंथी विचारधारा वालों से स्वीकृति की चाहत बहुधा सांस्कृतिक बदलाव की योजना को रोक देती है। इन कला साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों के क्रियाकलापों पर बारीकी से नजर डालने पर यह हिचक साफ साफ दिखाई देती है। नई संस्कृति का निर्माण कभी भी हिचक के साथ नहीं किया जा सकता है। निर्माण की बात अगर छोड़ भी दें तो किसी भी विचारधारा को संस्कृति के केंद्र में लाने का काम भी हिचक की प्रवृत्ति के साथ संभव नहीं है। एक बार फिर दिनकर याद आते हैं जब वो कहते हैं कि – जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुसरण करने लगती है...जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। इस हिचक पीछे कहीं ना कहीं ये भाव भी होता है जिसकी ओर दिनकर इशारा कर रहे हैं।

विरोधी खेमे से स्वीकृति की चाहत का लाभ भी वामपंथी बुद्धिजीवी बेहतर तरीके से उठा रहे हैं। इन संगठनों के इवेंट्स में वामपंथी मित्रों की सहभागिता इस बात की चीख चीख कर गवाही दे रहा है। वो कवि लेखक जिन्होंने केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापस किया था, वो अब लगातार साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में नजर आते हैं। ना सिर्फ नजर आते हैं बल्कि खुद को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथाकार, कवि कहकर पुकारे जाने पर गौरवान्वित भी महसूस करते हैं। किसी भी कार्यक्रम में वो खुद को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक कहे जाने पर यह वहीं कह पाते हैं कि उन्होंने पुरस्कार वापस कर दिया था। आज जरूरत इस बात की है कि इन सांस्कृतिक संस्थाओं के कर्ताधर्ता भारतीय ज्ञान परंपरा के विकास के लिए काम करें चाहे उनको जोखिम भी क्यों ना उठाना पड़े। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो इतिहास में दर्ज में हो जाएंगे वर्ना इतिहास का बियावान उनके इंतजार में है।    

2 comments:

Ramdeo Singh said...

इन संस्थाओं को न तो शासन का कोई भय होना चाहिए और न किसी दूसरे विचारधारा वालों से । यह खुले विमर्श का मंच होना चाहिए । किसी आयातित विचारधारा से अपने वांग्मय को हीन समझने की भी जरुरत नहीं है । हमारे उपनिषदों में ऐसी शाश्वत वैचारिक ऊर्जा है जो सिर्फ बाह्य ही नहीं आन्तरिक क्रान्ति का सूत्रधार बन सकता है । जरुरत है कि इसकी टीका तो सही ढंग से हो ही प्रस्तुति भी सही हो । हमारे प्रकाशन ( खासकर धर्मग्रन्थों के ) गीताप्रेस शैली से ऊपर नहीं उठ सके हैं । पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस , मास्को के प्रकाशन इसलिए भी इतने लोगों तक पहुँचे कि उनकी प्रस्तुति पहुँचने लायक थी । हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना है कि बिन पढ़े-समझे हम वेद , उपनिषद आदि ग्रन्थों की आलोचना करने लगते हैं ।

प्रज्ञा पांडेय said...

चिंता वाजिब है।वामपंथ का आतंक तो कभी भी हमारी संस्कृति से हमें जुड़ने नहीं देगा लेकिन मुझे ऐसा लगता है संस्कृति के तथ्यों को यदि सच्चाई से प्रस्तुत किया जाए तो व्यापक समर्थन मिलेगा और ऐसे संस्थानों की साख भी बढ़ेगी। बहुतेरे लोग ये मानते हैं कि वामपंथ में खोट है। इस ज़रूरी लेख के लिए बधाई।