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Saturday, October 27, 2018

संस्कृति को अज्ञानता की चुनौती


आधीरात को सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक को छुट्टी पर भेजे जाने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद जिस तरह का घटनाक्रम चला उसमें एक महत्वपूर्ण बहस दब गई। केंद्र सरकार के इस फैसले के ठीक पहले केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने मुंबई में एक बयान दिया था जो सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के संदर्भ में था। स्मृति ईरानी ने कहा कि उनका इस बात में विश्वास है कि उनको प्रार्थना या पूजा का अधिकार है लेकिन अपवित्र करने का अधिकार नहीं है।अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी सवाल पूछा था कि क्या कोई रजस्वला स्त्री अपने दोस्त के घर सैनिटरी नैपकिन लेकर जाती है। ईरानी की पूरी बात को समग्रता में समझे बगैर उसपर हंगामा मचा दिया गया। खुद को प्रगतिशील कहनेवाली चंद महिलाओं ने इस बयान को इस तरह के पेश किया जैसे कि रजस्वला स्त्री को अपवित्र कहा जा रहा है। ये किसी भी बात को संदर्भ से काटकर पेश करने का नमूना था। संदर्भ सबरीमला मंदिर का था जहां से इस तरह की खबरें आ रही थीं कि कुछ महिला कार्यकर्ता सैनिटरी नैपकिन लेकर मंदिर में प्रवेश करने की जुगत में थीं। दरअसल सबरीमला मंदिर को लेकर यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी कि वहां 10 से 50 साल की किशोरियों और महिलाओं को प्रवेश नहीं होता था। लेकिन 28 सितंबर के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी आयुवर्ग की महिलाओं को सबरीमला मंदिर में प्रवेश की इजाजत दे दी थी। उसके बाद से मंदिर में प्रवेश को लेकर केरल में काफी विवाद हो रहा है। मंदिर में प्रवेश को लेकर ये विवाद काफी लंबे समय से चल रहा है, माना यह जाता रहा है कि इस तय आयुवर्ग में किशोरियां और महिलाएं रजस्वला हो जाती हैं तो उस दौर में मंदिर में ही नहीं जाना चाहिए। अब इसको परंपरा कह लें या रूढ़ियां कि ये आम भारतीय परिवारों में माना जाता है कि रजस्वला स्त्रियां पूजा पाठ नहीं करती हैं। स्त्रियां इसको स्वयं मानती हैं और उन दिनों में उसी के अनुसार काम करती हैं। दरअसल परंपरा और रूढ़ियों से ज्यादा ये मसला संस्कार और संस्कृति का है।   
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद महिला अधिकारों के झंडाबरदार काफी आगे चली गईं। उनको लगने लगा कि ये महिला अधिकारों का हनन है, स्त्री स्वातंत्र्य का गला घोंटा जा रहा है। उनको अगर ये महसूस हो रहा है तो यह उनका अधिकार है, लेकिन भारतीय समाज में स्त्रियों के जो संस्कार हैं या उनके त्याग के जो उदाहरण हैं वो अप्रतिम हैं। वो अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अपने अंग तक काट सकती हैं और कई उदाहरण तो ऐसे हैं कि स्त्रियों ने अपने प्राण भी त्याग दिए। पौराणिक कथा है जिसको देखा जाना आवश्यक है। कहानी के मुताबिक उत्तरापथ जनपद में उत्पलावती नाम का एक शहर था। उस शहर में भयंकर अकाल की वजह से लोगों का जीना कठिन हो गया था, भोजन मिलना अत्यंत मुश्किल था। उस दौर में वहां रूपावती नाम की एक बेहद सुंदर स्त्री रहती थी। एक बार रूपावती शहर घूमने निकली और घूमते घूमते एक घर में पहुंची जहां एक स्त्री ने बच्चे को जन्म दिया था। जन्म देनीवाली स्त्री इतनी भूखी थी कि उसने अपने जन्म दिए हुए बच्चे को ही खाने की इच्छा जताई। यह जानकर रूपावती ने उससे पूछा कि ये क्या कर रही हो। उस स्त्री ने कहा कि बहुत भूखी हूं इस वजह से अपने बच्चे के मांस से ही भूख मिटाना चाहती हूं। रूपावती ने फिर पूछा कि क्या तुम्हारे घर में अन्न नहीं है, क्या क्योंकि संतान तो दुर्लभ होती है। स्त्री ने रूपावती को उत्तर दिया कि मेरे घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है और संसार में सबसे दुर्लभ तो जीवन है। रूपावती उसको भरोसा देती है कि वो अपने घर जाकर खाने का कुछ सामान लेकर आती है, लेकिन वो स्त्री भूख से इतनी व्याकुल थी कि उसने कहा कि जब तक तुम घर जाकर खाना लाओगी तबतक मेरी मृत्यु हो जाएगी। अब रूपावती के सामने संकट था। वो सोच रही थी कि अगर बच्चे को लेकर गई तो स्त्री भूख से मर जाएगी और अगर बच्चे को छोड़कर गई तो ये स्त्री उसको खा लेगी। उसी वक्त रूपावती सोचती है कि अगर वो अपने आत्मतेज, बल और उत्साह का सहारा लेकर इस स्त्री को अपने मांस से तृप्त कर दे तो दोनों की जान बच जाएगी। रूपावती ने उस स्त्री से पूछा कि तुम्हारे घर में कोई हथियार है। उस स्त्री ने उसको वह जगह बताई जहां कटार रखी थी। रूपावती ने उस तीखी कटार से अपने दोनों स्तन काटकर उस स्त्री को रक्त और मांस से तृप्त कर दिया। उसके बाद रूपावती ने उस स्त्री से वादा लिया कि वो जबतक अपने घर से उसके लिए खाने का सामान लेकर आती है तबतक वो अपने बच्चे को सुरक्षित रखेगी। रूपावती अपने घर पहुंची को उसके शरीर से रक्त बहता देख पति ने पूछा कि क्या हुआ तो उसने पूरा वाकया बताया और अनुरोध किया कि खाना लेकर उसके घर जाओ।
यह सुनकर उसके पति ने कहा कि भोजन लेकर तो तुम ही जाओगी। रूपावती के पति ने सत्य की शपथ की और कहा कि तेरे जिस सत्य वचन से इस प्रकार का आश्चर्यमय अभूतपूर्व धर्म हुआ है वह कभी ना तो देखा गया और ना ही कभी सुना गया। उस सत्य की महिमा से तेरे दोनों स्तन पूर्ववत हो जाएं। सत्य के शपथ के उच्चारण के साथ ही महिला के दोनों स्तन पूर्ववत हो गए। कहा जाता है कि रूपावती के इस त्याग को देखकर इंद्र का सिंहासन भी हिल उठा था। इंद्र भेष बदलकर रूपावती के मन की थाह लेने पहुंचे और पूछा कि तुम्हारे मन में क्या विचार आए थे जो तुमने ऐसा किया। रूपावती ने कहा कि उसने उसने जो किया वो न तो राज्य के लिए, न भोगों के लिए , न इंद्रपद के लिए और न चक्रवर्ती राजाओं जैसे साम्राज्य के लिए था।
दरअसल सच्चे कार्यकर्ता का जो त्याग होता है उसका ध्येय यही होता है कि जो बंधन में हैं वो बंधन मुक्त हो जाएं, जो निराश हैं उनके अंदर आशा का संचार हो और मुष्य के अंदर के दुख को समाप्त किया जाए। उसके लिए भाव महत्वपूर्ण हैं।
भारतीय संस्कृति में भाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भी इस भाव को देखा जाना आवश्यक है और मुझे तो कई बार लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसले के बाद इन घटनाओं पर भी नजर रखना चाहिए। होना ह चाहिए कि कोर्ट के फैसले के बाद कोई रजस्वला स्त्री अगर चाहे जो जाए और पूजा और दर्शन करके लौट आए। यही भाव होना चाहिए। अपने रजस्वला होने का प्रदर्शन करते हुए पूजा करने जाना तो मंशा पर सवाल खड़े करता ही है। जब कोई स्त्री अपने रसजस्वला होने का प्रदर्शन कर मंदिर जा रही होती तो उसका भाव पूजा का या भगवान के दर्शन का नहीं होता है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वो प्रदर्शन के लिए जा रही हैं। स्मृति ईरानी का बयान इसी भाव को ध्यान में रखकर दिया गया प्रतीक होता है। उन्होंने तो इस बयान के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव भी साझा किए। उनके बयान को छद्म-प्रगतिशीलता के आईने में देखा गया और बेवजह वितंडा खड़ा करने की कोशिश की गई। अगर बयान के भाव को समझा गया होता, अगर भारतीय संस्कृति और संस्कार का ध्यान रखा जाता तो इस तरह से विवाद खड़ा नहीं होता। विवाद खड़ा के लिए आवश्यक था कि बयान के साथ साथ पूरे मसले को इस तरह से पेश किया जाए कि इससे स्त्री का अपमान हुआ है। और यह कोई नई बात नहीं है, इस तरह से भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की पहले भी कोशिश हुई है। स्मृति ने कहीं ऐसा नहीं कहा कि मंदिर में रजस्वला स्त्री को नहीं जाना चाहिए। उसने कहीं नहीं कहा कि रजस्वला स्त्री अपवित्र होती है लेकिन इसको प्रचारित इसी तरह से किया गया। स्त्री को अधिकार दिलाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाई जाए, सैकडों सालों से चली आ रही मान्यताओं पर प्रहार किया जाए। कुरीतियों पर प्रहार जरूरी है लेकिन कुरीति, रूढ़ी और परंपरा में अंतर है और इस अंतर को जब प्रगतिशीलता का झंडा उठानेवाले लोग समझ जाएंगें तो इस तरह के अज्ञानतापूर्ण विवाद खड़े नहीं होंगे।

1 comment:

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 28/10/2018 की बुलेटिन, " रुके रुके से कदम ... रुक के बार बार चले “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !