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Saturday, August 24, 2019

सोबती पर लिखूंगी संस्मरण- मुद्गल


चित्रा मुद्गल हिंदी की वरिष्ठ कथाकार हैं। अपने जीवन में पचहत्तर बसंत देख चुकी चित्रा मुद्गल पिछल छह दशक से सृजनरत हैं। उनको साहित्य अकादमी समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्होंने गुजराती और मराठी में भी कविताएं लिखी हैं। ुउन्होंने दिल्ली शहर के अपने अनुभव मुझसे साझा किए। 
सबसे पहले आपको एक दिलचस्प बात बताऊं क्योंकि उसका दिल्ली से गहरा संबंध है। मेरे पिताजी बड़े जमींदार थे, मां प्रतापगढ़ इलाके के बड़े तालुकेदार घराने की थी, दादी अमेठी की बडे परिवार से थीं। ऐस में जब मैंने फरवरी 1965 में अवधनारायण मुदगल से शादी की तो हमारे पूरे खानदान में हंगामा मच गया। किसी के गले ये बात उतर ही नहीं रही थी कि हमारे परिवार की लड़की अपनी मर्जी से शादी कर लेगी वो भी अपनी जाति से बाहर के लड़के से। हमारे घर में हमेशा ये कहा जाता कि जो भी लड़की ऐसी जुर्रत करेगी उसको आंगन के बाहर के ढंके हुए कुंए में डाल दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि पांव फिसलने से कुंए में गिर गई। जब मैंने अवध से शादी की तो मेरे पिताजी बहुत नाराज हुए। मेरे प्रेम विवाह ने उनको अंदर तक हिला दिया था और वो इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। वो इस जुगत में लगे हुए थे कि अवध को किसी तरह से जेल भिजवा दें और फिर मेरी शादी अपनी मर्जी से करवा सकें। वो सोच रहे थे कि जैसे ही अवध जेल जाएगा तो लड़की के सर से मोहब्बत का खुमार उतर जाएगा। हम पिता के सामर्थ्य से डरकर अप्रैल 1965 में मुंबई से दिल्ली आ गए। दिल्ली आकर सबसे पहले सर्वेश्वर भाई साहब के घर पर एक महीना रुके। उसके बाद राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के साथ भी महीने भर रुके। लोग कहते हैं कि मैं और अवध शादी कर भागकर दिल्ली आ गए थे। ये बात गलत है। हमें भागने  की जरूरत ही नहीं थी। दो महीने में ही हम फिर वापस मुंबई लौट गए थे। बाद में जब मेरे पिता बीमार पड़े और कोमा में जाने के पहले मेरा हाथ पकड़कर मुझसे कहा कि मैं सोचता था कि मां-बाप अपने बच्चों के लिए सुख खरीद सकते हैं पर अब मुझे लगता है कि सुख खरीदा नहीं जा सकता था। ये मेरे लिए बहुत ही भावुक क्षण था।
1979 से लेकर 1982 का दौर मेरे लिए बहुत उथल पुथल का रहा। मेरे पति अवध सारिका पत्रिका में काम करते थे। प्रबंधन ने सारिका को दिल्ली शिफ्ट करने का फैसला लिया। प्रबंधन कमलेश्वर से छुट्टी पाना चाहता था। उनको लगता था कि कमलेश्वर नौकरी तो सारिका की करते हैं लेकिन जुटे फिल्म लिखने में रहते हैं। इसको खत्म करने के लिए सारिका को मुंबई से दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया। अवध को सारिका का सहायक संपादक बनाकर दिल्ली भेजा गया। जब हम दिल्ली आए तो लारेंस रोड में रहने लगे। पर मेरा मुंबई आना जाना-लगा रहता था। बच्चों की पढ़ाई थी और मैं भी वहां ट्रेड यूनियन में सक्रिय थी। लारेंस रोड के बाद हमारा नया ठिकाना बना था दरियागंज, वहां भी हम रहे। जब अवध को सारिका का संपादक बनाया गया तो हमें ग्रेटर कैलाश में शिफ्ट करने का विकल्प दिया गया था, पर हमारे दोस्तों ने सलाह दी कि अपने जैसे लोगों के बीच रहना चाहिए। फिर हमलोग मयूर विहार फेज 1 में शिफ्ट कर गए। उस समय मयूर विहार में अदभुत माहौल था। काला जल जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले शानी के फ्लैट पर हर दिना लेखकों का जमावड़ा लगता था। साहित्यिक अड्डेबाजी होती थी, कहानियों से लेकर दुनिया जहान की बातें होती थीं। शाऩी के घऱ होनेवाली उस बैठक में विष्णु खरे और प्रयाग शुक्ल लगभग नियमित थे, बाद में विजयमोहन सिंह भी आने लगे। शानी की पत्नी मुझे टिफिन में अच्छा खाना बनवाकर भेजती थी। वो मजाक में कहती भी थीं कि बेचारी ठकुराइन को ब्राह्मण से शादी कर घास-फूस खाना पडता है। मयूर विहार में मैंने कई घर बदले लेकिन आजतक वो इलाका छोड़ा नहीं। मैं कृष्णा सोबती जी के पड़ोस में भी लंबे समय तक रही और उनकी कई निजी बातों की साक्षी रही। मेरे नए उपन्यास में इऩ बातों पर लिखने की सोच रही हूं।   
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

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