इस वक्त हिंदी के सबसे समादृत लेखकों में से एक नरेन्द्र कोहली
ने लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। उन्होंने भारतीय पौराणिक
चरित्रों पर विपुल लेखन किया है। उनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। अभी वे
केंद्रीय फिल्म प्रमाणण बोर्ड के सदस्य हैं। उन्होंने दिल्ली के अपने शुरुआती दिनों को मुझसे साझा किया।
मैं 1961 में यानि आज से 68 साल पहले जमशेदपुर से दिल्ली आया।
मैंने जमशेदपुर के कॉपरेटिव कॉलेज से बीए किया था और एम की पढ़ाई के लिए दिल्ली
आया। उस वक्त डाक से ही नामांकन आदि हो जाते थे। मुझे रामजस कॉलेज का छात्रावास
मिला था और मैं दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरकर सीधे छात्रावास में रहने चला गया था।
उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए के लिए भी किसी कॉलेज में नामांकन होता था और
क्लास के लिए पोस्ट ग्रेजुएट विभाग में जाना पड़ता था। 1963 में मैंने एमए पास
किया और उसी वर्ष मुझे डी ए वी कॉलेज में सहायक व्याख्याता की नौकरी मिल गई जहां
मेरा वेतन सवा तीन सौ रुपए प्रतिमाह था। उस वक्त डीएवी कॉलेज पहाड़गंज थाने के
पीछे चला करता था। तब डीएवी कॉलेज ईवनिंग कॉलेज हुआ करता था जो कि मुझे बहुत पसंद
नहीं था। मुझे लगता था कि शादी-वादी करनी है और जीवन व्यवस्थित करना है तो किसी और
कॉलेज में नौकरी करनी चाहिए। 1965 में मैं गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, जो अब मोतीलाल
नेहरू क़लेज है, में व्याख्याता बनकर आ गया। यहां मेरा वेतन भी करीब साढे चार सौ
रुपए प्रतिमाह हो गया था। 1965 में ही मैंने विवाह का इरादा किया। दिल्ली
विश्वविद्यालय में मधुरिमा मुझसे एक साल जूनियर थी। उससे विभाग में देखा
देखी होती थी, थोड़ी बातचीत, कभी कभार कटाक्ष आदि भी होता था। हम दोनों एक दूसरे के
प्रति आकर्षित थे,, प्रेम भी करते थे पर प्रपोज नहीं कर पाए थे। जब मेरी मौकरी लग
गई और मधु फाइनल इयर में आ गई तो एक दिन हमने तय किया कि अब शादी कर लेनी चाहिए। शादी
के बाद हमलोग बंगाली मार्केट इलाके में बाबर प्लेस में रहने आ गए। किसी सरकारी
बाबू का घर था जो हमने किराए पर लिया था। ये 1967 की बात है उस वक्त बाबर प्लेस के
घर का किराया काफी कम था। दो साल बाद हम ग्रेटर कैलाश वन के एस ब्लॉक में रहने आ
गए।
मई 1967 में ग्रेटर कैशाल इलाका काफी खाली था। हर दूसरे घर पर
टू लेट का बोर्ड लगा था। उस इलाके में अगर आप किराए का मकान देखने जाते तो मकान
मालिक आपकी बांहें पकड़कर अपना घर किराया पर देने को तैयार होते थे। हमने 275 रु
प्रतिमाह के किराए पर घर लिया और वहां 17 वर्षों तक रहे। उस वक्त ग्रेटर कैलाश
इतना खाली था कि आप अभी कल्पना नहीं कर सकते। हमें शॉपिंग आदि करने के लिए साउथ
एक्सटेंशन जाना पड़ता था या फिर लाजपत नगर। हमारे देखते देखते ग्रेटर कैलाश में
भीड़ इतनी बढ़ गई क्या कहने। 17 साल बाद जब हमने पीतमपुरा में अपना घर बनाया और
किराए का मकान छोड़ा तो ग्रेटर कैलाश का चेहरा पूरी तरह बदल गया था। हम 17 साल तक
275 रु प्रतिमाह के किराए पर ही रहे। मकान मालिक अमेरिका में रहता था और कभी कभार
ही किराया बढ़ाने को कहता लेकिन कभी बढ़ाया नहीं। जब हम मकान खाली कर रहे थे तो उस
वक्त घर खाली करने का रेट तीन लाख रुपए था जो मकान मालिक अपने किराएदार को देता
था। लेकिन मैंने कोई पैसा नहीं लिया क्योंकि मुझे ये अनुचित लगा था।
1983 के नवरात्रों में मैं पीतमपुरा में रहने आ गया था। मैंने
कहीं पढ़ा था कि ये इलाका पृथ्वीराज चौहान के नाम पर था और पहले इसका नाम पृथोपुरा
होता था जो बाद में पीतमपुरा हो गया। और अब तो डीडीए ने इसका नाम बदलकर मौर्य
एंक्लेव कर दिया है। पीतमपुरा में जिस सड़क पर हमारा घर था वहां कोई ट्रैफिक नहीं
होता था लेकिन अब तो उस सड़क को पार करने में दस मिनट लग जाते हैं। शादी के पहले
हमलोग बहुधा फिल्में देखने जाते थे। हमारा पसंदीदा सिनेमा हॉल रिवोली, रीगल और
ओडियन हुआ करता था। लेकिन मुझे नाटक देखना ज्यादा पसंद था। बंद थिएर में मुझे अजूब
सी घुटन होती है। और पिछले लगभग 35 साल से मैंने थिएटर में जाकर कोई फिल्म नही
देखी। नाटक के समय पर भी यानि शाम में जब उसका मंचन होता है तो ट्रैफिर इतना होता
है कि देखने जाने की हिम्मत नहीं होती है। दिल्ली काफी बदल गई है, भीड़ और
गाड़ियों ने इस शहर की शक्ल पूरी तरह से बदल दी है।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)
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