कम्युनिस्ट पार्टियों से संबद्ध लेखकों के
अपने-अपने संगठन हैं। सीपीआई की प्रगतिशील लेखक संघ है, सीपीएम की जनवादी लेखक संघ
है, सीपीआई-एमएल की जन संस्कृति मंच है। इन लेखक संगठनों की स्थापना चाहे जिस भी
उद्देश्य से हुई हो लेकिन पिछले कई वर्षों में ये अपने अपने राजनीतिक दलों के
बौद्धिक प्रकोष्ठ बनकर रह गए हैं। जो इनका पितृ-संगठन जो करता है ये उसके
पीछे-पीछे चलते हैं। बहुधा अपने राजनीतिक दलों की नीतियों को बौद्धिक जामा पहनाने
का काम भी करते हैं। एक और संगठन है जिसका नाम है दलित लेखक संघ। ये दलित लेखकों
के हितों को लेकर चलने का दावा करता है लेकिन इसके ज्यादातर कार्यक्रम जनवादी लेखक
संघ से संबद्ध ही नजर आते हैं। इस संगठन में पिछले दिनों काफी विवाद हुआ था जिसके
बाद भारतीय दलित लेखक संघ की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष इन दिनों अजय नावरिया हैं।
उसके बाद एक अंबेडकरवादी लेखक संगठन भी बना जो अभी ठीक से सक्रिय भी नहीं हो पाया
है। इन लेखक संगठनों के बारे में बताने की वजह इनका एक साझा बयान है। ये बयान 29
जुलाई 2019 को जारी किया गया। पहले ही बताया जा चुका है कि लेखकों के हितों से अधिक
इनको अपने राजनीतिक आकाओं की चिंता रहती है लिहाजा इनका साझा बयान भी राजनीति की
बिसात का एक मोहरा है। लेखक संगठन है, जाहिर है कुछ पढ़े लिखे लोग इसके साथ जुड़े
हैं, लेकिन जो बयान जारी हुआ है उसकी भाषा से घृणा की बू आती है। लेखकों के संगठन
के बयान में अगर घृणा नजर आए तो समझ लीजिए कि उसमें कोई ना कोई राजनीतिक हित है। इनके
साझा बयान का एक हिस्सा देखिए- लेखक-कलाकार हमेशा से सत्ता के विरोध में रहे हैं, लेकिन मोदीराज
में सत्ता के विरोध का विरोध एक स्थायी रुझान बनता जा रहा है| जब 2015 में
लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों ने अपने पुरस्कार लौटा कर सत्ताधारी दल की असहिष्णुता
का विरोध किया तो एक हिस्सा,
भले ही इस हिस्से के लोगों का कद
अपने-अपने कार्यक्षेत्र में उतना बड़ा न हो, उनके विरोध में उठ खड़ा हुआ| जब 23 अक्टूबर 2015 को प्रो.
कलबुर्गी की शोकसभा की मांग के साथ लेखक-कलाकार साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल
की बैठक के मौक़े पर अपना मौन जुलूस लेकर पहुंचे, तब वहां भी भाजपा समर्थक
लेखकों-कलाकारों का एक जमावड़ा इनके विरोध में मौजूद पाया गया जिसमें नरेन्द्र
कोहली जैसे औसत दर्जे के लोकप्रिय लेखक को छोड़ दें तो कोई प्रतिष्ठित नाम नहीं था|’ चार लेखक संगठनों का ये बयान नरेन्द्र कोहली को
औसत दर्जे का लोकप्रिय लेखक कह रहा है। लेखक संगठनों के बयान से ये अपेक्षा की
जाती है कि वो शब्दों के चयन में सावधान रहें। नरेन्द्र कोहली इस वक्त हिंदी के
सबसे समादृत लेखक हैं जिनकी व्याप्ति समाज के हर वर्ग में है। वो हिंदी के इकलौते
लेखक हैं जिनके लेखन के, जिनकी कृतियों के लाखों मुरीद हैं। अब जरा उन नामों को
देख लिया जाए जो इन चार लेखक संगठनों की नुमाइंदगी करते हैं। इस साझा बयान पर जिनके
हस्ताक्षर हैं। जनवादी लेखक संघ से मुरली मनोहर
प्रसाद सिंह हैं, प्रगतिशील लेखक संघ से राजेंद्र राजन हैं, जन संस्कृति मंच से मनोज
कुमार सिंह और दलित लेखक संघ से
हीरा लाल राजस्थानी हैं। आज इनसे ये पूछा जाना चाहिए कि मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
की हिंदी जगत में एक लेखक के रूप में कितनी स्वीकार्यता या प्रतिष्ठा है। दिल्ली
विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे मुरली बाबू शिक्षक राजनीति करते रहे और कभी कभार कोई
किताब आदि छप जाती थी। उनका हिंदी साहित्य को क्या और कितना योगदान है ये पाठकों
के सामने आना शेष है। औसत तो दूर की बात इनको लेखक के रूप में कौन जानता है? दूसरा हस्ताक्षर है प्रगतिशील लेखक संघ के राजेन्द्र राजन का।
उनके लेखकीय योगदान के बारे में किसी को कुछ नहीं पता। जन संस्कृति मंच के मनोज
कुमार सिंह हैं, उनका लेखकीय कर्म और संस्कृति के लिए किया जानेवाला कार्य भी अभी
पाठकों या दर्शकों के समक्ष नहीं है। चौथे हैं हीरालाल राजस्थानी जो दलित लेखक संघ
के नुमाइंदे के तौर पर इस साझा बयान पर उपस्थित हैं। हीरालाल राजस्थानी दिल्ली में
चित्रकारी सिखाते हैं, क्या लिखते हैं या साहित्य में किस विधा में सिद्धहस्त हैं
इसके बारे में अभी जानकारी सार्वजनिक होना शेष है। ये चारो मिलकर नरेन्द्र कोहली
को औसत लेखक करार दे रहे हैं। है न आश्चर्य की बात। किसी को भी किसी का अपमान करने
का हक नहीं है, इस वजह से इन चार लोगों के बारे में किसी प्रकार का विशेषण
इस्तेमाल नहीं करूंगा लेकिन इनको सोचना चाहिए कि जिस नरेन्द्र कोहली को ये औसत कह
रहे हैं उनके पासंग बराबर भी इनका लेखकीय योगदान होता तो इनकी बातों को गंभीरता से
लिया जा सकता था।
इस साझा बयान की भाषा ऐसी है जो इन लेखक संगठन से जुड़े
लोगों के पढ़े लिखे होने पर भी संदेह पैदा करती है। या हो सकता है कि हाशिए पर चले
जाने की कुंठा से ऐसी ही भाषा उपजती हो। अब जरा इस भाषा को देखिए जो साझा बयान का हिस्सा है, ‘जब 49 नामचीन कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने, जिन पर यह देश गर्व और भरोसा करता
है, प्रधानमंत्री मोदी के नाम खुला
पत्र लिखा है तो जवाब में प्रधानमंत्री ने नहीं, उनके 62 निर्लज्ज
समर्थकों ने पत्रोत्तर लिख भेजा है| यह पत्रोत्तर अडूर गोपालकृष्णन, मणि रत्नम, अनुराग कश्यप, आशीष नंदी, अपर्णा सेन, सुमित सरकार, श्याम बेनेगल, शुभा मुदगल जैसे लोगों द्वारा
उठाये गए एक भी सवाल का जवाब नहीं देता, बस पलट कर कुछ और सवाल उठाते हुए यह साबित करने की बेहद लचर कोशिश
करता है कि मूल पत्र में आयी शिकायतें राजनीतिक पक्षधरता से निकली हैं|’ मोदी के समर्थक
हुए तो आप निर्लज्ज हो गए और अगर आपने उनका विरोध किया तो महान हो गए। अब ये लोग
खुद तय करें कि निर्लज्जता क्या है।
अब जरा बात प्रगतिशील लेखक संघ की कर ली जाए। प्रगतिशील
लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद जहीर की पुत्री और वरिष्ठ लेखिका नूर
जहीर ने प्रगतिशील लेखक संघ के अंदर की बजबजाहट को उघाड़ को सामने रख दिया है। मामला
ये है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक सम्मेलन पूर्व पुलिस अधिकारी और लेखक विभूति
नारायण के सौजन्य से आयोजित हो रहा है। विभूति नारायण राय ने लेखिकाओं को लेकर एक
टिप्पणी की थी जिसपर काफी बवाल मचा था। बाद में विभूति नारायण राय पर सवाल
उठानेवाले ज्यादातर लेखक उनके शरणागत हो गए थे, कुछ को तो उन्होंने उपकृत भी किया
लेकिन अब एक बार फिर से नूर जहीर ने उस प्रश्न को उठाकर प्रगतिशील लेखक संघ को
कठघरे में खड़ा कर दिया है। नूर जहीर कहती हैं, ‘प्रगतिशील
लेखक संघ में बीस साल से बढ़ते हुए पुरुषवाद को देख रही हूं, यह भी जानती हूँ कि पुरुषवाद अकेले
नहीं पनपता, जातिवाद और सांप्रदयिकता उसके हाथ मे
हाथ डाले चलतीं हैं। ऐसे मे अगर कुछ लेखक या लेखिकाएं बिगाड़ नहीं करना चाहती और
चुप्पी बनाए रखतीं हैं तो यह उनका निजी मामला है। मैंने खुद कभी फायदा या नुकसान
को देखकर ‘स्टैंड’ नहीं
लिया है । एक सवाल और एक अपने तजुर्बे की बात कह रहीं हूँ, पहला ये कि ऐसा क्या
मिल रहा है एक पैतृक्तावादी पुरुष को जोड़े रखने से ? नाम, पैसा, यश, सहूलियतें? और
दूसरे पुरुषवाद एक बीमारी है जिसे यदि फैलने से नहीं रोका गया तो वह चुप्पीधारियों
को भी नहीं छोड़ेगी।‘ अब
ये तो नूर जहीर ही जानें या फिर प्रगतिशील लेख संघ के लोग जानें कि वहां पिछले बीस
साल से किस प्रकार का पुरुषवाद बढ़ रहा है? अगर किसी संगठन के संस्थापक की बेटी और सम्मानित
लेखिका को उस संगठन के बारे में इतनी तल्ख टिप्पणी करनी पड़ रही हो तो ये तय करना
आसान है कि ‘निर्लज्जता’ कहां है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब इन
लेखक संगठनों से जुड़े एक कवि ने हिंदी कवयित्री अनामिका को लेकर बेहद आपत्तिजनक
टिप्पणी की थी। इन्हीं लेखक संगठनों से जुड़े एक लेखक ने वाराणसी में अपनी पत्नी
के साथ सरेआम अभद्रता की थी लेकिन इन संगठनों के कार्ताधर्ताओं ने मुंह पर पट्टी
बांध ली थी। ये जब नैतिकता आदि की बात करते हैं तो खोखले लगते हैं। ये लेखक संगठन
अब राजनीति की ऐसी दुकान बन गए हैं जिनके मालिक का दीवाला निकल चुका है और वहां
काम करनेवाले कर्मचारीनुमा लेखक अच्छे दिन की आस में अपने मालिक की सेवा किए जा
रहे हैं।
आमतौर पर मैं कविताएं कम पढ़ता हूं। लेकिन इन
लेखक संगठनों के साझा बयान को पढ़ने के बाद धूमिल की एक कविता की चंद पंक्तियां
याद आ गईं- वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं/ वे वकील हैं/ वैज्ञानिक हैं/ अध्यापक हैं/ नेता हैं/ दार्शनिक हैं/ लेखक हैं/ कवि हैं/ कलाकार हैं/ यानी कि- कानून की
भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
1 comment:
Ration Card
आपने बहुत अच्छा लेखा लिखा है, जिसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
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