भाषा का प्रश्न हमारे देश में रह-रहकर उठता रहता है। यहां भाषा
हमेशा से संवेदनशील मुद्दा रहा है। भाषा के सवाल पर देश ने आजादी के बाद हिंसा भी
देखी है। अभी हाल ही में नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में हिंदी को प्रमुखता देने की
एक खबर से ये विवाद फिर से उठ खड़ा हुआ है। तमिलनाडू के नेता और राज्यसभा सांसद
वाइको ने भी हिंदी को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दिया था। साहित्य अकादमी के
अध्यक्ष के चुनाव में भी भाषा की अहम भूमिका होती है। यह अनायास नहीं है कि साहित्य
अकादमी के 1954 में गठन के बाद 2013 में, यानि उनसठ साल बाद, हिंदी के लेखक
विश्ववनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुने गए। इसमें एक और संयोग हुआ था कि
विश्वनाथ तिवारी का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ यानि वो निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए। ऐसा
नहीं है कि पहले हिंदी के लेखकों ने अध्यक्ष बनने की कोशिश नहीं की लेकिन उनको
सफलता हाथ नहीं लगी। अशोक वाजपेयी ने भी 1998 में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा था
और वो रमाकांत रथ से हार गए थे। उनके पहले शिवमंगल सिंह सुमन भी उपाध्यक्ष पद के
लिए चुनावी मैदान में उतरे थे लेकिन उनको भी सफलता नहीं मिली थी। साहित्य अकादमी
को करीब से जानने वाले लोग ये कहते हैं कि अकादमी के चुनाव में अन्य भारतीय भाषाओं
के लेखक हिंदी के प्रत्याशी के विरोध में एकजुट हो जाते थे। सवाल ये उठता है कि
अन्य भारतीय भाषा के प्रतिनिधियों के मन में हिंदी को लेकर विरोध का ये समान-भाव
क्यों उत्पन्न होता है। साहित्य अकादमी का उदाहरण सिर्फ इस वजह से दिया जा रहा है
क्योंकि इसके सामान्य परिषद में सभी प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों के
प्रतिनिधि होते हैं। भाषा के प्रतिनिधि भी होते हैं। देशभर के विश्वविद्यालयों के नुमाइंदे
भी। साहित्य अकादमी चुनाव के इतिहास पर नजर डालने से ये अंदाज लगता है कि भारतीय
भाषाओं के बीच आपसी संबंध कैसे हैं? एक तरफ तो उनसठ साल तक साहित्य अकादमी में हिंदी
का कोई अध्यक्ष नहीं चुना जा सका और जब हिंदी का प्रतिनिधि अध्यक्ष बना तो
निर्विरोध। इसका विश्लेषण करने पर यह पता लगता है कि विश्वनाथ तिवारी ने साहित्य
अकादमी के अपने उपाध्यक्ष के कार्यकाल में या उसके पहले हिंदी के संयोजक के रूप
में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के बीच एक विश्वास का भाव पैदा किया। विश्वास
साथ लेकर चलने का। आज पूरे देश में इस बात की आवश्यकता है कि हिंदी को आगे बढ़कर
अन्य भारतीय भाषाओं के बीच एक विश्वास का भाव पैदा करना होगा। दूसरी भारतीय भाषाओं
के लोग अगर हिंदी का उपयोग करते हैं और उनसे कुछ गलती होती है या वो थोड़ी हिंदी
और थोड़ी अन्य भाषा का उपयोग करते हैं तो उनको प्रोत्साहन देना चाहिए ना कि उनका
उपहास करना करना चाहिए। चंद महीने पहले की बात है एक गैर हिंदी भाषी
लेखिका-पत्रकार ने हिंदी में लिखना शुरू किया। मात्रा और हिज्जे को लेकर उसका
ट्विटर पर इतना उपहास किया गया कि उसने सार्वजनिक रूप से लिखा कि अब वो हिंदी में
नहीं लिखेंगी। जबकि होना ये चाहिए था कि हिंदी के लोगों को उदार भाव से उसके हिंदी
प्रेम को ना केवल स्वीकार करना चाहिए था बल्कि उत्साहित भी करना चाहिए था। ऐसा ही
एक वाकया गैर हिंदी भाषी दोस्त के साथ भी हुआ। वो किसी हिंदी न्यूज चैनल पर
विशेषज्ञ के तौर पर गईं और हिंदी में बोलते-बोलते स्वाभिक तौर पर उन्होंने
अंग्रेजी में बोलना शुरू किया तो उसको बीच में ही टोक दिया गया। कहा गया कि आप
हिंदी में बोलिए। यहां भी होना ये चाहिए था कि उसको हिंदी में बोलने के लिए
उत्साहित किया जाना चाहिए था। थोड़ी ही सही लेकिन हिंदी भाषा के उपयोग के लिए
तारीफ करनी चाहिए। लेकिन हिंदी के कथित शुद्धतावादियों को बहुधा यह स्वीकार नहीं
होता। शुद्धतावादियों अपनी भाषा को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि उनको
सामनेवाले की भावनाओं का ख्याल नहीं रहता है और वो हिंदी का ही नुकसान कर देते
हैं। इस तरह के कई उदाहरण हैं। हिंदी को उसी तरह से आगे बढ़ना चाहिए जिस तरह से
अन्य भारतीय भाषा चाहे। हिंदी को थोपने या उसको लादने की कोशिश करने से उसकी
स्वीकार्यता में बाधाएं खड़ी होती हैं।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदी को आगे बढ़ाने में गैर
हिंदी भाषी विद्वानों और नेताओं का बहुत अधिक योगदान है। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी’ नामक अपने एक लेख में लिखा है- “वीर सावरकर जब इंग्लैंड में विद्यार्थी थे तब वहां उन्होंने
सशस्त्र क्रांति दल की स्थापना की थी। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने ये लिखा है कि ‘इस दल में अधिकांशत: वो ही छात्र थे,
जो भारत से वहां बैरिष्ट्री आदि पास करने गए थे। इसमें मराठी, गुजराती, पंजाबी,
बंगाली आदि ऐसे लोग थे जो एक दूसरे की भाषा न जानते थे। इसलिए अंगरेजी में ही सब
आपसी व्यवहार बातचीत करते थे। परन्तु, राष्ट्रीयता का उद्रेक उन्हें इस बात पर
लज्जित करने लगा। क्यों हम विदेशी भाषा में आपसी बातचीत करें। क्या हमारी अपनी कोई
राष्ट्रभाषा नहीं है? सब ने निश्चय किया कि हमारी
राष्ट्रभाषा हिंदी है और हमलोग आपस में उसी का व्यवहार करेंगे।‘ चिपलूणकर और आगरकर ने, मराठी के प्रति स्वाभिमान रखते हुए,
राष्ट्रभाषा के पद पर हिंदी की ही प्रतिष्ठा का समर्थन किया। सन् 1888 के ‘केसरी’ में भी इस बात का समर्थन किया गया
था। सन् 1893-94 में श्री केशवराव पेठे नामक महाराष्ट्रीय सज्जन ने ‘राष्ट्रभाषा’ नाम की
पुस्तक लिखकर अपनी जागरूकता का परिचय दिया।“ इससे ये साफ
होता है कि आजादी के आंदोलन में और आजादी के पूर्व भी गैर-हिंदी भाषी लोगों ने
प्रेमपूर्वक हिंदी को अपनाया और बढाया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां गैर हिंदी प्रदेशों के विद्वानों
और नेताओं ने हिंदी को लेकर पूरे भारत को एकजुट करने का उपक्रम आरंभ किया था।
लेकिन कालांतर में राजनीति के दबाव में या कहें कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए
भाषा को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग किया गया।
अगर हम इतिहास के आइने में भारतीय भाषाओं और हिंदी के संबंधों
का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि हिंदी ने किसी भी अन्य भारतीय भाषा का कभी कोई
अहित नहीं किया। ना ही उऩके अस्तित्व को कभी चुनौती दी। जबकि स्थिति इसके विपरीत रही
है। इसपर सभी भारतीय भाषाओं के लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। आज हालत ये
है कि देश की सभी भाषाएं अंग्रेजी के दबाव में हैं। सिर्फ दबाव ही क्यों आज भाषा
को लेकर जो विवाद चल रहा है उसमें अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि उसके सामने सभी
भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति भी लाचार सी प्रतीत होती है। जबतक भाषा के प्रदेश
में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा तबतक हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को मजबूती नहीं
मिल सकती है। अंग्रेजी के पक्षकार ये भ्रम फैलाते हैं कि अगर अंग्रेजी हटाई गई तो
हिंदी उसका स्थान ले लेगी और अन्य भारतीय भाषाओं पर हिंदी का आधिपत्य स्थापित हो
जाएगा। दरअसल ये पूरे तौर पर एक षडयंत्र का हिस्सा प्रतीत होता है क्योंकि
अंग्रेजी को विस्थापित करने का काम भारतीय भाषाओं की एकजुटता के बगैर संभव ही नहीं
है। भारतीय भाषाओं के बीच ये विश्वास पैदा करने का काम हिंदी का है। हिंदी के
शुद्धतावादियों को भी हिंदी को लेकर उदार होने की जरूरत है। हिंदी में जो शब्द
नहीं हैं उनको अन्य भारतीय भाषाओं से लेना चाहिए। भारत सरकार के जो संस्थान हैं
उनको इस दिशा में काम करना होगा। केंद्रीय हिंदी संस्थान अपनी क्षमतानुसार काम कर
रहा है लेकिन वो नाकाफी है। तकनीकी शब्दावली आयोग को बदलते समय के अनुसार उन
शब्दों को हटाना होगा जो हिंदी की बदनामी कर रहे हैं। ऐसे ऐसे शब्द गढ़ दिए गए हैं
जो हिंदी को सरल नहीं बनाते हैं बल्कि उसको कठिन बनाते हैं। उपहास का अवसर भी देते
हैं।
आज आवश्यकता इस बात की भी है कि हिंदी के विरोध की जो राजनीति
हो रही है उसको भी रेखांकित करते हुए लोगों के बीच ले जाना होगा। देश की सभी
भाषाओं के बीच इस राजनीति ने जो शंका का वातावरण बना दिया है उसको रोकने के लिए
बड़े कदम उठाने की जरूरत है। कुछ लोग इऩ दिनों फिर से हिंदी को हिंदुत्व की भाषा
कहकर उसको सांप्रदायिक भी बनाना चाहते हैं। ऐसी कोशिशें पहले भी हो चुकी हैं जो
सफल नहीं हुई। एक बार फिर से इस तरह की कोशिशों को विफल करना होगा। जो लोग हिंदी
को हिन्दुत्व से जोड़ते हैं वो भूल जाते हैं कि जायसी रहीम और रसखान हिंदी के ही
कवि थे। हिंदी तो समान रूप से हिंदू और मुसलमान सभी के घरों की भाषा है। इसको बनाए
रखने और मजबूत करने से हिंदी का भला होगा।
1 comment:
Ration Card
आपने बहुत अच्छा लेखा लिखा है, जिसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
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