Translate

Wednesday, August 28, 2019

साहित्य की अप्रतिम अमृता


अमृत कौर। सौ साल पहले एक ऐसी शख्सियत का जन्म हुआ था जिसने अपनी लेखनी और अपने व्यक्तित्व से भारतीय साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया और दुनिया उसको अमृता प्रीतम के नाम से जानती है। उन्होंने जो जिया उसको ही लिखा । अविभाजित भारत में पैदा हुई अमृता को साहित्य का संस्कार विरासत में मिला। उनके पिता एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे और माता शिक्षिका। जब ये बहुत कम उमर् की थीं तो इनकी मां का निधन हो गया और तब ही इन्होंने किताबों को अपना दोस्त बना लिया था। जब उनकी मां का विधन हुआ तो वो ग्यारह साल की थी और अपने पिता के साथ लाहौर चली गई थीं। अमृता को नजदीक से जाननेवालों का मानना है कि मां के असमय निधन की वजह से उनके स्वभाव में विद्रोह के बीज पड़ गए। जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ तो वो लाहौर से दिल्ली आईं। विभाजन की त्रासदी और दर्द ने उनके विद्रोह को और हवा दी। तबतक उऩकी शादी प्रीतम सिंह से हो चुकी थी। लाहौर में रहते हुए अमृता प्रीतम रेडियो में काम करने लगी थी। उनका रेडियो में काम करना उनके परिवार को रास नहीं आ रहा था। एक दिन उऩके एक बुजुर्ग रिश्तेदार ने उनसे पूछा कि तुम्हें रेडियो में कितने पैसे मिलते हैं तो अमृता ने कहा दस रुपए प्रतिमाह। बुजुर्ग ने तपाक से कहा कि वो रेडियो की नौकरी छोड़कर घर में रहा करें और वो उनको हर महीने बीस रुपए दिया करेंगे। अमृता प्रीतम ने साफ मना कर दिया और कहा कि उनको अपनी आजादी और आत्मनिर्भर होना पसंद है। अमृता प्रीतम ने एक जगह लिखा भी है कि कई बार बच्चों के मां-बाप उनको डरा कर रखना चाहते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज का निर्माण करता है। इसी सोच के साथ अमृता सृजन करती थीं। मात्र सत्रह साल की उम्र में इनकी पहली रचना प्रकाशित हो गई थी। फिर ये सिलसिला थमा नहीं था और वो निरंतर लिखकर भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों को चुनौती देती रहीं। उनका लिखा और उनके आजाद ख्याल समाज के ठेकेदारों को चुनौती देते थे, लिहाजा उनका विरोध भी होता था।
अमृता प्रीतम जब जीवित रहीं तो उनकी रचनाओं को लेकर उनके जीवन को लेकर विरोध होता रहा, उनके निधन के बाद उनके प्यार के चर्चे होते रहे, पहले सज्जाद हैदर के साथ, फिर साहिर के साथ और बाद में इमरोज के साथ। यह साहित्य की विडंबना ही कही जाएगी कि अमृता प्रीतम की रचनाओं पर उतना काम नहीं हुआ जितने की वो हकदार थीं। अमृता प्रतीम को ज्ञानपीठ सम्मान मिला, उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला, उनको पद्मश्री से नवाजा गया। दुनियाभर के अन्य सम्मान उनको मिले। उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट बेहतरीन कृति है जिसमें बहुत बेबाकी और साहस के साथ अमृता पाठकों को अपनी जिंदगी के उन इलाकों में लेकर भी गईं जहां आमतौर पर लेखक जाने से हिचकिचाते हैं या जाते ही नहीं हैं। उनके पाठक उनकी रचनाओं से बेइंतहां मोहब्बत करते थे। लेकिन उनके समकालीन लेखकों को उनके साथी रचनाकारों को उनकी कामयाबी रास नहीं आती थी। इन सबसे बेफिक्र अमृता अपने लेखऩ में और इमरोज के साथ प्यार में डूबी रही थीं।
अमृता प्रतीम विभाजन के बाद दिल्ली आ गईं और अपने अंतिम दिनों तक वो हौज खास की अपनी कोठी में रहीं। दिल्ली में उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड गुजारा, संघर्ष और सम्मान का कालखंड। यहां उनके और इमरोज का प्यार परवान चढ़ा। एक ऐसा रिश्ता जिसपर हजारों पन्ने लिखे गए लेकिन उस प्यार को परिभाषित नहीं किया गया। शुरुआत में जब इमरोज पटेल नगर में रहते थे और उर्दू की मशहूर पत्रिका शमां में काम करते थे तो कई बार अमृता उनके मिलने उनके दफ्तर पहुंच जाती थीं। इमरोज ने दफ्तर में अपने बैठने की जगह के आसपास कई महिलाओँ के चित्र बनाकर रखे हुए थे, वो पत्रिका के लिए भी महिलाओँ के चित्र बनाते थे। एक दिन अमृता ने इमरोज से पूछा कि वो औरतें के चित्र तो बनाते हैं, उनके अपनी कूची से उऩके चेहरे में इस तरह से रंग भर देते हैं कि वो बेहद खूबसूरत दिखाई देती हैं लेकिन क्या कभी वूमन विद ए माइंड चित्रित किया है? इमरोज के पैस कोई जवाब नहीं था। इमरोज ने कला के इतिहास को खंगाला लेकिन उन्हें इस तरह की औरत का कोई चित्र नहीं मिला, तब जाकर उनकी समझ में आया कि अमृता ने कितनी बड़ी बात कह दी, औरतों को सदियों से जिस्म ही समझा गया उनके मन को समझने की कोशिश नहीं हुई। इमरोज और अमृता का जो प्यार था उसमें एक खास किस्म का बौद्धिक विमर्श भी दिखता है जिसको भी व्याख्यायित करने की कोशिश की जानी चाहिए। 1958 का एक प्रसंग है तब इमरोज दिल्ली के पटेल नगर इलाके में रहते थे। दोनों मिलते और पैदल ही घूमा करते इसकी एक बानगी उमा त्रिलोक ने अपनी किताब, अमृता इमरोज में पेश की है। इमरोज ने उनको बताया- हम घूमते रहे, घूमते रहे हलांकि हमें जाना कहीं नहीं था। धरती पर बिखरे फूलों की तरह हम भी उनपर बिखर गए। आसमान को कभी खुली आंखों से देखते तो कभी बंद करके। पुरानी इमारतों की सीढ़ियों पर चढञते उतरते हम एक ऐसी इमारत की छत पर पहुंच गए, जहां से यमुना दिखाई देती थी। अमृता ने मुझसे पूछा क्या तुम पहले किसी और के साथ यहां आए हो? मैंने कहा मुझे नहीं लगता कि मैं मैं कभी भी कहीं भी किसी के साथ गया हूं। हम घूमते रहे और जहां भी दिल चाहा, रुक कर चा पी लेते सबकुछ खूबसूरत था। फिर समय का चक्र चला और इमरोज और अमृता एक साथ रहने लगे। अमृता के दो बच्चे थे जिन्हें इमरोज स्कूटर पर स्कूल छोड़ने जाते थे लेकिन आए दिन पुलिस उनको पकड़ लेती और चालान काट देती थी। फिर दोनों ने तय किया कि वो एक कार खरीद लेते हैं। दोनों ने पांच-पांच हजार रुपए लगाए और दस हजार रुपए में फिएट कार खरीद ली। जब रजिस्ट्रेशन करवाने गए तो दोनों के नाम से रजिस्ट्रेशन का आवेदन दिया। अफसर ने पूछा कि दोनों के बीच रिश्ता क्या है तो उनको बताया गया कि दोनों दोस्त हैं। वो ये मानने को तैयार नहीं था कि एक महिला और एक पुरुष दोस्त भी हो सकते हैं। खैर किसी तरह से रजिस्ट्रेशन संभव हुआ।
अमृता प्रीतम को ज्योतिष पर भरोसा था या नहीं ये कहना मुश्किल है लेकिन इमरोज के साथ रहने के पहले वो एक ज्योतिषी से ये जानने पहुंची थीं कि उनका ये रिश्ता बनेगा या नहीं। उमा त्रिलोक की पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि अमृता की इस जिज्ञासा को सुनने के बाद ज्योतिषी ने आड़ी-तिरछी रेखाएं खींची और कहा कि ये रिश्ता सिर्फ ढाई घंटे का है। गुस्से में अमृता ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। तब ज्योतिष ने और गणना की और कहा कि अगर ढाई घंटे का नहीं है तो ढाई दिन या अधिकतम ढाई साल तक चलेगा। खिन्न मन से अमृता ने कहा था कि अगर ढाई ही करना है तो ढाई जन्म क्यों नहीं। ज्योतिषी के पास कोई उत्तर नहीं था। वो हमेशा ये भी कहा करती थीं कि उनकी कुंडली में सातवें स्थान पर चंद्रमा था बाद में उसकी जगह पर आकर इमरोज बैठ गए। अमृता और इमरोज के प्रेम पत्र भी साहित्य की थाती हैं। एक पत्र की भाषा और भाव दोनों से इसका अंदाज लग सकता है। एक बार इमरोज मुंबई गए तो अमृता ने उनको एक खत लिखा- तुम जितनी सब्जी लेकर दे गए थे, वो खत्म हो गई है, जितने फल लेकर दे गए थे वो भी खत्म हो गए हैं। फ्रिज खाली पड़ा हुआ है। मेरी जिंदगी भी खाली होती हुई लग रही है- तुम जितनी सांस छोड़ गए थे वे खत्म हो रही हैं...  इस तरह के दर्जनों खत हैं जिसमें प्रेम के उन बिंबों का उपयोग किया गया है जो अप्रतिम है।
दिल्ली में रहते हुए अमृता प्रीतम और हिंदी की लेखिका कृष्णा सोबती के बीच ऐतिहासिक विवाद हुआ और मामला अदालत तक पहुंचा था। दरअसल हुआ ये था कि अमृता प्रीतम की एक कृति छपी जिसका नाम था हरदत्त का जिंदगीनामा। उनके किताब को पाठक हाथों-हाथ लेते थे। कृष्णा सोबती को लगा कि अमृता प्रीतम ने अपनी तिताब का शीर्षक उनके चर्चित उपन्यास जिंदगीनामा से उड़ा लिया है। उन्होंने अमृता प्रीतम पर यह आरोप लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। जब ये विवाद उठा तो देशभर के साहित्य जगत में इसकी खूब चर्चा हुई थी। पक्ष-विपक्ष में लेखकों ने लेख आदि भी लिखे थे। गोष्ठियों में भी इसकी खूब चर्चा होती थी। जब केस चल रहा था तब कई लेखकों ने कृष्णा सोबती को समझाने की कोशिश की थी कि जिंदगीनामा शब्द का प्रयोग पहले भी हुआ है और फारसी में इस शीर्षक से कई पुस्तकें मौजूद हैं। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने भी तब कहा था कि श्रद्धेय गुरू गोविंद सिंह की जीवनी भी उनके एक शिष्य ने जिंदगीनामा के नाम से लिखी थी जो कृष्णा सोबती के उपन्यास से काफी पहले छपी थी। लेकिन कृष्णा जी केस लड़ने पर अडिग रहीं तब अमृता प्रीतम ने भी ठान लिया कि वो इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाएंगी। ये केस पच्चीस वर्षों तक चला था। कृष्णा जी की बद्धिक संपदा को लेकर संघर्ष करने की जिंद को अमृता ने परास्त किया और इसका फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में आया। लेकिन वो इस फैसले को देख-सुन नहीं सकीं। वो तबतक दुनिया छोड़कर जा चुकी थीं। दिल्ली में अमृता प्रीतम ने ना केवल सृजनात्मक शोहरत हासिल की बल्कि इसी धरती पर उनकी जिंदगी पूर्ण भी हुई।

2 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

अमृता प्रीतम जी के महिला किरदार ऐसे होते हैं कि उनसे प्रेम हो जाये।अमृता प्रीतम जी को याद करता हुआ एक सुन्दर लेख।

प्रज्ञा पांडेय said...

अमृता पर दिल से लिखा गया लेख। बधाई हो।