हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर दैनिक जागरण के
आयोजन में एक सत्र का विषय था, गांधी और हिंदी। इस सत्र में वक्ताओं ने गांधी के
हिंदी प्रेम को रेखांकित किया। इस चर्चा में एक बात सामने आई कि गांधी हिंदी को
राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करना चाहते थे। दरअसल गांधी शुरुआत में तो ऐसा
चाहते थे, कहा भी था लेकिन बाद के दिनों में वो हिन्दुस्तानी की पैरोकारी करने लगे
थे। गांधी और हिंदी के संबंधों को समग्रता में समझने के लिए हमें हिंदी के आंदोलनों
की ऐतिहासिकता में जाना होगा। पहले गांधी का हिंदी प्रेम और बाद के दिनों में
हिन्दुस्तानी प्रेम गांधी के विचारों का ऐसा विचलन है जिसमें राजनीति को देखना
होगा। इस विचलन को समझने के लिए हमें हिंदी को लेकर चलाए गए आंदोलनों और प्रयासों
को भी देखना होगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास गांधी के आगमन के बहुत
पहले से हो चुका था। 1826 में राममोहन राय ने बंगदूत नाम का एक साप्ताहिक पत्र
निकाला था जिसमें हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी के लेख छपा करते थे। राममोहन
राय हिंदी में लिखते थे और दूसरों को भी हिंदी में लिखने के लिए कहा करते थे। राममोहन
राय के बाद ब्राह्म समाज को केशवचंद्र सेन ने संभाला था। केशवचंद्र सेन हिंदी के
बड़े हिमायती थी। ठीक से याद नहीं है पर कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि एक बार
स्वामी दयानंद कलकत्ता गए थे को केशवचंद्र सेन के साथ ठहरे थे। उस वक्त वो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिख
रहे थे। केशवचंद्र सेन से इसपर उनकी बातें होने लगीं। जब सेन साहब को पता चला कि
स्वामी जी संस्कृत में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की
रचना कर रहे हैं तो उन्होंने स्वामी जी को इसको हिंदी में लिखने की सलाह दी थी। केशव
जी की सलाह के बाद ही स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को हिंदी में लिखा। इस बात के भी पर्याप्त
साक्ष्य उपलब्ध हैं कि केशवचंद्र सेन जी ये महसूस करते थे कि भारत की एकता के लिए
और इसकी स्वतंत्रता के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है जो पूरे देश की संपर्क भाषा
हो। वो इसके लिए हिंदी को सबसे उपयुक्त मानते थे। सेन ने अपनी पत्रिका ‘सुलभ समाचार’ के 1875 के किसी
अंक में बंग्ला में इस विषय पर एक लेख भी लिखा था और अपना मत हिंदी के पक्ष में
प्रस्तुत किया था।
बंकिमचंद्र चटर्जी ने भी ये भविष्यवाणी की थी कि हिंदी
एक दिन इस देश की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी क्योंकि इसकी सहायता से ही भारत में एकता
स्थापित होगी। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी के मुताबिक 1877 में ‘बंगदर्शन’ में एक लेख छपा था
जिसके लेखक का नाम नहीं था पर सभी का अनुमान था कि वो लेख बंकिमचंद्र चटर्जी ने
लिखा था। उस लेख में भी हिंदी को भारत को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर रेखांकित
किया गया था। महर्षि अरविंद ने भी साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्म’ में लिखा था कि ‘भाषा-भेद से देश की एकता में बाधा नहीं पड़ेगी।
सबलोग अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए,हिंदी को साधारण भाषा के रूप में अपनाकर,
इस भेद को खत्म कर देंगे।‘
इस पृष्ठभूमि की चर्चा करने का उद्देश्य सिर्फ
इतना है कि जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई उसके पहले से ही देशभर में ये माहौल
बना हुआ था कि हिंदी ही इस देश को एक सूत्र में जोड़ने का काम कर सकती है। हिंदी
ही वो भाषा है जो इस देश की राष्ट्रभाषा बन सकती है। साफ है कि जब गांधी भारत लौटे
तो उस वक्त पूरे देश के मानस में हिंदी को लेकर एक अपनत्व या कहें कि उसके पक्ष
में एक खास किस्म का माहौल बना हुआ था। दक्षिण अफ्रीका से गांधी के भारत आने के
पहले ही 10 अक्तूबर 1910 को हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थापना हो चुकी थी
और पंडित मदन मोहन मालवीय उसके अध्यक्ष और पुरषोत्तमदास टंडन इसके महामंत्री बन
चुके थे। अदालतों की भाषा हिंदी हो इसके लिए काम शुरू हो चुका था। गांधी इस बात को
भांप गए थे कि हिंदी को भारत की एकता और स्वतंत्रता के लिए उपयोग में लाया जा सकता
है।
अब जरा हिन्दुस्तानी के इतिहास को समझने की कोशिश
करनी होगी। अकबर के समय से ही राजकाज की भाषा फारसी चली आ रही थी। बाद में भी ये चलता
रहा। 1837 में कंपनी राज ने फारसी को कठिन मानते हुए आम जनता के लिए भारतीय भाषाओं
में काम करने का आदेश जारी किया। इस आदेश के बाद बंगला, ओडिया, गुजराती और मराठी
में संबंधित भूभाग में काम होने लगा। संयुक्त प्रांत, बिहार और मध्यप्रदेश का जो
इलाका है वहां काम करनेवालों ने अंग्रेज अफसरों को ये समझा दिया कि उर्दू ही
हिन्दुस्तानी है। इसका परिणाम यह हुआ कि इन प्रांतों में अदालतों की भाषा उर्दू ही
रह गई। जब मदन मोहन मालवीय जी ने अदालतों में फारसी की जगह पर नागरी लिपि का
आंदोलन शुरू किया और ये जोर पकड़ने लगा तो मुसलमानों की तरफ से इसका विरोध शुरू
हुआ। यहीं से भाषा के प्रश्न में संप्रदाय का प्रवेश होता है। हम कह सकते हैं कि
भाषाई संप्रदायवाद का बीज ‘कचहरी में नागरी आंदोलन’ के विरोध के दौरान बोया गया जो बाद में
फला-फूला। 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों को ये बात समझ आ गई थी कि हिंदू और
मुसलमानों के बीच की खाई को और चौड़ा किए उनका राज ज्यादा दिनों तक चलनेवाला नहीं
है। इसको भांपते हुए बरतानिया हुकूमत अदालतों में नागरी लिपि की मांग को खारिज
करने लगी। लेकिन 1881 में अंग्रेजो को समझ आया कि जनता की भाषा हिंदी और लिपि
नागरी है तो अदालतों में फारसी के साथ साथ नागरी के उपयोग की अनुमति भी दे दी गई।
इस स्थिति में गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा
कहना शुरू कर दिया था। वो हर जगह इस आशय का भाषण भी देने लगे थे। दक्षिण के लोगों
को भी हिंदी सीखने के लिए प्रेरित करने लगे थे। कब ये हिंदी प्रेम हिन्दुस्तानी
प्रेम में बदल गया इसको ठीक ठीक चिन्हित करने में कठिऩाई है क्योंकि गांधी एक तरफ हिंदी
के प्रचार प्रसार के लिए काम कर रहे थे तो दूसरी तरफ हिन्दुस्तानी की वकालत करने
में लग गए थे। 28 मार्च 1919 के तूतीकोरन में उन्होंने हिंदी को भारत की
राष्ट्रभाषा बताया था लेकिन 1920 या उससे थोड़ा पहले से गांधी के वक्तव्य गड्डमड्ड
होने लगे थे। जब हिंदी को लेकर आंदोलन जोर पकड़ने लगा तब 1925 के कांग्रेस अधिवेशन
में एक प्रस्ताव पास होता है कि पार्टी का सारा काम-काज, महासचिवों का काम सब आमतौर
पर हिन्दुस्तानी में होगा। फिर 1935 में गांधी ने हिंदी और हिन्दुस्तानी पर अपना
मत और स्पष्ट किया और बोले – हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान
कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। इसी में वो आगे कहते हैं कि
हिन्दुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वो हिंदी
और अरबी में लिखी जाने पर उर्दू कही जाती है। हरजिन सेवक के 1 फरवरी 1942 में वो
फिर से भ्रम पैदा करते हैं जब अपने लेख में लिखते हैं कि हिंदी और उर्दू के मेल से
एक ऐसी जबान तैयार करनी है जो सबके काम आ सके। गांधी धीरे धीरे इसको हिंदू-मुस्लिम
एकता के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने लगे। देश की एकता के लिए भाषा को राजनीति का
औजार गांधी ने बनाया। पहले हिंदी की वकालत करके और फिर उसके बाद हिन्दुस्तानी की
वकालत करके। 1915 से लेकर 1947 तक हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर उनके इतने भ्रमित
करनेवाले बयान और लेख उपलब्ध हैं कि उससे किसी निषकर्ष पर पहुंचना बेहद मुश्किल
काम है। 1945 तक तो गांधी हिन्दुस्तानी के इतने पक्ष में आ गए थे उनके सर्वमान्य
नेता होने के बावजूद उनको साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। जयपुर
के सम्मेलन के खुले अधिवेशन में गांधी के इस्तीफे को रखा गया। रात दो बजे तक इसपर
मंथन हुआ और आखिर गांधी का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। सदस्यों ने भारी मन से
गांधी के इस्तीफे को स्वीकार किया लेकिन इस बात के संकेत मिले कि भाषा के नाम पर
वो गांधी से भी दूबर जाने को तैयार थे।
गांधी हिंदी को लेकर आग्रही थे, बहुत काम किया,
बहुत लेख लिखे, भाषण दिए लेकिन इतना ही उन्होंने हिन्दुस्तानी के लिए भी किया। गांधी
ये कहते भी थे किसी विषय पर अगर उनकी अलग अलग राय है तो उनकी बाद में प्रकट की गई
राय ही अंतिम राय होगी। गांधी की हिंदी को लेकर क्या राय रही है इसपर गंभीर मंथन
की जरूरत है। मंथन बगैर किसी पूर्वग्रह के, बगैर किसी राजनीति के और बगैर किसी
धर्म और संप्रदाय के दबाव के।
1 comment:
हिन्दुस्तानी कुछ वैसा ही कृत्रिम प्रयास था जैसा आजकल हिंग्लिश है |पहले सहज हिन्दी में उर्दू शब्द घुसाने की कोशिश थी अब अंग्रेजी शब्द घुसाने की |
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