Translate

Monday, September 30, 2019

'लेडी नामवर' की उदार अपेक्षा


हिंदी के चर्चित लेखक और अनुवादक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर लिखा, मनोहर श्याम जोशी अक्सर एक बात कहते थे तुम हिंदी वाले हिंदी को ढंग का एक लेखक भी नहीं दे पाए (उनकी मुराद मेरे जैसे हिंदी के विद्यार्थियों से होती थी)। हिंदी के अधिकांश बड़े लेखक वे हैं जो मूलत: हिंदी भाषा-साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं। उसके बाद वो नाम गिनाना शुरू करते- प्रेमचंद, जैनेन्द्र, बच्चन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी आदि आदि के बाद कुछ देर रुककर कहते और मैं ( वे स्वयं विज्ञान स्नातक थे)। एक बार मैंने जवाब दिया कि भले अधिकांश लेखक हिंदी के बाहर के रहे हों लेकिन आचार्य तो एक हिंदी वाला ही है, नामवर सिंह। जोशी जी अपना चश्मा उतारकर कुछ देर अपनी आंखों को मलते रहे, फिर चश्मा पहनकर बोले, तुम हिंदी वाले दूसरा नामवर भी पैदा नहीं कर पाओगे। जैसा कि आमतौर पर होता है कि प्रभात रंजन की पोस्ट पर तरह तरह के कमेंट आते हैं, मनोरंजक भी गंभीर भी, चुटीले भी, कुंठा से भरे हुए भी, प्रशंसात्मक भी, उस दिन भी आए। सबसे दिलचस्प टिप्पणी लिखी वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने। उन्होंने लिखा, अब एक महिला नामवर की जरूरत है। कुर्सी खाली पड़ी हुई है। रोहिणी अग्रवाल से हम सबको उम्मीद है। ममता जी बेहद सजग लेखिका हैं और शब्दों का चयन सावधानी से करती हैं लेकिन ऐसा लगता है कि अतिरिक्त स्नेह में शब्दों के चयन में वो उदार हो गईं। रोहिणी अग्रवाल में उनको महिला नामवर बनने की उम्मीद नजर आ गई। अब फेसबुक पर चलनेवाली बहसों में या फेसबुक की टिप्पणियों में राय तो फैसले की शक्ल में ही आती है जिसका आधार भी आवश्यक नहीं होता। ममता कालिया की टिप्पणी भी इसी शक्ल में आई लेकिन चूंकि उन्होंने अपेक्षा की थी लिहाजा उसको फैसले की तरह नहीं देखकर अपेक्षा की तरह देखते हैं। लेकिन ममता कालिया की इस टिप्पणी में अपेक्षा के साथ-साथ उम्मीद भी थी, इस वजह से जब मैंने इस टिप्पणी को देखा तो चौंका । ममता कालिया जैसी वरिष्ठ और संजीदा रचनाकार को किसी भी लेखक में नामवर सिंह बनने की उम्मीद नजर आती है तो उसको गंभीरता से लेना चाहिए। उसके लेखन का गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए। रोहिणी अग्रवाल विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं। निरंतर समीक्षानुमा टिप्पणियां करती हैं लेकिन आलोचना जिस अनुशासन और तैयारी की मांग करती है वो उनकी टिप्पणियों में अनुपस्थित दिखता है। एक तो उनकी ज्यादातर टिप्पणियां प्रशंसात्मक होती हैं। दूसरे ज्यादातर रचनाएं उनको आह्लाद और आनंद से भर देती हैं। वो ज्यादातर उन्हीं कृतियों पर टिप्पणी करती हैं जो अद्भुत होती हैं और लंबी लकीर खींचती हैं। अभी कुछ दिनों पहले उन्होंने लक्ष्मी शर्मा की कहानी पर एक टिप्पणी लिखी उसका एक अंश देख सकते हैं, जानती हूं कहानी के प्रभाव से चौतरफा घिर कर मैं बहुत कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण कह रही हूं। खुद अपने को बरजना और दुरुस्त करना भी चाहती हूं कि स्त्री की दुरावस्था में स्वयं स्त्री का भी हाथ है। चौबीस घंटे पुरुष को कोसते रहना अपनी निष्क्रियता और कमतरी का स्वीकार है। लेकिन क्या यह भी आज के प्रगतिशील उदार समय का सच नहीं कि डांट-फटकार उपहास-उपेक्षा खाने की प्लेट में परोसी जानेवाली कुछ डिशेज हैं जिन्हें बुद्धिजीवी कमाऊ स्त्री भी पारिवारिक शांति के नाम पर निगल लेती है ?... लक्ष्मी शर्मा की कहानी रानियां रोती नहीं पढ कर मन में उगी रॉ प्रतिक्रिया, आलोचना तो लिख नहीं पाई लक्ष्मी जी, चित्त का उबाल आलोचना के आधार को तहस नहस कर देता है न!’ ये टिप्पणी उनकी है जिनसे ममता कालिया नामवर सिंह बनने की उम्मीद कर रही हैं। इनके बिंब देखिए, जब वो लिखती हैं डांट-फटकार और उपहास-उपेक्षा को खाने वाली प्लेट में परोसी जानेवाली डिशेज बताती हैं। ये बिंब उत्तर आधुनिकता के नाम पर छात्रों को तो पढ़ाई जा सकती हैं लेकिन क्या इस तरह के बिंबों को अपनी टिप्पणियों में रचकर कोई नामवर हो सकता है या नामवर के आसपास भी पहुंच सकता है। या इस तरह की भाषा और बिंब को हिंदी आलोचना स्वीकार करेगी। दूसरे उनके एक और शब्द ने चकित किया वो है रॉ प्रतिक्रिया। काफी देर तक को रॉ का मतलब समझ नहीं पाया। फिर लगा कि वो अनगढ़ प्रतिक्रिया की बात कर रही हैं। यह तो कतई हिंदी आलोचना की भाषा नहीं हो सकती। यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त टिप्पणी फेसबुक पर लिखी गई है इसलिए इसमें गंभीरता से नहीं लेना चाहिए । पर प्रतितर्क ये भी हो सकता है कि एक सार्वजनिक मंच पर की गई टिप्पणी से उसके लेखक की भाषा और भाव के संकेत तो मिल ही सकते हैं। हिंदी में कहा जाता है कि अच्छी आलोचना रचना की ही तरह भाषा का शास्त्रीय नहीं बल्कि सृजनात्मक उपयोग करती है। 
ममता कालिया ने जब रोहिणी अग्रवाल में संभावना देखी और उनका नाम सार्वजनिक तौर पर लिखा तो एक किस्से का स्मरण हो आया जो हिंदी के एक वरिष्ठ उपन्यासकार ने बताया था। हुआ यूं कि वो एक दिन अपने एक मित्र की पुस्तक प्रकाशन की सिफारिश लेकर हिंदी के शीर्ष प्रकाशकों में से एक के यहां पहुंचे। बातचीत शुरू हुई और उपन्यासकार महोदय ने अपने आने का उद्देश्य प्रकाशक महोदय को बताया। पूरी बात सुनने के बाद प्रकाशक महोदय ने जो उत्तर दिया वो आलोचना और समीक्षा पर की गई सटीक टिप्पणी थी। प्रकाशक ने उपन्यासकार से कहा कि आप जिनकी सिफारिश लेकर आए हैं वो समीक्षा लिखते हैं और हम समीक्षा की पुस्तक प्रकाशित करते नहीं हैं। जब उपन्यासकार ने जोर दिया तो प्रकाशक और खुले और बोले कि आलोचना के लिए एक विशेष तैयारी और अध्ययन की जरूरत होती है। आलोचना योजनाबद्ध तरीके से की जाती है जबकि समीक्षा करने के अन्यान्य कारण होते हैं। अब उपन्यासकार महोदय सन्न। उनसे कुछ कहते नहीं बना और वो प्रकाशक के यहां से उठकर चले आए।
दरअसल आलोचना बहुत कठिन विधा है। इस विधा का साधने के लिए आवश्यक है कि आप अपने देश की लेखन परंपरा से पूरी तरह परिचित हों। ना सिर्फ परंपरा बल्कि समकालीन लेखक क्या लिख रहे हैं और वो अपने लेखन में किस तरह का प्रयोग कर रहे हैं, अपने लेखन से अपनी परंपरा को किस चरह से चुनौती दे रहे हैं आदि। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर इस वक्त साहित्य में किस तरह का लेखन हो रहा है, किस तरह की नई लेखकीय प्रवृत्ति आकार ले रही है इसका भी भान हो। नामवर सिंह ने ना सिर्फ विदेशी साहित्य को पढ़ा था बल्सि संस्कृत समेत अन्य भारतीय भाषाओं के लेखन से भी परिचित थे। नामवर सिंह की एक खूबी और थी कि वो अपने समकालीनों को तो पढ़ते ही थे, नए से नए लेखकों की रचनाएं भी उनकी नजर से गुजरती थी और जब भी उनको उचित लगता था तो उसपर टिप्पणी भी करते थे। कभी भी ऐसा नहीं देखा गया कि उनके चित्त के उबाल ने उनकी आलोचना के आधार को तहस नहस कर दिया हो आलोचक को रचना पढते समय और उसकी आलोचना करते समय अपनी संवेदनाओं पर काबू रखना पड़ता है। राग-द्वेष और मित्रता आदि से तो दूर रहना ही पड़ता है। यहां निराला और पंत का उदाहरण देना उचित होगा। ये छायावाद के दौर की बात है। पंत और निराला में बेहद घनिष्ठ संबंध थे लेकिन जब पंत की कृति पल्लव पर लिखने की बात आई तो निराला ने अपनी घनिष्ठता को अलग रखते हुए उसपर बेहद कठोर टिप्पणी की थी। इसके ठीक उलट राग-द्वेष का भी उदाहरण है। जब विजयमोहन सिंह कहते हैं कि राग दरबारी तो घटिया उपन्यास है और मैं उसको हिंदी के पचास उपन्यासों की सूची में भी नहीं रखूंगा और ये तीन कौड़ी का उपन्यास है। इस तरहब की प्रवृत्ति ने तब जोर पकड़ा जब हिंदी आलोचना ने साहित्य की आसान पंगडंडियों पर चलना शुरू कर दिया और आलोचक रचनाकार की परवाह करने लगे। आलोचना लिखते समय ये सोचने लगे कि अमुक रचनाकार पर की गई टिप्पणी से कहीं बो बुरा ना मान जाएं। आलोचना राजनीति नहीं है जिसमें समझौते की कोशिश की जाए और सभी पक्षों की सहूलियतों का ध्यान रखा जाए। आलोचना दायित्व और विवेक का वो रास्ता है जिसमें किसी रचना को बेहतर ढंग से समझकर सिर्फ और सिर्फ रचना के आधार पर टिप्पणी की जाए और आलोचना लिखते समय रचनाकार कहीं से सोच में भी न आए। अगर कोई आलोचक ऐसा कर पाए तो उससे नामवर सिंह बनने की उम्मीद की जा सकती है।

1 comment:

pritpalkaur said...

पंजाबी में कहते हैं.... मार्के की बात कह दी...... आलोचना या समीक्षा के नाम पर दोस्तियां और रिश्ते निभाने से साहित्य का कोई भला नहीं होता. काश ये बात सब समझ पाते. कोई भी संस्थान हो, व्यक्ति से ऊपर होता है. इस बात का ख्याल रखना सभी का दायित्व है