हिंदी फिल्म के सौ वर्षों से अधिक लंबे इतिहास पर अगर
हम नजर डालते हैं तो पाते हैं कि किसी भी हिन्दुस्तानी ने उनपर कोई मुकम्मल फिल्म
नहीं बनाई। उनके व्यक्तित्व के हिस्सों, उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं और उनके बेटों
के साथ संबंधों पर तो फिल्म बनी लेकिन गांधी को केंद्र में रखकर जिस तरह से रिचर्ड
अटनबरो ने फिल्म ‘गांधी’ का निर्माण किया उस
तरह की कोई फिल्म नहीं बनी। गांधी पर हजारों किताबें लिखी गई, सैकड़ों शोध हुए लेकिन
भारतीय निर्माताओं द्वारा उनपर मुकम्मल फिल्म नहीं बनाना, चकित करता है। जवाहरलाल
नेहरू ने 1963 में राज्यसभा में अपने एक बयान में कहा था कि ‘भारत सरकार के किसी विभाग के लिए महात्मा गांधी
के जीवन पर फिल्म बनाना बेहद कठिन है। सरकारी विभाग इस काम के योग्य नहीं हैं
क्योंकि कोई ऐसा सक्षम व्यक्ति सरकार के पास नहीं है।‘ सरकारी विभाग की बात तो समझ में आती है लेकिन फिल्मों
से जुड़े इतने महान निर्माता-निर्देशक हिंदी में हुए लेकिन किसी ने इस दिशा में
कदम उठाने का साहस नहीं किया। क्या इसके पीछे हिंदी फिल्म के निर्देशकों की गांधी के
विराट व्यक्तित्व के फिल्मांकन को लेकर समझ में हिचक थी या वो कारोबार के लिहाज से
कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। या फिर गांधी की फिल्म को लेकर जो उदासीनता या
नकारात्मक राय थी उसने हिंदी फिल्म के कर्ताधर्ताओं पर मनोवैज्ञानिक असर डाला। अब
जब पूरा देश गांधी के जन्म की एक सौ पचासवीं वर्षगांठ मना रहा है तो एक बार ये
प्रश्न फिर ये यक्ष की भांति हिंदी सिनेमा के सामने खड़ा हो गया है।
गांधी पर समग्रता में फिल्म का निर्माण भले ही
किसी भारतीय फिल्मकार ने नहीं किया लेकिन गांधी के विचार, उनकी जीवन शैली, उनके
प्रयोग, उनके सिद्धांत हिंदी फिल्मों में लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे। कुछ
लोग भले ही ये कहते हों कि हिंदी फिल्मों में गांधी अदालतों और पुलिस थानों में सिर्फ
तस्वीरों में ही दिखाई देते हैं लेकिन अगर फिल्मों की कहानियों को विश्लेषित करें
तो ऐसी दर्जनों फिल्में हमारे सामने है, जिसमें गांधी किसी ना किसी रूप में
उपस्थित हैं। चाहे वो सत्याग्रह हो, अहिंसा हो या फिर गरीबों को विशेष तवज्जो देने
की गांधीवादी परिकल्पना हो। हिंदी फिल्म ने शुरू से ही राजनेता गांधी की जगह गांधी
के व्यक्तित्व के नैतिक पक्ष को चुना, उनकी नैतिक आभा को उभारने की कोशिश की। अगर
हम इस पहलू पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हिंदी फिल्मों ने नायकत्व तो
सुभाषचंद्र बोस को प्रदान किया लेकिन नैतिकता के शीर्ष पर गांधी को बिठाया। इस
सिलसिले में 1948 में बनी फिल्म ‘शहीद’ का उदाहरण सटीक होगा। इस फिल्म में नायक नायिका
गांधी को बहुत अधिक सम्मान तो देते हैं लेकिन उनको अपना आदर्श नहीं मानते, उनके
आदर्श तो सुभाषचंद्र बोस ही हैं। अगर हम हिंदी फिल्मों की सौ साल से अधिक की यात्रा
में गांधी की इस भूनिका को तलाशते हैं तो एक फिल्म और ध्यान में आती है 1950 में
बनी ‘समाधि’। इसमें नायक सुभाषचंद्र
बोस को अपना आदर्श मानता है, उनकी पूजा करता है और गांधी की उपेक्षा करता है।
हिंदी फिल्मों में शायद 1954 में बनी फिल्म ‘जागृति’ एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसमें गांधी के राजनीतिक
पक्ष और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को उभारा गया है। इस फिल्म में गांधी
को देश को आजाद करवाने के लिए धन्यवाद दिया गया है। इसके गाने भी खूब मशहूर हुए
चाहे वो ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल कर’ हो या ‘साबरमती के संत तूने
कर दिया कमाल’। इन दोनों गानों के चित्रांकन में गांधी की
मुस्कारती तस्वीरें अब भी दर्शकों को याद हैं।
1948 में बनी फिल्म ‘शहीद’ से लेकर 2006 में
बनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ तक के फिल्मी सफर में से उन फिल्मों की एक लंबी
सूची बनाई जा सकती है जिसमें गांधी के विचारों की छाप साफ तौर पर लक्षित की जा
सकती है। 1952 में बनी फिल्म ‘आंधियां’ में जब फिल्म का नायक, जो महाजन है और सूद पर
पैसे देता है, अपने पैसे की ताकत पर गांव की एक गरीब लड़की से शादी करना चाहता है
तो पूरा गांव सत्याग्रह का फैसला लेता है। इसी तरह से फिल्म ‘जोगन’ की नायिका अपनी
मर्जी के खिलाफ शादी का प्रतिकार करने के लिए ब्रहम्चर्य का
रास्ता अपनाती है। फिल्म ‘नया दौर’ में समाजवाद को
लेकर गांधी और नेहरू के बीच के द्वंद्व को बेहतरीन तरीके से चित्रित किया गया है।
फिल्म में गांधी की उस उक्ति का इस्तेमाल भी किया गया है जो उन्होंने मशीनों के
बारे में कही थी कि ‘वो मजदूरों को विस्थापित कर देगी और कुछ लोगों के
हाथों में पूरी ताकत सिमट जाएगी’। मशीन और मजदूर के
बीच के संघर्ष को बस और तांगा के माध्यम से दिखाया गया है।
‘मदर इंडिया’ में भी प्रत्यक्ष
रूप से गांधी की उपस्थिति नहीं है लेकिन जिस तरह से एक पूरा परिवार एक ताकतवर
सूदखोऱ के खिलाफ विरोध करता है और उसमें भी मां और उसका एक बेटा अहिंसक तरीके का
सहारा लेते हैं वो परोक्ष रूप से गांधी की याद दिलाते हैं। इसी तरह से अगर हम
देखें तो त्याग से आनंद की अनुभूति की कहानी कई फिल्मों में दिखाई देती है। कई
फिल्मों में नायक दोस्ती की खातिर अपनी खुशी अपने प्यार को कुर्बान कर देता है। यह
भी गांधी का ही प्रभाव है। हिंदू मुस्लिम एकता के गांधी के विचार कई फिल्मों में
दिखते हैं, फिल्म अमर अकबर एंथोनी में तीनों बच्चे गांधी की प्रतिमा के नीचे दिखते
हैं। इसकी प्रतीकात्मकता और प्रेरणा वही है।
गांधी की फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी और वो
फिल्मों को समाज के लिए बुराई मानते थे। और कहा जाता है कि उन्होंने सिर्फ एक ही
फिल्म, रामराज्य, देखी थी जिसके बाद भी उनकी राय बदल नहीं सकी। गांधी भले ही
सिनेमा को पसंद नहीं करते थे लेकिन भारतीय सिनेमा अब भी गांधी के विचारों को बेहद
पसंद करता है।
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