प्रज्ञा संगोष्ठी की स्थापना 1965 में दिल्ली
विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर की थी। इनके संस्थापक थे हंसराज कॉलेज से
जुड़े डॉ सुखवीर सिंह, श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्श के महेश मिश्र, हिन्दू कॉलेज के छात्र सुरेश ऋतुपर्ण और किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र रामकुमार। इसके अलावा भी कुछ उत्साही
छात्र इस संस्था की स्थापना में सक्रिय भूमिका में थे। इन सभी छात्रों की साहित्य
में रुचि थी और उनको लगता था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्यिक रुचि वाले
छात्रों का कोई साझा मंच नहीं था लिहाजा उन्होंने एक दिन प्रज्ञा संगोष्ठी के नाम
से एक संस्था का गठन किया। उस वक्त दिल्ली विश्वविद्लाय में वामपंथ की साहित्यिक
धारा बड़े वेग से बहा करती थी और वो अपनी विचारधारा से इतर लेखकों या छात्रों को
किसी प्रकार का समर्थन नहीं करते थे। प्रज्ञा संगोष्ठी की स्थापना की एक वजह ये
उपेक्षा भी थी। प्रज्ञा संगोष्ठी की बैठकें दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग अलग
कॉलेजों में होती थी। इसका कोई तय एजेंडा नहीं होता था। सभी छात्र जुटते थे और
अपनी कविताएं और रचनाएं एक दूसरे को सुनाते थे। हर महीने इस संस्था की एक गोष्ठी
हुआ करती थी। इस संस्था के पास नियमित आय का कोई साधन नहीं था इसलिए ज्यादातर समय
इसके संस्थापकों को ही चाय-पानी का इंतजाम करना पड़ता था। या कई बार कॉलेज की
साहित्य सभा इनकी गोष्ठियों से जुड़ जाती थी तो वो चाय-पानी का इंतजाम कर देती थी।
इस संस्था के संस्थापकों में से एक सुरेश ऋतुपर्ण के मुताबिक जब ये संस्था शुरू
हुई थी तो इसकी आरंभिक गोष्ठियों का खर्चा 15-20 रुपए हुआ करता था क्योंकि उस वक्त
दो आने में एक समोसा मिलता था और एक आने की चाय आती थी। इसकी गोष्ठियों में मशहूर
कवि अजित कुमार, आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी और कवि रामदरश मिश्र के अलावा प्रेम जनमेजय
और प्रताप सहगल आदि नियमित आया करते थे।
प्रज्ञा
संगोष्ठी नाम की इस संस्था ने उस वक्त एक अभिनव प्रयोग की शुरुआत की थी। दिल्ली
विश्वविद्यालय कविताअब्द जिसका अर्थ होता है दिल्ली विश्वविद्यालय कविता वर्ष के
नाम से एक कविता संग्रह छापने की योजना बनाई। इसके प्रथम अक्षरों को लेकर दिविक-1
नाम से एक कविता संग्रह का प्रकाशन हुआ। इस संग्रह का प्रकाशन संभवत: 1969
के अंत में या 1970 के शुरुआती महीनों में हुआ था। इसका विमोचन दिल्ली
विश्वविद्यालय के टैगोर हॉल में हुआ था। हिंदी विभाग के उस वक्त के अध्यक्ष डॉ
नगेन्द्र ने तब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के अलावा शमशेर बहादुर सिंह को भी
आमंत्रित किया था और वो आए भी थे। उस वक्त शमशेर एक उर्दू शब्दकोश पर काम कर रहे
थे और उसी इमारत में बैठते थे। दिविक एक में एक नवोदित कवि रमेश शर्मा की कविताएं
भी छपी थीं जिन्होंने अपना नाम ही दिविक रमेश रख लिया था और इस वक्त हिंदी के
मशहूर बाल साहित्यकार और कवि हैं। बाद में जब डॉ नगेन्द्र हिंदी विभाग से पद मुक्त
हुए तो सावित्री सिन्हा ने हिंदी विभाग का काम-काज संभाला। तब इन उत्साही छात्रों
ने एक और संग्रह मुट्ठियों में बंद आकार के नाम से एक और संकलन छापा था। उस वक्त
सावित्री सिन्हा ने ऋषभ चरण जैन एवं संतति के मालिक दिग्दर्शन चरण जैन को बुलाकर
छात्रों के इस संग्रह को छापने का अनुरोध किया था, खुद इसकी भूमिका भी लिखी थी।
बाद में डॉ सुखवीर सिंह ने दिविक 2 का प्रकाशन भी किया था।
No comments:
Post a Comment