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Thursday, October 24, 2019

छात्रों-शिक्षकों का साहित्यिक अड्डा


उन्नीस सौ नब्बे के आसपास की बात होगी, उन दिनों हिंदी साहित्य जगत में लघु पत्रिकाएं बहुतायत में निकला करती थीं। इनमें से ज्यादातर पत्रिकाएं एक विशेष विचारधारा का पोषण और सवंर्धन करनेवाली होती थीं। कम संख्या में छपनेवाली इन पत्रिकाओं की मांग उस विशेष विचारधारा के अनुयायियों के बीच काफी होती थी। उस दौर में अलग अलग शहरों में इन पत्रिकाओं की बिक्री के लिए नियत स्थान हुआ करती थी। वहां साहित्यिक लोग पहुंचा करते थे, पत्र-पत्रिकाएं खरीदते थे और वहीं गपबाजी भी हुआ करती थी। दिल्ली में भी एक ऐसा साहित्यक अड्डा होता था दिल्ली विश्वविद्याल के कला-संकाय के कैंपस में। पटेल चेस्ट की तरफ वाली गेट से घुसते ही बांयी ओर सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी के पास खुराना जी की किताबों की एक दुकान थी। उस दुकान पर देश भर में प्रकाशित हिंदी की लघु पत्रिकाएं आया करती थी। खुराना जी की दुकान के पहले चाय नाश्ते की भी एक दुकान थी लिहाजा वहां पहुंचानेवालों के लिए आदर्श स्थिति होती थी। हाथ में चाय का ग्लास लेकर खुराना जी की दुकान पर पहुंच जाते थे। पत्र-पत्रिकाएं देखते थे और फिर आपस में चर्चा भी करते थे। खुराना जी की ये दुकान साहित्य प्रेमी शिक्षकों के साथ साथ छात्रों का भी अड्डा हुआ करता था।
खुराना जी की ये विशेषता थी वो अपने यहां आनेवाले तमाम ग्राहकों को नाम से जानते थे। जानते ही नहीं थे बल्कि उनकी रुचि का भी उनको अंदाज होता था। जैसे ही कोई छात्र या शिक्षक उनके यहां पहुंचता तो वो सीधे उसकी रुचि की पत्रिका या फिर किसी नई पुस्तक के बारे में उसको बताने लगते थे। वो किसी भी पत्रिका या पुस्तक के बारे में इतने रोचक तरीके से बताते थे कि ग्राहक उसको खरीदने के बारे में मन बना ही लेता था। खुराना जी की एक और विशेषता थी कि उनको इस बात का भी अंदाज हो जाता था कि उनका ग्राहक कितने मूल्य तक की पत्र-पत्रिका या पुस्तक खरीद सकता है। पैसों को लेकर वो कभी आग्रही नहीं होते थे और कोई भी ग्राहक चाहे जितने की पुस्तकें या पत्रिकाएं ले जा सकता था और बाद में पैसे खुराना साहब को दे सकता था। उन दिनों खुराना की पुस्तक की दुकान पर रमेश उपाध्याय, उदय प्रकाश, नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी जी आदि भी दिख जाते थे। आज के युवा लेखकों में संजीव कुमार, संजीव ठाकुर और रविकांत भी खुराना की दुकान पर नियमित आनेवालों में से थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस साहित्यिक ठीहे पर छात्रों का भी जमावड़ा होता था और वो अपनी पसंद की पत्रिकाएँ ले जाते थे इस बात की चिंता किए बगैर कि उनके पास उसको खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे हैं या नहीं। इस ठीहे पर कला संकाय की दीवार से सटाकर कुछ बेंच भी रखे रहते थे जिसपर बैठकर बातें होती थीं। छात्र अपने वरिष्ठ शिक्षकों और लेखकों से किसी भी मसले पर राय ले सकते थे। सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी के पास होने की वजह से यहां काफी चहल पहल रहती थी। अपनी दुकान पर आने के पहले खुराना साहब दिल्ली विश्वविद्लाय के छात्रावासों में भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं पहुंचाया करते थे। उनको पता होता था कि कौन से कमरे में साहित्यिक रुचि के लड़के रहते थे। छात्रावास में पत्रिकाएं पहुंचाने के बाद वो अपनी दुकान खोला करते थे। वर्ष दो हजार के आसपास खुराना साहब की दुकान बंद हो गई। क्यों किसी को पता नहीं चल पाया।  दिल्ली विश्वविद्यालय का ये साहित्यक कोना वीरान हो गया।      

2 comments:

Alaknanda Singh said...

खुराना साहब की बंद दुकान के पीछे की वजह अब आपको खोज न‍िकालनी चाह‍िए ... द‍िल्ली में रहने का कुछ तो फायदा हो ... अच्छा संस्मरण है अनंत जी

Alaknanda Singh said...

अच्छा संस्मरण है अनंत जी