इन दिनों हमारे देश में वेब सीरीज की जमकर चर्चा
हो रही है। एक तरफ तो इस प्लेटफॉर्म ने कलाकारों के लिए अभिनय और कमाई का नया
क्षितिज खोला है तो दर्शकों के लिए भी एक ऐसी दुनिया सामने आ रही है जहां किसी तरह
की कोई बंदिश नहीं है, पाबंदी नहीं है। कल्पना का खुला आकाश है जहां विचरण करने की
पूरी छूट है। निर्माताओं और निर्देशकों के लिए मुनाफे का नया द्वार खुला है। कलाकारों,
कहानीकारों, फिल्मकारों को काफी पैसे मिल रहे हैं, कई बार तो अभिनेताओं को फिल्म
से ज्यादा पैसे वेब सीरीज में काम करने के लिए मिलने की खबरें आती हैं। ऐसी ही एक
खबर सैफ अली खान के बारे में आई थी कि उन्होंने ‘सेक्रेड
गेम्स’ करने के लिए एक फिल्म के प्रस्ताव को ठुकरा दिया
था। कला के क्षेत्र में इसको एक सुखद स्थिति के तौर पर देखा जा सकता है। सुखद
इसलिए कि कलाकारों को अपनी कल्पना को पंख लगाने का एक प्लेटफॉर्म मिल रहा है जहां
उनकी कल्पना की उड़ान को बाधित करने के लिए किसी सेंसर या प्रमाणन की कानूनी
बाध्यता नहीं है। कोई सिनेमेटोग्राफी एक्ट उनपर लागू नहीं होता है। लेकिन कई बार
ये देखा गया है कि पाबंदी या बंदिश या पाबंदी के कानून आदि की अनुपस्थिति में
स्थितियां अराजक हो जाती हैं। इन दिनों जिस तरह के वेब सीरीज आ रहे हैं उसमें कई
बार कलात्मक आजादी या रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में सामाजिक मर्यादा की लक्ष्मण
रेखा ना केवल लांघी जाती है बल्कि इस रेखा को मिटाकर नई रेखा खींचने की एक कोशिश
भी दिखाई देती है। इस बात पर बहस हो सकती है कि कलाकारों की स्वतंत्रता या उनकी
कल्पनाशीलता को किस हद तक छूट दी जा सकती है। रचनात्मक आजादी पर जितनी बहस आवश्यक
है उतनी ही व्यापक बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि इस आजादी की सीमा क्या हो। हमारे
देश की अदालतों ने कई बार इसको परिभाषित भी किया है, चाहे वो एम एफ हुसैन का केस
हो या तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन का केस या फिर एक पुस्तक में गांधी के बारे में
लिखी गई भाषा का केस हो।
दो हजार चार में एम एफ हुसैन से संबंधित एक केस
में दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे डी कपूर ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था।
उस फैसले में साफ तौर पर ये कहा गया था कि ‘अभिव्यक्ति की आजादी
को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य
है। कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को अलग अलग तरीकों से
अभिव्यक्त कर सकता है। इन मनोभावों को अभिव्यक्ति की किसी सीमा में नहीं बांधा जा
सकता है। लेकिन कोई भी इस बात को भुला नहीं सकता है कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता
होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होगी। अगर किसी को अभिव्यक्ति का असमीमित
अधिकार मिला है तो उससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो इस अधिकार का उपयोग अच्छे
कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी-देवताओं के खिलाफ
विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हें अपमानित करने के लिए करे।‘ यही बात इन वेब सीरीज पर भी लागू होती है। उन्हें
कलात्मक आजादी के नाम पर असीमित अधिकार मिला है तो उनसे अपेक्षा भी अधिक है कि वो
कलात्मक आजादी के नाम पर अराजक ना हो जाएं। हमारे देश में जब वेबसीरीज का जोर
बढ़ने लगा तो इसपर भी बहस तेज होने लगी। अगर सूक्ष्मता से इसके कंटेंट को देखें या इनके
संवाद पर नजर डालें तो कई बार बेहद आपत्तिजनक बातें सामने आती हैं।
हाल ही में अमेजन के प्राइम वीडियो प्लेटफॉर्म पर
एक वेब सीरीज आई जिसका नाम है ‘द फैमिली मैन’ । ये वेब सीरीज यहां चार भाषाओं में उपलब्ध है। मनोज
वाजपेयी इस सीरीज में मुख्य भूमिका में हैं। इस सीरीज को अगर कला की कसौटी पर भी
कसें तो कमजोर नजर आती है। बहुत लंबा और उबाऊ। ये अलग विषय है। जिस चीज पर चर्चा
होनी चाहिए वो ये है कि इस सीरीज में साफ तौर पर आतंकवाद को जस्टिफाई करने की
कोशिश दिखाई देती है। 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगा हुआ, उसमें एक परिवार
के कई लोग मारे गए। उसकी प्रतिक्रिया में या उसका बदला लेने के लिए एक मुस्लिम युवक
आतंकवादी बन जाता है। हमेशा प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम युवक को ही क्यों आतंकवादी
बनते दिखाया जाता है? दरअसल आतंकवादी बनना एक मानसिकता है उसको धर्म से
नहीं जोड़ा जाना चाहिए लेकिन ये एक चलन चल गया है कि मुस्लिमों पर अत्याचार होगा
तो वो आतंकवादी बनेगा और हिंदुओं पर अत्याचार होगा तो वो अपराधी बन जाएगा। अब यह
भी एक तरह की मानसिक सांप्रदायिकता है। नेटफ्लिक्स पर ‘सेक्रेड गेम्स सीजन टू’ में एक अपराधी पुलिसवाले को कहता है कि ‘इस देश में मुसलमानों को पकड़ने के लिए किसी वजह
की जरूरत नहीं होती।‘ ‘द फैमिली मैन’ में भी उसी तरह का एक संवाद है जहां एक पात्र
कहता है कि ‘मुसलमान हूं इसलिए उठा लाए हो ना।‘ अब ये क्या है? ये कौन
सी कलात्मक स्वतंत्रता के दायरे में आता है। क्या ये समाज को बांटनेवाला नहीं है? संवादों के जरिए एक समुदाय विशेष के मन में भारतीय
व्यवस्था के खिलाफ जहर नहीं भरा जा रहा है। इस तरह के दर्जनों उदाहरण इन वेब सीरीज
को खंगालने पर आपको मिल सकते हैं, जहां व्यवस्था के खिलाफ परोक्ष रूप से एक समुदाय
विशेष को भड़काया जा रहा है। इसी तरह से कश्मीर के हालात को लेकर राजनीतिक
टिप्पणियां हैं। राजनीतिक टिप्पणियों से किसी को कोई आपत्ति नहीं है, होनी भी नहीं
चाहिए, लेकिन जब वो टिप्पणियां किसी राजनीति का या एजेंडा का हिस्सा हो जाती हैं
तो उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है।
‘द फैमिली मैन’ में एक और दिलचस्प
प्रसंग है। आतंकवादी के बारे में सूचना देनेवाले तो दस लाख रुपए का इनाम देने की
घोषणा है। एक व्यक्ति जानकारी लेकर आता है और अफसर से पूछता है दस लाख दोगे ना? वो कहता है सरकार का फैसला है, जरूर मिलेगा। जानकारी
लेकर आया व्यक्ति क्या कहता है जरा सुनिए, ‘पंद्रह लाख देने का
भी तो वादा था, वो तो मिला नहीं, उसी चक्कर में मैंने बैंक में खाता भी खुलवा
लिया।‘ राजनीतिक फैसलों की आलोचना का, उसका मजाक उड़ाने
का अधिकार सबको है लेकिन आतंकवादी के बारे में सूचना देनेवाले को इनाम की घोषणा और
एक राजनैतिक रैली में दिए गए बयान को एक साथ रखकर क्या कहना चाहते हैं? इससे वेब सीरीज के निर्माताओं की सोच का पता चलता
है। हमारे देश में एक से बढ़कर एक राजनीतिक व्यंग्य लिखे गए लेकिन किसी में इस तरह
की तुलना की गई हो, ध्यान नहीं पड़ता।
पहले हिंदू धर्म की कुरीतियों में काल्पनिकता की
छौंक लगाकर उसको मुख्य आधार बनाकर पेश करना, फिर समाज को बांटने की बात करना, देश
की व्यवस्था के खिलाफ मन में जहर भरना और अब परोक्ष रूप से राजनीतिक टिप्पणियों से
मौजूदा सरकार के खिलाफ जनता के मन में अविश्वास पैदा करना ये वो कारक हैं जिसके
आधार पर वेब सीरीज को नियमन के दायरे में लाने का आधार तैयार होता है। इसके अलावा हॉट
स्टार जैसे प्लेटफॉर्म पर ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ जैसा सीरीज
चला उसकी ओर भी ध्यान जाना चाहिए। जिस तरह से वैश्विक श्रृंखला के नाम पर नग्नता
और जुगुप्साजनक हिंसा को दिखाया गया उसपर भी सख्ती से विचार किया जाना चाहिए। विचार
तो इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि क्या हमारा समाज अभी इस तरह की नग्नता के सार्वजनिक
प्रदर्शन के लिए तैयार है। इसके पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये फिल्मों से
अलग हटकर है और निजी तौर पर देखा जाता है लेकिन क्या इन प्लेटफॉर्म पर कोई इस तरह
की व्यवस्था है कि वो देखनेवाले से उनकी पसंद पूछे। उनकी उम्र पूछे। एक बार जिसने
सब्सक्रिप्शन ले लिया वो देख सकता है। वेब सीरीज के कोने में छोटा सा अठारह प्लस
और हिंसा और भाषा की चेतावनी देकर भयंकर खूनखराबा दिखाना, हर वाक्य में गाली-गलौच
और यौनिक दृश्यों का प्रदर्शन उचित प्रतीत नहीं होता। इन सबके पक्ष में ये तर्क
दिया जाता है कि ये सीरीज फलां पुस्तक पर आधारित है और उसमें वैसा है इस वजह से
वैसा दिखाया गया है। या बातचीत में भी तो गाली का उपयोग होता है आदि आदि। इन
फिल्मकारों को ये समझाना होगा कि जीवन को जस का तस उठाकर फिल्मों में नहीं रखा जा
सकता है, जीवन जैसा कुछ दिखा सकते हैं। सरकार को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए और
अगर स्व-नियमन से बात नहीं बन रही है तो सभी के साथ मिल बैठकर इसको किसी संवैधानिक
नियमन के दायरे में लाने पर गंभीरता से आगे बढ़ना चाहिए। अन्यथा कलात्मक आजादी के
नाम पर अराजकता बढ़ती जाएगी।
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