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Saturday, March 21, 2020

यथास्थितिवाद के चक्रव्यूह में संस्कृति


जब आम बजट की तैयारी हो रही थी तो उस वक्त एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यालय में देश के बड़े उद्योगपतियों के साथ बैठक की थी और उनके विचार जाने थे। जिस दिन प्रधानमंत्री इन बड़े उद्योगपतियों के साथ बैठक कर रहे थे उसी दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमरण एक दूसरी बैठक में थीं। वो भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में थिंक टैंक के प्रतिनिधियों, भारतीय जनता पार्टी की पत्रिका कमल संदेश के संपादकीय विभाग से जुड़े लोगों और शिक्षा संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवालों के साथ बैठक कर रही थीं। उस दिन सोशल मीडिया पर दोनों बैठकों की फोटो लगाकर कई लोगों ने तंज भी कसा था। यहां तक कहा गया कि बजट को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा से वित्त मंत्री को बाहर रखा गया। जब बजट पेश किया गया तो इसका असर दिखा। वित्त मंत्री निर्मला सीतामरण ने जो बजट पेश किया उसमें शिक्षा और संस्कृति पर खासा ध्यान दिया गया। शिक्षा के बजट में पांच फीसदी की बढ़ोतरी की गई। संस्कृति मंत्रालय को 2018-19 की तुलना में करीब 200 करोड़ रुपए अधिक आवंटित किए गए। इसका मतलब है कि शीर्ष स्तर पर संस्कृति को लेकर एक सोच है। इस बजट में ही इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज एंड कन्जरवेशन बनाने की घोषणा भी की गई। घोषणाएं भी हुई और बजट में अधिक धन भी मिला लेकिन संस्कृति को लेकर क्या हालात है इसपर विचार करने की आवश्यकता है।
इस स्तंभ में संस्कृति को लेकर कई बार चर्चा भी की जा चुकी है और इस बात पर भी विस्तार से लिखा जा चुका है कि संस्कृति से जुड़े कई संस्थानों में अहम पद खाली हैं। खाली पदों की संख्या बढ़ती जा रही है, नियुक्तियों में देरी हो रही हैं या नियुक्ति हो नहीं रही है। दरअसल जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो हमें सिर्फ संस्कृति मंत्रालय मात्र को ही नहीं देखना चाहिए। इसमें कई मंत्रालय आते हैं जिसको लेकर संस्कृति का वृत्त पूरा होता है। इन सबके सामूहिक प्रयत्नों से ही संस्कृति को मजबूती मिल सकती है या एक नई संस्कृति का विकास हो सकता है। इसमें प्रमुख रूप से संस्कृति मंत्रालय के अलावा सूचना प्रसारण मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विदेश मंत्रालय आते हैं। संस्कृति मंत्रालय और उससे संबद्ध संस्थाओं में खाली पड़े पदों की चर्चा कई बार हो चुकी है। उसमें संगीत नाटक अकादमी का अध्यक्ष पद और जुड़ गया है क्योंकि शेखर सेन का कार्यकाल खत्म हो गया और नई नियुक्ति हुई नहीं।
इस बार हम सूचना और प्रसारण मंत्रालय पर नजर डालते हैं जिसके अंतर्गत संस्कृति का एक बेहद अहम हिस्सा फिल्म और उससे जुड़ी कलात्मक दुनिया आती है। फिल्म से जुड़ी कई संस्थाएं इस मंत्रालय के अंतर्गत आती हैं जो देश में फिल्म संस्कृति के विकास और उसको मजबूत करने में अहम भूमिका निभाती हैं। सबसे पहले हम बात करते हैं फिल्म समारोह निदेशालय की। इस निदेशालय की स्थापना 1973 में की गई थी। भारतीय फिल्मों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी। इसको ही फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार देने की जिम्मेदारी भी दी गई थी जिसके अंतर्गत निदेशालय हर वर्ष अलग अलग श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार देते हैं। इसके अलावा इस संस्था के पास अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का जिम्मा भी है। कई अन्य काम करना भी इसके उद्देश्यों मे शामिल है। अब जरा इस संस्था पर गौर करते हैं। 11 अप्रैल 2018 को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसके निदेशक सी सेंथिल राजन को वापस उनके कैडर में भेज दिया था और उनकी जगह दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक चैतन्य प्रसाद को इस पद का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया था। करीब दो साल बीतने को आए लेकिन अबतक ये संस्था पूर्णकालिक अध्यक्ष की बाट जोह रहा है। चैतन्य प्रसाद दूरदर्शन और मंत्रालय के अपने दायित्व के अलावा इस काम को भी देख रहे हैं। जब कोई भी व्यक्ति किसी काम को अतिरिक्त रूप से संभालता है तो जाहिर सी बात है कि वो अपनी प्रथामिक जिम्मेदारी के बाद बचे हुए समय में ही अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वाह कर पाता है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान लगी आचार संहिता की वजह से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह का आयोजन टला था। इस पुरस्कार को हर वर्ष तीन मई को दिए जाने की परंपरा रही है। ये परंपरा असाधारण परिस्थियों में ही कभी टूटी होगी। पर पिछले वर्ष ये परंपरा टूटी। जो पुरस्कार तीन मई को दिए जाने थे उसकी घोषणा ही अगस्त में हुई जबकि चुनाव नतीजे 23 मई को आ गए थे। पुरस्कार दिसंबर में प्रदान किए जा सके। इस वर्ष भी अबतक पुरस्कारों के लिए जूरी की बैठक शुरू नहीं हो सकी है। पहले ये बैठक 5 मार्च से होने की बात सामने आई थी जूरी बनने में देरी होने की वजह से इसको 15 मार्च तक के लिए टाल दिया गया। अब तो कोरोना की वजह अनिश्चितकाल के लिए टल गया है। इसके अलावा फिल्म समारोह निदेशालय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है जिसके लिए पिछले दो साल से कोई फेस्टिवल डायरेक्टर नहीं है। दो साल पहले सुनीत टंडन फेस्टिवल डायरेक्टर थे।
फिल्म समारोह निदेशालय के अलावा सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध फिल्म की अन्य संस्थाओं की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के चेयरमैन नहीं हैं, प्रबंध निदेशक भी नहीं हैं। चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी इंडिया में भी चेयरमैन का पद खाली है। भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे को जो सोसाइटी चलाती है उसमें भी कई सदस्य नहीं हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सीईओ का पद भी लंबे समय से रिक्त है। ये सूची हो सकता है और लंबी हो। ये सब संस्थान ऐसे हैं जो किसी भी देश में फिल्म संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। और तो और प्रसार भारती में भी इस वक्त को कोई चेयरमैन नहीं है और इसके पांच बोर्ड सदस्यों का पद भी खाली हैं। फिल्मों से इतर एक और संस्था भारतीय जन संचार संस्थान, जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आता है, में भी डायरेक्टर जनरल का पद खाली है। लंबे समय से चयन की प्रक्रिया चल रही है लेकिन अबतक नतीजा सामने नहीं आया है।
ये सब वही संस्थाएं हैं जिसको वामपंथियों ने अपने और अपनी विचारधारा को मजबूत करने और उसका दायरा बढ़ाने में उपयोग किया। इमरजेंसी में समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने वामपंथियों को इन संस्थाओं को आउटसोर्स कर दिया था। उसके बाद से ही वामपंथियों ने इनको अपनी विचारधार को बढ़ाने के औजार के तौर पर उपयोग करना शुरू कर दिया। इसका फल भी उनको मिला। 2014 में जब केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी तो वामपंथियों को ये आशंका सताने लगी थी कि इन संस्थाओं से उनका कब्जा खत्म हो सकता है। हलांकि ऐसा हुआ नहीं। लेकिन सवाल ये उठता है कि संस्कृति के लिए अहम इन संस्थाओं को लेकर केंद्र सरकार उदासीन क्यों हैं। बहुत संभव है कि अफसरशाही इस काम को होने नहीं देना चाहती है। अगर इन संस्थाओं में पूर्णकालिक चेयरमैन, निदेशक या अन्य पदों पर भर्तियां हो जाएंगीं तो अफसरों का दबदबा खत्म हो जाएगा। अफसरशाही तो हमेशा से चाहती है कि यथास्थितिवाद बना रहे और अगर उनके यथास्थितिवाद के मंसूबों को संरक्षण मिलता है तो फिर वो यथास्थितिवाद के देवता बन जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की जब सरकार आई तो उसके बाद जिस तरह के फैसले होने लगे थे तो उनको डिसरप्टर कहा गया था। डिसरप्टर मैनेजमेंट में उपयोग होनेवाला एक ऐसा सकारात्मक शब्द है जिसका उपयोग उसके लिए किया जाता है जो यथास्थितिवाद को चुनौती देता है। डिसरप्टर कोई व्यक्ति भी हो सकता है, कोई संस्था हो सकती है या कोई नई शुरुआत भी हो सकती है। हैरानी तब होती है जब राजनीतिक डिसरप्टर की अगुवाई में ही कुछ मंत्रालयों में यथास्थितिवाद जड़ जमाकर बैठा है। क्या इन संस्थाओं में नियमित अध्यक्ष, निदेशक, प्रबंध निदेशक आदि की नियुक्ति रोकने के पीछे कोई संगठित मंशा है। क्या वामपंथ की ओर झुकाव रखनेवाले अफसर इस काम को येन-केन-प्रकारेण रोक रहे हैं। इस बात पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए प्रशासनिक स्तर भी और राजनीतिक स्तर पर भी क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से भले ही फिल्म और उससे जुड़ी बातें राजनीति को प्रभावित नहीं करती हों लेकिन परोक्ष रूप से वो राजनीति को भी और समाज को भी प्रभावित करती हैं।       

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