फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसपर गंभीरता विचार कम
ही होता है। इसके आयामों को लेकर, इसके क्राफ्ट को लेकर, इसकी कहानियों को लेकर या
इसकी प्रस्तुतिकरण को लेकर सामाजिक संदर्भों के साथ बात कम होती है। हिंदी में तो
और भी कम।आजादी के सत्तर साल बाद भी बहुत कम ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां फिल्म
अध्ययन का अलग विभाग है। पिछले दिनों हिंदी फिल्मों की कहानियों पर काफी चर्चा
होनी शुरू हुई है। इसमें यथार्थ के चित्रण पर भी बहुत बातें हुई। यह भी कहा गया कि
इन दिनों हिंदी फिल्मों की कहानियां आपकी हमारी कहानियों को चित्रित कर रही हैं
लिहाजा इनको दर्शक पसंद भी कर रहे हैं। यह सही भी है कि फिल्मों में इन दिनों
यथार्थवादी कहानियों को ज्यादा पसंद किया जा रहा है। उनमें से कई फिल्मों को समीक्षक,
तो कइयों को समीक्षक और दर्शक दोनों पसंद कर रहे हैं। पर इन दिनों जो यथार्थवादी
कहानियां दिखाई जा रही हैं उसके प्रस्तुतिकरण को देखने की जरूरत है। कहना ना होगा
कि इन यथार्थवादी कहानियों का प्रस्तुतिकरण काल्पनिक होने लगा है। पहले के दौर में
ये होता था कि काल्पनिक कहानियों का चित्रण यथार्थवादी तरीके से होता था। चाहे वो
सत्यजित रे की फिल्में हों, गोविंद निहलानी की फिल्में हो या फिर श्याम बेनेगल की।
ये लोग काल्पनिक कहानियों को चुनते थे और उसके प्रस्तुतिकरण यानि नायक नायिकाओं के
परिवेश से लेकर उसके कास्ट्यूम तक में यथार्थ दिखाते थे। अब क्या हो रहा है कि
कहानियां को यथार्थवादी हो गई हैं लेकिन इनका प्रस्तुतिकरण काल्पनिक हो गया है। ये
काल्पनिकता फिल्म ‘मुल्क’ से लेकर ‘छपाक’ तक में दिखाई देती
है। यहां कहानियां तो दर्शकों के जीवन से उठाई जा रही हैं लेकिन पात्रों से लेकर
परिवेश तक को काल्पनिक बना दिया जा रहा है। यथार्थवादी कहानियों में न तो
यथार्थवादी ड्रेस डिजायनिंग पर ध्यान दिया जाता है न ही पात्रों के चित्रण पर।
दूसरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जो इन कथित
यथार्थवादी फिल्मों के बारे में रेखांकित की जा सकती है वो ये है कि इस तरह की
ज्यादातर फिल्में खबरों के सहारे यथार्थ के करीब जाती हैं। जैसे अगर हम देखें तो
दिल्ली से सटे नोएडा में 2008 में एक स्कूली छात्रा आरुषि तलवार और उसके नौकर की
हत्या होती है। इस दोहरे हत्याकांड की पूरे देश में चर्चा होती है। इस हत्याकांड
और इसकी जांच और उस वक्त के सामाजिक माहौल को केंद्र में रखकर विशाल भारद्वाज एक
कहानी लिख देते हैं जिसपर मेघना गुलजार 2015 में तलवार नाम से एक फिल्म बना देती
हैं। इसी तरह से अगर देखें तो उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में कटरा सहादतगंज में
दो लड़कियों की लाश पेड़ से लटकी मिली थी। उस वक्त इस बात की देश विदेश में चर्चा
हुई थी कि इन दोनों लड़कियों को गैंगरेप के बाद हत्या कर पेड़ से लटका दिया गया
था। इस वारदात पर जमकर राजनीति भी हुई थी। इस बड़ी खबर को केंद्र में रखकर अनुभव
सिन्हा और गौरव सोलंकी ने एक कहानी लिख दी और उसपर आर्टिकल 15 नाम की फिल्म बन गई।
इस फिल्म ने खूब वाहवाही बटोरी, कई पुरस्कार भी मिले। इसी तरह से 2017 में लखनऊ
में एक एनकाउंटर हुआ था जिसमें एक आतंकवादी मारा गया था। मारे गए आतंकवादी के पिता
ने अपने बेटे का शव लेने से ये कहकर इंकार कर दिया था कि वो देश के गद्दार का
अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। उस दौर में ये खबर भी बहुत चर्चित हुई थी। यथार्थ के
करीब जाने के लिए अनुभव सिन्हा ने इसपर एक फिल्म लिख दी जो ‘मुल्क’ के नाम से बनी।
दरअसल ये एक ट्रेंड शुरू हो गया। इसी ट्रेंड के
आधार पर अंकिता चौहान और मेघना गुलजार ने एक फिल्म लिखी जिसका नाम था ‘छपाक’। दरअसल 2005 में लक्ष्मी
नाम की एक लड़की पर एसिड फेंक दिया गया। एसिड फेंकने की इस घटना को लेकर पूरे देश
में खूब चर्चा हुई थी। खुले में एसिड बिक्री पर रोक की मांग को लेकर आंदोलन हुए.
मामला कोर्ट कचहरी तक गया। फैसला हुआ। लक्ष्मी की पीड़ा को लेकर अखबारों में भी
काफी चर्चा हुई थी। ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’, तो उरी में 2016 में आतंकवादी हमले और उसके बाद
भारतीय सेना द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है। इस
फिल्म ने साढे तीन सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस किया।
खबरों के आधार पर फिल्म बनाने का ये चलन चल पड़ा।
फिल्म लेखकों से लेकर निर्माताओं को लगता होगा कि दर्शकों के मानस पटल पर ये
घटनाएं अंकित होंगी जिसका फायदा बॉक्स ऑफिस पर दिखेगा। कई फिल्मों में दिखा भी। कुछ
फिल्मों ने मुनाफा कमाया तो कुछ ने मुनाफा के साथ साथ नाम भी। दरअसल खबरों के आधार
पर कहानी लिखने की जो प्रवृत्ति बॉलीवुड में चली उसके भी आर्थिक कारण हैं। हिंदी
फिल्मों में सबसे कम खर्च कहानियों और स्क्रिप्ट पर किया जाता है। जबकि इसके उलट
हॉलीवुड में कहानियों या स्क्रिप्ट पर बहुत अधिक खर्च किया जाता है। इस तरह के कई
फिल्म लेखकों का तो ये हाल है कि इन घटनाओं को कवर करनेवाले पत्रकारों से पूछकर
कहानियां लिखते हैं। दरअसल वो कहानियां नहीं लिख रहे होते हैं बल्कि वो घटनाओं के
आधार पर सीन लिख रहे होते हैं। सीन लेखन का ये उपक्रम कहानी पर होनेवाले खर्च को
बचा लेता है। कहना न होगा कि ये खबरों का रीमिक्स पेश करने का दौर हैं। जैसे एक
दौर ऐसा आया था कि पुराने हिट गानों को रीमिक्स करके पेश किया गया, उनमें से कई
गाने खूब हिट रहे तो अब खबरों को रीमिक्स किया जा रहा है। यही हाल ऐतिहासिक बड़ी
खबरों के साथ भी रहा है। खबरों के रीमिक्स पर काम करने के क्रम में कुछ लेखक तो
इतिहास की बड़ी खबरों तक जा पहुंचे। उन खबरों तक जिनमे गौरवगाथा भी हो। फिल्म ‘दंगल’ से लेकर फिल्म ‘सुल्तान’ या ‘गोल्ड’ तक में इस चलन को
रेखांकित किया जा सकता है। ‘सांड की आँख’ का अगर उदाहरण लें तो कहानी को सबको मालूम थी
लेकिन फिल्म के लेखक ने सीन लिखे और फिल्म बन गई।
खबरों का रीमिक्स कर फिल्म की कहानी बनाने का
नतीजा ये होता है कि इन फिल्मों से मुनाफा तो कमा लिया जाता है, प्रशंसा भी बटोर
ली जाती है लेकिन इनको लंबे समय तक याद किया जाएगा इसमें भी संदेह है। ये कालजयी
नहीं हो सकतीं। एक दौर वो भी था हिंदी फिल्मों का जब राज कपूर जैसे निर्देशक
कहानियों पर जमकर काम करते थे। एच एस रवैल जैसे लोग कहानियों को लेकर बेहद सतर्क
होते थे। तभी उनकी फिल्में अबतक याद की जाती हैं। ये फिल्में टिकाऊ नहीं होती। यह
अनायास नहीं है कि इन दिनों फिल्मों का फैसला ओपनिंग के आधार पर होने लगा है। पहले
तीन दिन में सौ करोड़ कमाया या नहीं, इसके आधार पर फिल्म को सफल या असफल कहा जाने
लगा है। फिल्मों की कहानी और क्राफ्ट पर कम बात होती है। अच्छी फिल्म का मानदंड
उसकी कमाई हो गई है। ये अनायास नहीं है कि फिल्म की सफलता में अब इसपर भी बात होती
है कि उस फिल्म को कितने स्क्रीन मिले। कितने स्क्रीन पर एक साथ फिल्म रिलीज हुई। यह
अनायास नहीं है कि पिछले सालों में चर्चित हस्तियों पर खूब जमकर बॉयोपिक भी बने,
इन शख्सियतों की सफलता को भुनाने के लिए उनपर फिल्में बनीं। फिल्म निर्माताओं ने
मुनाफा भी कमाया लेकिन अगर बॉयोपिक को याद किया जाता है तो अब भी सबसे पहले रिचर्ड
अटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ की ही याद आती है।
फिल्मों का ये असर वेब सीरीज पर भी पड़ा है। वहां प्रमाणन की कोई व्यवस्था नहीं है
इसलिए यथार्थ के नाम पर अराजकता है।
सौ वर्षों से अधिक के लंबे सफर के बाद अब हिंदी
फिल्मों के कर्ताधर्ताओ को इसपर विचार करना चाहिए कि कहानी पर कितना काम हो, उसपर
कितना खर्च किया जाए। जबतक फिल्म की कहानी पर उसके स्क्रिप्ट पर खर्च नहीं किया
जाएगा तो जिस तरह से लोकेशन की भव्यता का दौर भी खत्म होता दिख रहा है वैसे ही
खबरो की रीमिक्स पर बनने वाली फिल्मों का दौर भी खत्म हो सकता है। दर्शकों के
सामने एक ही तरह की फिल्म आने की वजह से एकरसता का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हिंदी
फिल्मों में एकरसता से उबने का सबसे बडा उदाहरण शाहरुख खान हैं। लंबे कालखंड तक
दर्शकों ने रोमांस के बादशाह को देखा, सराहा भी लेकिन बांहें फैलाकर हीरोइन को
आमंत्रण देनेवाले नायक को नकारने में भी दर्शकों ने वक्त नहीं लिया। यथार्थ के नाम
पर रीमिक्स का दौर भी लंबा चलेगा इसमे संदेह है।
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