इन दिनों फिल्म ‘थप्पड’ की बहुत चर्चा हो रही है। निर्देशक अनुभव सिन्हा
ने बेहतर फिल्म बनाई है। अनुभव सिन्हा से विचारधारा के स्तर पर असहमत लोग भी इस
फिल्म की कथावस्तु को लेकर उनकी सराहना कर चुके हैं। केंद्रीय महिला और बाल विकास
मंत्री स्मृति इरानी ने तो साफ तौर पर कहा भी और लिखा भी कि ‘कितने लोगों ने सुना है कि औरत को ही एडजस्ट करना
पड़ता है। कितने लोग सोचते हैं कि मार पिटाई सिर्फ गरीब औरतों के ही पति करते हैं।
कितने लोगों को ये विश्वास होगा कि पढ़े लिखे लोग कभी हाथ नहीं उठाते। कितनी
महिलाएं अपनी लड़कियों को या बहुओं को कहती हैं कि कोई बात नहीं बेटा ऐसा तो हमारे
साथ भी हुआ लेकिन देखो आज कितने खुश हैं।‘ इंस्टाग्राम पर अपनी पोस्ट में आगे स्मृति इरानी
ने लिखा कि मैं निर्देशक की राजनीतिक विचारधारा को समर्थन नहीं करती हूं, कुछ
कलाकारों से कुछ मुद्दों पर मेरी असहमति हो सकती है लेकिन ये ऐसी कहानी है जिसको देखूंगी
और उम्मीद करती हूं कि लोग भी इसको देखेंगे। किसी भी महिला को मारना उचित नहीं है,
एक भी थप्पड़।‘ इस टिप्पणी के दो बिंदुओं पर ध्यान देना खास है।एक
तो वो जब खुश रहने की बात कही जाती है और दूसरा तब जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा की
बात आती है।
आज विश्व महिला दिवस है और महिलाओं के खिलाफ
होनेवाली हिंसा या उनकी पसंद को तवज्जो देने के मसले पर बात करने का उचित अवसर भी
है। जब फिल्म ‘थप्पड़’ को लेकर बात हो रही
थी तो ये बात भी जेहन में आई कि हमारे देश में कई महिलाएं ऐसी भी हुईं जिन्होंने
हिंसा के अलावा भी अन्य मुद्दों पर पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ संघर्ष किया। अपने
संघर्ष में उनको बहुधा अपमानित भी होना पड़ा लेकिन पुरुष प्रधान समाज में भी
उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पिछले दिनों सुधीर चंद्र की पुस्तक रख्माबाई, स्त्री
अधिकार और कानून पढ़ रहा था। रख्माबाई की कहानी और उनके संघर्ष को सरसरी तौर पर
सुन चुका था लेकिन उनके संघर्ष को पढ़ते हुए लगातार ये लग रहा था कि 1884 में जो
मुकदमा चला था और उसको रख्माबाई ने जिस जिजीविषा से लड़ा वो अतुलनीय है। उस समय के
हिसाब से रख्माबाई का विद्रोह एक असाधारण घटना थी, मेरे जानते इससे पहले किसी
भारतीय स्त्री ने कानूनी तौर पर ग्यारह साल की उम्र में हुए विवाह को मानने से
इंकार नहीं किया था। रख्माबाई ने किया। वो बाल विवाह के चक्रव्यूह से निकलना चाहती
थी। दरअसल अन्य कारणों के अलावा जिस बात को लेकर रख्माबाई सबसे परेशान थी वो ये कि
बाल विवाह के बाद उसका स्कूल जाना बंद हो गया था। वो पढ़ना चाहती थी लेकिन वो संभव
नहीं हो रहा था। उन्होंने बाद में लिखा भी कि- ‘मैं उन
अभागी स्त्रियों में हूं जो बाल विवाह की प्रथा से जुड़े अवर्णनीय कष्टों को
चुपचाप झेलते रहने के लिए विवश हैं। सामाजिक रूप से बेहद गलत इस प्रथा ने मेरे
जीवन की खुशियों को समाप्त कर दिया। यह मेरे और उन चीजों के बीच आ खड़ी हुई है
जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान मानती हूं- अध्ययन और मानसिक विकास। मेरा कोई
दोष न होते हुए भी मुझे समाज से अलग-थलग जीने का शाप झेलना पड़ रहा है। अपने
अज्ञानी बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर आकांक्षा को संदेह की दृष्टि से देखा जाता
है।‘
रख्माबाई ने बाल विवाह को ही चुनौती दे दी थी और
अपने पति के घऱ जाने से इंकार कर दिया था। लगातार अपमानित होने, अदालतों में
वकीलों के अपमानजनक प्रश्नों का सामने करने, सामाजिक दुत्कार को झेलने के बावजूद
भी रख्माबाई ने हिम्मत नहीं हारी। वो पढ़ना चाहती थी, अपने तरीके से अपनी मर्जी की
जिंदगी जीना चाहती थी। उसको ये मंजूर नहीं था कि वो अपने उस पति के लिए अपना
सर्वस्व होम कर दे जिसकी नजर उसकी संपत्ति पर थी। जो उससे ज्यादा प्यार पच्चीस
हजार रुपये कीमत की संपत्ति के साथ करता था जो रख्माबाई को विरासत में मिली थी।
इसको हासिल करने के लिए रख्माबाई के पति ने अपने वैवाहिक अधिकारों के लिए केस
किया। रख्माबाई ने जमकर केस लड़ा और पहला निर्णय उसके पक्ष में आया। लेकिन
रख्माबाई के पति अपील में चले गए जहां से रख्माबाई को निर्देश मिला कि वो अपने पति
के साथ रहने जाए या छह महीने जेल की सजा भुगते। रख्मबाई ने साहस के साथ छह महीने
जेल की सजा भुगतने को चुना था। पर रख्माबाई ने हार नहीं मानी थी और अदालत के फैसले
के खिलाफ क्वीन विक्टोरिया के पास अपील कर दी थी। क्वीन ने ना सिर्फ उनकी अपील को
स्वीकार किया था बल्कि थोड़े समय विचार करने के बाद रख्माबाई के बाल विवाह को रद्द
कर दिया था। लीं कानूनी लड़ाई के बाद रख्माबाई की जीत हुई थी। दरअसल अगर हम देखें तो इस पूरे केस में इस बात
पर बहस हुई थी कि एक महिला अपने पति से संबंध बनाने की सहमति या असहमति दे सकती है
या नहीं। रख्माबाई ने अपने पति के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इंकार कर दिया था।
उधर पति इसको अपना अधिकार मानते हुए अदालत चला गया था। अलग अलग अदालतों ने अलग अलग
फैसले दिए थे। सबसे पहले जिस अदालत में ये मुकदमा चला उसके जज पिनी ने अपने फैसले
में साफ किया- ‘कानून के अनुसार, मैं वादी को उसके द्वारा मांगी
गई राहत प्रदान करने के लिए और इस बाइस वर्षीय युवा महिला को उसके साथ उसके घऱ में
रहने का आदेश देने के लिए, ताकि वादी उक्त महिला के साथ उसके बचपन में हुए अपने
विवाह को परिणति तक पहुंचा सके, बाध्य नहीं हूं।‘ बाद में
अपलीय अदालत ने इस फैसले को पलट दिया था।
जब ये केस चल रहा था तो समाज में इसको लेकर व्यापक
बहस हुई थी। हिंदू मान्यताओं, परंपराओं से लेकर कानून तक को आधार बनाकर पूरे देश
के उस वक्त के समाचार पत्रों ने लेख छपे थे। पूरा समाज इस केस पर बंटा हुआ था। इस
दौर में नैतिकता और कानून के जटिल संबंधों को लेकर भी वंदा-विदा हुआ था। उस दौर
में भी रख्माबाई ने छद्म नाम और द हिंदू लेडी के नाम से अखबारों में लेख लिखकर उस
बहस में हिस्सा लिया था। रख्माबाई के उस दौर में लिखे गए लेख इस महिला की
क्रांतिकारी सोच को सामने लाते है। रख्माबाई के चरित्र के खिलाफ जब लेख छपा तो भी
वो डिगी नहीं और उसने उसका भी लिखित जवाब दिया था।
उस समय के लिहाज से रख्माबाई का विद्रोह एक बहुत
बड़ी सामाजिक घटना थी। इस केस के इर्द गिर्द कई रूढ़िवादियों ने इसमें धर्म को
घुसाने का भी प्रयत्न किया। इसको हिंदू धर्म के खिलाफ, हिन्दू मान्यताओं और
परंपराओं के खिलाफ बताने की कोशिश भी की गई। बावजूद इसके रख्माबाई दबाव में नहीं
आई और अपने निश्चय पर दृढ़ रही। इस केस में रख्माबाई ने प्रत्यक्ष रूप से बाल
विवाह को तो चुनौती दी ही, परोक्ष रूप से इस बात को भी सामने रखा कि महिला किसके
साथ संबंध बनाए, कब बनाए. विवाह होने के बाद भी ये उसका अपना फैसला होगा। सहमति और
असहमति के इस विमर्श पर ही फिल्म ‘पिंक’ बनी। महिला अधिकारो या महिलाओं के संघर्ष पर कई
फिल्में बनी हैं लेकिन अनुभव ने ‘थप्पड़’ में जिस तरह से एक मामूली घटना को महिला के स्वाभिमान से जोड़ दिया और उसके
इर्द गिर्द पूरी कहानी बुन दी उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। आज जब सौ करोड़, दो
सौ करोड़ के मुनाफे की होड़ लगी हो तो ऐसे दौर में इस तरह की संवेदनशील फिल्मों का
निर्माण एक तरह की आश्वस्ति भी देता है। आश्वस्ति कला की, आश्वस्ति क्राफ्ट की और
आश्वस्ति सोच की भी।
रख्माबाई के संघर्ष को याद करने, समाज में
व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ उस महिला के अदम्य साहस को रेखांकित करने और नई पीढ़ी
को अपने समाज की ऐसी साहसी महिला के बारे में बताने के लिए महिला दिवस से बेहतर
कोई अवसर हो नहीं सकता। रख्माबाई उस भारतीय नारी की
प्रतीक हैं जो अपने अधिकारों के लिए तन कर खड़ी ही नहीं होती हैं बल्कि उसको हासिल
करने तक डटीं भी रहती हैं। अपने अधिकारों को हासिल कर लेने के बाद दंभ नहीं
करतीं,जयघोष नहीं करती बल्कि उस अधिकार को आधार बनाकर सामज को और देश को अपनी ओर
देने का प्रयत्न भी करती हैं। रख्माबाई का विद्रोह भले ही सवा सौ साल पहले का हो
लेकिन उससे निकली बहस अब भी प्रासंगिक है।
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