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Saturday, December 26, 2020

सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का प्रतिकार हो


अभी अभी क्रिसमस बीता है, उस अवसर पर एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने बताया कि क्रिसमस के दो दिन पहले उनकी तीन साल की बिटिया ने उनसे पूछा कि ‘व्हेयर इज माइ क्रिसमस ट्री (मेरा क्रिसमस ट्री कहां है)?’ उसके पहले भी वो अपनी बिटिया के बारे में बताते रहते थे कि कैसे अगर वो ब्रश नहीं करती है तो उसको कार्टून सीरियल दिखाना पड़ता है आदि-आदि। वो इस बात को लेकर चिंता प्रकट करते रहते थे कि बच्चों पर इन कार्टून सीरियल्स का असर पड़ रहा है। लेकिन जब क्रिसमस ट्री वाली बात बताते हुए उन्होंने कहा कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि बच्चे कहने लगें कि ‘टुडे इज संडे, लेट्स गो टूट चर्च’ ( आज रविवार है, चलो चर्च चलते हैं) । ये सुनने के बाद मुझे लगा कि उनकी बातों में एक गंभीरता हैं। उनसे बातचीत होने के क्रम में ही एक और मित्र से हुई बातचीत दिमाग में कौंधी। उसने भी अपने दो साल के बेटे के उच्चारण के बारे में बताया था कि वो इन दिनों ‘शूज’ को ‘शियूज’ कहने लगा है। इन दोनों में एक बात समान थी कि दोनों के बच्चे यूट्यूब पर चलनेवाले सीरियल ‘पेपा पिग’ देखते हैं और दोनों उसके दीवाने हैं। लॉकडाउन के दौरान जब बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे और घर पर थे तो ‘पेपा पिग’ और भी लोकप्रिय हो गया। यूट्यूब पर इसका अपना चैनल है जिसको लाखो बच्चे देखते हैं। ‘पेपा पिग’ चार साल की है जिसका एक भाई है ‘जॉर्ज’ और उसके परिवार में मम्मी पिग और डैडी पिग हैं। बच्चे इसके दीवाने हैं कि ‘पेपा पिग’ के चित्र वाला स्कूल बैग से लेकर पानी की बोतल, लंच बॉक्स तक बाजार में मिलते है। बच्चे इन सामग्रियों को बहुत पसंद करते हैं। कई छोटे बच्चों के माता-पिता से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘पेपा पिग’ उनके लिए बहुत मददगार है क्योंकि जब बच्चा जिद करता है या खाना नहीं खाता है तो उसको ‘पेपा पिग’ के उस जिद से संबंधित वीडियो दिखा देते हैं और वो खाने को तैयार हो जाता है। ये कार्टून कैरेक्टर के वीडियोज को ब्रिटेन की एक कंपनी बनाती है और उसको यूट्यूब पर नियमित रूप से अपलोड करती है। 

ये बातें बेहद सामान्य बात लग सकती है। ‘पेपा पिग’ के वीडियोज के संदर्भ में ये तर्क भी दिया जा सकता है कि वो परिवार की संकल्पना को मजबूत करता है। ये बात भी सामने आती है कि ब्रिटेन में जब पारिवारिक मूल्यों का लगभग लोप हो गया तब बच्चों को परिवार नाम की संस्था की महत्ता के बारे में बताने के लिए ‘पेपा पिग’ का सहारा लिया गया है। वो वहां काफी लोकप्रिय हो रहा है लेकिन उन्होंने इन वीडियोज को अपने धर्म, अपनी संस्कृति के हिसाब से बनाया है। लेकिन जिस तरह का असर हमारे देश के बच्चों पर पड़ रहा है, जिस तरह की बातों का उल्लेख ऊपर किया गया है, उसके बाद इन वीडियोज के हमारे देश में प्रसारण के बारे में विचार किया जाना चाहिए। अगर मेरे मित्रों की कही गई बातों का ध्यान से विश्लेषण करें तो इससे बच्चों के दिमाग में एक ऐसी संस्कृति की छाप पड़ रही है जो भारतीय नहीं है। बालमन पर पड़ने वाले इस प्रभाव का दूरगामी असर हो सकता है। बच्चे अपनी भारतीय संस्कृति से दूर हो सकते हैं। इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि क्या इन वीडियोज से हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का और अधिक क्षरण होगा। इस समय संचार माध्यमों का उपयोग अपने हितों का विस्तार देने के औजार के तौर पर किया जा रहा है. इसका ध्यान रखना अपेक्षित है। तकनीक के हथियार से सांस्कृतिक और धार्मिक उपनिवेशवाद को मजबूत किया जा सकता है। ‘पेपा पिग’ के माध्यम से जो बातें हमारे देश के बच्चे सीख रहे हैं वो तो कम से कम इस ओर ही इशारा कर रहे है। बाल मनोविज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि बच्चे जब इस तरह के वीडियोज देखते हैं तो वो अपने आसपास की दुनिया को भी वैसा ही समझने लगते हैं। इसका असर बच्चों के बौद्धिक स्तर पर भले न पड़ता हो लेकिन उसका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। जब सामाजिक जीवन प्रभावित होता है तो संस्कृति प्रभावित होती है।

अभी हाल में भारत सरकार ने क्यूरेटेड और नॉन क्यूरेटेड सामग्री को लेकर मंत्रालयों के बीच स्थिति स्पष्ट की थी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी), जहां क्यूरेटेड सामग्री दिखाई जाती है, उसको सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन किया गया था। नॉन क्यूरेटेड सामग्री दिखाने वाले जिसमें यूट्यूब, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स आते हैं को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन किया गया। ये इन प्लेटफॉर्म्स पर चलनेवाले कंटेट पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए किया गया है। यूट्यूब पर चलनेवाले चैनलों पर अगर भारतीय संस्कृति को प्रभावित करनेवाले वीडियोज हैं तो भारत सरकार को इसको गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसा करना इस वजह से भी आवश्यक है क्योंकि हमने वो दौर भी देखा है जब कांग्रेस ने वामपंथियों को संस्कृति और उससे जुड़े विभाग आउटसोर्स किए थे। उस दौर में कालिदास के नाटकों पर चेखव के नाटकों और प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘मां’ को तरजीह दी गई। परिणाम ये निकला कि हमारा सांस्कृतिक क्षरण बहुत तेजी से हुआ। शिक्षा, भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जितना काम होना चाहिए था वो हो नहीं पाया। अंग्रेजी के दबदबे की वजह से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को मजबूती मिली। इसका असर बच्चों पर भी पड़ा। भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री ने नेपथ्य में धकेल दिया। अब तकनीक के माध्यम से जिस तरहसे भारतीय संस्कृति को दबाने का प्रयास किया जा रहा है उसका प्रतिकार जरूरी है।  

प्रतिकार का दूसरा एक तरीका ये हो सकता है कि बच्चों के लिए बेहतर वीडियोज बनाकर यूट्यूब से लेकर अन्य माध्यमों पर प्रसारित किए जाएं। इसको ठोस योजना बनाकर क्रियान्वयित किया जाए।। भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा और भारतीयता को चित्रित करते वीडियोज को बेहद रोचक तरीके से पेश करना होगा ताकि बच्चों की उसमें रुचि पैदा हो सके। हमारे पौराणिक कथाओं में कई ऐसे चरित्र हैं जो बच्चों को भा सकते हैं, जरूरत है उनकी पहचान करके बेहतर गुणवत्ता के साथ पेश किया जाए। इसके लिए सांस्थानिक स्तर पर प्रयास करना होगा क्योंकि ‘पेपा पिग’ का जिस तरह का प्रोडक्शन है वो व्यक्तिगत प्रयास से बनाना और उसकी गुणवत्ता के स्तर तक पहुंचना बहुत आसान नहीं है। इसके लिए बड़ी पूंजी की जरूरत है। व्यक्तिगत स्तर पर छिटपुट प्रयास हो भी रहे हैं लेकिन वो काफी नहीं हैं क्योंकि उनकी पहुंच बहुत ज्यादा हो नहीं पा रही है। हमारे देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक बीत चुके हैं लेकिन हमने अबतक अपनी संस्कृति को केंद्र में रखकर ठोस काम नहीं किया। आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के मौके पर फिल्म जगत के बड़े निर्माताओं ने फिल्में बनाने की घोषणा की है। करण जौहर ने इसकी घोषणा करते हुए ट्वीटर पर प्रधानमंत्री को टैग भी किया है। जरूरत इस बात की है कि करण और उनके जैसे बड़े निर्माता बच्चों के लिए मनोरंजन सामग्री बनाने के बारे में भी विचार करें। ‘पेपा पिग’ के स्तर का प्रोडक्शन हो जिसमें भारतीय संस्कृति के बारे में बताया जाए। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो ना केवल अपनी संस्कृति को सांस्कृतिक औपनिवेशिक हमलों से बचा पाएंगे बल्कि आनेवाली पीढ़ी को भी भारतीयता से जोड़कर रख पाएंगे। 


Thursday, December 24, 2020

पौराणिक भारतीय कथाओं में दिलचस्पी


कोरोना की छाया में बीत रहे इस वर्ष में भारतीय दर्शकों को पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं में गहरी दिलचस्पी देखने को मिली। लॉकडाउन के दौरान जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल दिखाने का एलान हुआ था तब इस बात की आशंका भी थी कि इतने लोकप्रिय धारावाहिकों को दूसरी बार देखा जाएगा कि नहीं। तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए रामायण धारावाहिक ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। अप्रैल में प्रसारित एपिसोड को करीब पौने आठ करोड़ दर्शकों ने देखा। रामायण के दर्शकों का ये आंकड़ा हाल फिलहाल में पूरी दुनिया में किसी भी सीरीज को हासिल नहीं हो सका है। मशहूर और बेहद लोकप्रिय सीरीज ‘द गेम ऑफ थ्रोन्स’ और ‘बिग बैंग थ्योरी’ को भी इतने अधिक दर्शक नहीं मिले थे। उनके दर्शक भी पौने दो करोड़ तक पहुंच सके थे। तब प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पति ने ट्वीट कर देशभर के दर्शकों का शुक्रिया अदा किया था और साथ ही ये जानकारी भी साझा की थी कि टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) जारी करनेवाली संस्था बीएआरसी के मुताबिक इस वर्ष के तेरहवें सप्ताह में दूरदर्शन देशभर में सबसे अधिक देखा जानेवाला चैनल बन गया। सिर्फ रामायण ही नहीं बल्कि महाभारत को भी दर्शकों ने बेहद चाव से देखा। इसके अलावा चाणक्य और शक्तिमान को मिले दर्शकों ने दूरदर्शन को अपने पुराने सीरीज के पुनर्प्रसारण का रास्ता दिखाया।

कोरोना काल के दौरान के दौरान रामायण और महाभारत को मिली अपार सफलता ने एक बार फिर से साबित किया कि हमारे देश के दर्शकों में धर्म और अध्यात्म से संबंधित चीजों को देखने जानने और समझने की लालसा है। जरूरत इस बात की है कि उनको इस तरह की श्रेष्ठ सामग्री दिखाई जाए। देश का युवा वर्ग भी अपनी परंपराओं और अध्यात्म में खासी रुचि रखता है, ये बात भी इन सीरीज की लोकप्रियता ने साबित की। हमारे देश में आध्यात्म का जो बल है, अध्यात्म की जो आतंरिक अनुभूति है उसका प्रकटीकरण भी कोरोना काल के दौरान हुआ। इसको ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित फिल्में और सीरीज बनाए जाने लगे हैं। आनेवाले दिनों में पृथ्वीराज चौहान से लेकर महाभारत की कहानियों पर आधारित फिल्में आने वाली हैं। हमारा देश कथावाचकों का देश रहा है। कथावाचन की हमारे यहां सुदीर्घ परंपरा रही है। इस कथावाचन का आधार भारतीय ऐतिहासिक और पौराणिक पात्र और चरित्र रहे हैं। फिल्मों में भी कथावाचन की इस परंपरा के सूत्र को खोजने और उसको पकड़कर दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिशें इस वर्ष आरंभ हो चुकी है।  

देसी कहानियों के बोलबाला का वर्ष


वर्ष 2020 खत्म होने को आया। लगभग पूरा वर्ष कोराना संकट से जूझते ही बीता। कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से पूरे देश के सिनेमा हॉल कई महीनों तक बंद रहे। कोरोना के भय के कम होने के बाद जब सिनेमा हॉल खुले तब भी दर्शकों का पुराना प्यार नहीं मिल पाया है। मनोरंजन के विकल्प के तौर पर लोगों की रुचि वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स में बढ़ी। फिल्में भी वहीं रिलीज होने लगीं। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या में भी अभूतपूर्व इजाफा हुआ, महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक में। ये वो घटनाएं रहीं जिनके बारे में चर्चा होती रही है लेकिन कोरोना संकट के दौरान पिछले नौ महीने में कुछ ऐसा मंहत्वपूर्ण हुआ जिसने मनोरंजन जगत को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उसकी दिशा में अहम बदलाव देखने को मिला। सबसे पहले जिस महत्ववपूर्ण बदलाव को रेखांकित करने की जरूरत है वो है कहानियों में भारतीय परिवेश और भारतीयता का बढ़ता चलन। अगर हम इस वर्ष रिलीज हुई फिल्मों और वेब सीरीज पर नजर डालें तो इनकी कहानियों में भारतीयता बोध उभर कर सामने आता है। फिल्मकारों ने उन कहानियों को तवज्जो दी और दर्शकों ने भी उसको पसंद किया जिसमें अपनी माटी की मिट्टी की खुशबू थी, अपने आसपास की कहानी होने का लगाव सा था या अपने समाज में घटी या घट रही घटनाओं का चित्रण है। जैसे अगर हम बात करें तो सबसे पहले जून में रिलीज हुई फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ का कथानक जेहन में आता है। एक हवेली के माध्यम से मिर्जा और उनकी बेगम के बीच रची गई इस कॉमेडी ड्रामा में लखनऊ का परिवेश साकार हो उठता है। इस फिल्म की कहानी के साथ साथ संवाद में भी लखनऊ की पूरी संस्कृति उपस्थित है। ‘गुलाबो सिताबो’ की रिलीज के अगले ही महीने एक और फिल्म आई जिसमें हमारे आसपास की ही एक और कहानी को दर्शकों ने खूब पसंद किया, ये फिल्म थी ‘शकुंतला देवी’। इस फिल्म में गणित की जीनियस शकुंतला देवी के बहाने दर्शकों को आजादी पूर्व के दक्षिण भारत के एक गांव का परिवेश दिखता है। वहां के सामाजिक यथार्थ से सामना होता है और फिर ये कहानी महानगरों से होती हुई दर्शकों को देश विदेश ले जाती है। इस पूरी कहानी में भारतीय परिवार के सस्कारों को स्थापित किया गया है। एक और फिल्म का उल्लेख करना आवश्यक है वो है ‘गुंजन सक्सेना, द करगिल गर्ल’। इस फिल्म में भी एक भारतीय महिला अफसर की जाबांजी के किस्से को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया है। 

हम इन फिल्मों में एक साझा सूत्र की तलाश करें तो हमें अपने देसी परिवेश और यहां का संघर्ष दिखाई देता है, भारतीय होने का गौरव दिखाई देता है। कोरोना संकट शुरू होने के पहले एक फिल्म आई थी तान्हाजी, इसमें भी हमारे देश के उस नायक को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया था जिसकी वीरता के किस्से लोकगाथाओं में गूंजते हैं। इन सबके मद्देनजर ये भी कहा जा सकता है कि ये वर्ष फिल्मों में लेखकों की वापसी का वर्ष भी रहा। बीच में इस तरह की कहानियां आ रही थीं जिनके बारे में ‘माइंडलेस कॉमेडी’ जैसे शब्द कहे जाते थे लेकिन इस वर्ष जितनी भी कहानियां आईं उसमें अगर कॉमेडी भी थी तो उसका एक अर्थ था, एक संदेश था। इस तरह की एक और फिल्म आई ‘छलांग’, जिसकी कहानी हरियाणा के एक गांव के स्कूल के इर्द गिर्द चलती है। ये भी एक कॉमेडी ड्रामा ही है लेकिन इसमें भी हरियाणा का परिवेश जीवंत हो उठता है। एक जमाना था जब विदेशी फिल्मों के प्लॉट उठातक उसको भारतीय स्थितियों में ढालकर चित्रित किया जाता था। यहां तक अब तक की सबसे हिट फिल्म मानी जानेवाली ‘शोले’ को भी कुरुसोवा की फिल्म सेवन समुराई पर आधारित माना गया था। लेकिन इस वर्ष को भारतीय फिल्मों में भारतीय कहानियों के वर्ष के तौर पर याद किया जाएगा। 

इसी तरह से अगर हम वेब सीरीज देखें तो उसमें भी भारतीय कहानियों की मांग ही बढ़ी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स पर दुनियाभर की सीरीज मौजूद हैं लेकिन भारतीय कहानियों और लोकेल पर पर बनी सीरीज अधिक पसंद की गईं। इस साल रिलीज हुई वेब सीरीज पर नजर डालें तो चाहे वो आर्या हो, पाताल लोक हो, आश्रम हो, बंदिश बैंडिट्स हो, पंचायत हो इन सबमें हमारे आसपास की कहानियां हैं। ना सिर्फ कहानियों में बल्कि इन सीरीज की भाषा और मुहावरों में भी देसी बोली के शब्दों को जगह मिलने लगी है। अगर हम याद करें तो एक वेब सीरीज आई थी जामताड़ा, सबका नंबर आएगा। इस फिल्म के संवाद में ‘कनटाप’ शब्द का उपयोग हुआ है। ये शब्द कानपुर और उसके आसपास में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह से वेब सीरीज आर्या में भी राजस्थान की भाषा सहज रूप से आती है और लोग उसको स्वीकार भी करते हैं और पसंद भी। इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है कि ये वर्ष भारतीय मनोरंजन जगत के आत्मनिर्भर होने और अपनी आंतरिक सामर्थ्य को पहचानने का वर्ष भी रहा। 

Saturday, December 19, 2020

कृतियों से गाढ़ी होती आश्वस्ति


वर्ष दो हजार बीस बीतने को आया। चंद दिनों बाद ये वर्ष भी इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा। पर दो हजार बीस को कोरोना की वजह से सदियों तक याद किया जाता रहेगा। कोरोना के अलावा भी कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनको इतिहास याद रखेगा। अगर साहित्य सृजन की दृष्टि से देखें तो ये वर्ष बहुत उत्साहजनक नहीं रहा लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी आईं जो सालों तक याद रखी जाएंगी। तीन साल पहले मशहूर और विवादित लेखिका वेंडि डोनिगर की एक किताब आई थी, ‘द रिंग ऑफ ट्रूथ, मिथ्स ऑफ सेक्स एंड जूलरी’ । उस पुस्तक के शोघ का दायरा और पूरी दुनिया के ग्रंथों से संदर्भ लेने की मेहनत पर इस स्तंभ में टिप्पणी की गई थी। तब इस बात पर अफसोस हुआ था कि हिंदी के समकालीन लेखक इस तरह का लेखन क्यों नहीं कर रहे हैं। जबकिं हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इस तरह के लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। वेंडि डोनिगर ने उक्त किताब में इस बात पर शोध किया था कि अंगूठियों का कामेच्छा से क्या संबंध रहा है ? क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका के लिए अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण रही है और है। कभी अंगूठी प्यार का प्रतीक बन जाती है तो कभी इसका उपयोग वशीकरण यंत्र के तौर पर किए जाने की चर्चा मिलती है। कई धर्मग्रंथों और शेक्सपियर से लेकर कालिदास और तुलसीदास के साहित्य से उन्होंने अंगूठी के बारे में सामग्री इकट्ठा कर उसपर विस्तार से लिखा था। 

इसी तरह से इस वर्ष मार्च में पत्रकार क्रिस्टीना लैंब की एक पुस्तक आई थी, ‘ऑवर बॉडीज देयर बैटलफील्ड, व्हाट वॉर डज टू अ वूमन’। करीब तीस साल तक युद्ध और हिंसाग्रस्त इलाके की रिपोर्टिंग करनेवाली पत्रकार क्रिस्टीना ने अपनी इस किताब में कई देशों में सैन्य कार्रवाइयों से लेकर आतंकवादी हिंसा में औरतों पर होनेवाले जुल्मों का दिल दहलानेवाला वर्णन किया है। उन्होंने अपनी किताब में सच्ची घटनाओं और पीड़ितों से बातचीत के आधार पर ये बताया है कि युद्ध और हिंसा के दौरान या फिर आतंकवादी हमले के दौरान बलात्कार को हथियार के तौर इस्तेमाल किया जाता है। जबकि 1919 में ही दुनिया के सभी देशों ने बलात्कार को युद्ध अपराध की श्रेणी में मान लिया था। इस पुस्तक का रेंज व्यापक है और इसका कैनवस ये सोचने को मजबूर करता है कि हिंदी में इस तरह का काम क्यों नहीं हो पा रहा है। 

लेकिन पिछले साल दो ऐसी पुस्तकें आईं जिसने हिंदी में हो रहे काम के प्रति एक आश्वस्ति दी। पहला काम किया है उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे बयासी साल के लेखक महेन्द्र मिश्र ने। उन्होंने सिनेमा पर बहुत श्रमपूर्वक एक पुस्तक लिखी ‘भारतीय सिनेमा’। साढे सात सौ पन्नों की इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने विस्तार से भारतीय सिनेमा के बारे में लिखा है। उन्होंने भारतीय भाषाओं में बनने वाले सिनेमा को इसमें समेटा है। जाहिर सी बात है हिंदी फिल्मों पर ज्यादा विस्तार है लेकिन महेन्द्र मिश्र ने मणिपुरी, कर्बी, बोडो, मिजो और मोनपा भाषा कि फिल्मों के बारे में भी बताया है। इसके अलावा तमिल, तेलुगू हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर भी जानकारियां हैं। लेखक ने लिखा है पुस्तक की भूमिका में लिखा है ‘जब हम सिनेमा की बात करते हैं तो अक्सर यही समझा जाता है कि मुंबई में बनने वाली हिंदी फिल्में ही भारत का सिनेमा है। यह धारणा केवल उत्तर भारत या हिंदी भाषी प्रदेशों में रहनेवालों की नहीं है, देश की बड़ी आबादी वाले कई महानगरों के निवासी भी यही सोचते हैं। देश के अन्य भाषाओं में बननेवाली मुख्यधारा की सैकड़ों फिल्मों के बारे में, खासकर तमिल तेलुगू, मलयालम भाषा की फिल्मों के बारे में कम लोग जानते हैं।‘ महेन्द्र मिश्र ने अपनी इस पुस्तक से इस स्थापित धारणा को तोड़ने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने सभी भाषाओं की महत्वपूर्ण फिल्मों के को अपने लेखन का आधार बनाया है। हिंदी में अबतक फिल्मों पर समग्रता में बहुत काम नहीं हुआ है। तथाकथित मुख्यधारा के हिंदी साहित्यकारों ने, जो वामपंथ के प्रभाव में रहे, फिल्म अध्ययन को उतना महत्व नहीं दिया जितना मिलना चाहिए था। हिंदी के लोग अब भी नहीं भूले हैं कि जब ज्ञानपीठ पुरस्कार अर्पण समारोह में अमिताभ बच्चन को आमंत्रित किया गया था तो अशोक वाजपेयी समेत कई साहित्यकारों ने इसको मर्यादा के खिलाफ बताया था। महेन्द्र मिश्र की इस पुस्तक से एक उम्मीद जगी है कि भविष्य में भी भारतीय फिल्मों पर गंभीर काम हो सकेगा। 

इसी तरह से उत्तर प्रदेश के ही रामपुर के राजकीय महिला महाविद्यालय में कार्यरत डॉ अलिफ नाजिम ने एक बेहद महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने उर्दू के महान शायर मुंशी दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबादी की कविताओं को एक जगह जमा करके उनके समग्र का संपादन किया। कई बार इस बात को लेकर भ्रम हो जाता है कि सुरूर जहानाबादी बिहार के कवि थे और इनका जन्म बिहार के जहानाबाद में हुआ था। लेकिन सचाई तो ये है कि सुरूर जहानाबादी का बिहार के जहानाबाद से कोई लेना देना नहीं है। अलिफ नाजिम साहब लिखते हैं कि ‘जो जहानाबाद दुर्गा सहाय सुरूर के उपनाम का हिस्सा बनकर साहित्य की दुनिया में अमर हो गया है उसका संबंध बिहार से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश से है।‘ ये पीलीभीत जिले का एक कस्बा है। अपनी जिंदगी के शुरुआती दिन जहानाबाद में बिताने के बाद रोजगार की तलाश में दुर्गा सहाय मेरठ आ गए और यहां विद्या प्रकाशन में सहायक संपादक की नौकरी कर ली। अलिफ नाजिम के मुताबिक दुर्गा सहाय ने यहीं अपने नाम के साथ सुरूर लगाना शुरू किया। सुरूर को सैंतीस साल की उम्र मिली। इतनी छोटी उम्र में उनकी पत्नी और बेटे का निधन हो गया। पत्नी की मृत्यु के सदमे से उबरे तो ‘दुनिया की उजड़ी गुई दुल्हन’ जैसी कविता लिखकर अपनी चुप्पी तोड़ी। बेटे की मौत पर ‘दिले-बेकरार सोजा’ जैसी रचना लिखी जिसको पढ़कर किसी का भी ह्रदय द्रवित हो सकता है। इतनी छोटी उम्र में ही सुरूर को बेहद प्रसिद्धि मिली थी। अल्लामा इकबाल से सुरूर के संबंध बहुत अच्छे थे और इकबाल उनकी बहुत इज्जत करते थे। इकबाल ने एक दौर में अपने आप को शायरी से अलग कर लिया था। तब सुरूर ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था, ‘फिजा-ए-बरशगाल और प्रोफेसर इकबाल’। ये कविता 1906 में लाहौर से प्रकाशित होनेवाले अखबार ‘मखजन’ में प्रकाशित हुई। इसको पढ़कर इकबाल ने तुरंत एक नई कविता लिखकर संपादक को भेज दी। संपादक को लिखे अपने पत्र में इकबाल ने लिखा कि ‘सुरूर मेरी खामोशी तोड़ना चाहते हैं, वो कहीं खफा न हो जाएं इसलिए ये गजल भेज रहा हूं।‘ इससे सुरूर की महत्ता समझी जा सकती है। आज भी देश के जिन भी विश्वविद्यालयों में उर्दू पढ़ाई जाती है लगभग सभी में सुरूर की कविताएं पढ़ाई जाती हैं। अलिफ नाजिम ने देशभर के अलग अलग पुस्तकालायों से खोजकर सुरूर की कविताओं को समग्र में संग्रहीत कर बड़ा काम किया है। 

एक बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि ‘भारतीय सिनेमा’ और ‘सुरूर जहानाबादी समग्र’ दोनों का प्रकाशन दिल्ली से नहीं हुआ, दोनों के लेखक दिल्ली में नहीं रहते। एक का प्रकाशन प्रयागराज से हुआ है तो दूसरे का प्रकाशन बठिंडा, पंजाब से हुआ है। ये सिर्फ इस वजह से कह रहा हूं कि दिल्ली में हो रहे लेखन को ज्यादा महत्व न देकर हमें अपने देश के अलग अलग हिस्सों के विद्वानों के कामों को रेखांकित करना चाहिए। इससे हिंदी के बारे में बन रही गलत राय का भी निषेध हो सकेगा।   


Saturday, December 12, 2020

प्रत्येक के लिए मातृभाषा,सबकी हिंदी


कोरोना संकट शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद शशि थरूर के साथ एक संवाद में हिस्सा लेने का अवसर मिला था। ये संवाद उनके लेखन से लेकर हिंदी को लेकर उनकी सोच पर केंद्रित हो गई थी। आयोजन प्रभा खेतान फाउंडेशन का था। उस कार्यक्रम में मैंने शशि थरूर से एक प्रश्न पूछा था कि गैर हिंदी भाषी विद्वानों ने कभी कहा था कि अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की साझा दुश्मन है। इस क्रम में मैंने भूदेव मुखर्जी और सी राजगोपालाचारी का नाम लिया था। तब शशि ने मेरी बात का प्रतिवाद किया था और कहा था कि राजगोपालाचारी जी ने ये नहीं कहा था, वो सबकुछ अंग्रेजी में करते थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि राजगोपालाचारी जी ऐसा सोचते और कहते थे। अभी पिछले दिनों किसी शोध के क्रम में ये जानकारी मिली कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को राजगोपालाचारी जी का संरक्षण प्राप्त था और उनके मार्गदर्शन में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को काफी विस्तार मिला था। वो बहुत रुचि लेकर हिंदी प्रचार समिति के काम को आगे बढ़ाते थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक पुस्तक है ‘वट पीपल’ जो उनके निबंधों का संग्रह है। उसमें इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से राजगोपालाचारी हिंदी के विकास के लिए काम करते थे। 1928 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति की एक पाठ्य पुस्तक की भूमिका में उन्होंने दक्षिण भारतीय लोगों को ये सलाह दी थी कि ’जनता की भाषा एक और शासन की भाषा दूसरी होने से जनता संसद तथा विधानसभा के सदस्यों पर समुचित नियंत्रण नहीं रख सकेगी, इसलिए उचित यही है कि हम अपनी सुविधा के लोभ में आकर अंग्रेजी के लिए दुराग्रह न करें। यदि अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही तो इससे देश का स्वराज्य अधूरा रहेगा।‘ 1937 में जब राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री बने तो उस समय भी वो हिंदी विरोधियों के साथ काफी कड़ाई से पेश आते थे। इसी तरह से राजगोपालाचारी ने प्रजातंत्र पर एक छोटी सी पुस्तिका निकाली थी, उसमें भी उन्होंने हिंदी की पैरोकारी की थी और इस बात की पुरजोर वकालत की थी कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा हो कर रहेगी। हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी की ये राय काफी लंबे समय तक रही थी। स्वतंत्रता मिलने तक तो थी ही। 

ये भी सत्य है कि जब देश को स्वतंत्रता मिली और संविधान को अपनाने के साथ ही हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा मिला तो दक्षिण भारत में एक बार फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हो गए। इस आंदोलन का भाषा से अधिक राजनीति से लेना देना था। बाद में तो हिंदी को अंग्रेजी जैसा ही विदेशी भाषा तक करार दे दिया था। अन्नादुरैई और पेरियार के साथ मिलकर राजगोपालाचारी ने हिंदी के खिलाफ आंदोलन किया। 1965 में जब एक बार फिर से हिंदी के विरोध में आंदोलन शुरू हुआ तो राजगोपालाचारी ने हिंदी का विरोध किया। ये सब दर्ज है लेकिन हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी के विचारों में ये बदलाव या विचलन राजनीति की वजह से आई। हिंदी के प्रति उनके विरोध का ये अर्थ नहीं था कि उनका अंग्रेजी का विरोध कम हो गया था। मुझ लगता है शशि थरूर राजगोपालाचारी के बाद के स्टैंड पर बात कर रहे थे और मैं उनकी आरंभिक राय से भी भिज्ञ था। उस दौर के अन्य दस्तावेजों और पुस्तकों को खंगालने के बाद एक बात समझ आई कि इस देश में राजनीति ने भारतीय भाषाओं का बहुत नुकसान किया। हिंदी ने कभी भी अपने बड़े होने का दंभ नहीं भरा लेकिन ये बात सुनियोजित तरीके से फैलाई गई। 

हिंदी को लेकर जिस तरह की राजनीति इस देश में होती रही है और उसका फायदा जिस तरह से अंग्रेजी वाले उठाते रहे हैं, उसको रेखांकित करना बेहद जरूरी है। साहित्य अकादमी के एक वाकए का स्मरण होता है। विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। यहां ये बताते चलें कि विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के पहले हिंदी भाषी अध्यक्ष थे। तिवारी जी के कार्यकाल में एक बैठक के दौरान अंग्रेजी का एक प्रर्तिनिधि खड़ा हुआ और तमतमाते हुए कहा कि आपको अंग्रेजी में अपना भाषण देना चाहिए क्योंकि यहां हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रतिनिधि बैठे हैं। तब भारतीय भाषाओं के लोगों ने अंग्रेजी के प्रतिनिधि को चुप करवा दिया था और तिवारी जी से हिंदी में अपना भाषण जारी रखने का अनुरोध किया था।  दरअसल अंग्रेजी के लोगों ने हमेशा से हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की। गैर-हिंदी भाषी लोगों के मन में ये बात बैठाई कि अगर हिंदी का फैलाव होता है तो वो अन्य भारतीय भाषाओं तो दबा देगी। अंग्रेजी वालों को ये डर हमेशा सताते रहता है कि उनको चुनौती सिर्फ हिंदी से ही मिल सकती है। अगर हिंदी को सभी भारतीय भाषाओं का साथ मिल गया तो उनका बोरिया बिस्तर बंध सकता है। इसलिए वो लगातार भ्रामक बातें फैलाते रहते हैं जबकि सचाई ये है कि अगर हिंदी का विकास होता है तो उसके साथ सभी भारतीय भाषाओं का विकास होगा। अंग्रेजी को अगर हटाया जाता है तो जो स्थान रिक्त होगा वो सारा स्थान हिंदी को तो मिलेगा नहीं बल्कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति सभी भारतीय भाषाओं से होगी। गांधी भी हमेशा ये कहते थे कि हिंदी को अपनाने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अपनी अन्य भाषाओं का तिरस्कार। एक बात और कही जाती है कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है। होगी, लेकिन कोरोनाकाल में जिस तरह से भारतीय चिकित्सा पद्धति से लेकर भारतीय जीवन शैली की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया है उसमें अंग्रेजी कहां है, इसपर विचार करने की भी जरूरत है। आपदा ने इस बात का निषेध ही नहीं बल्कि स्थापित भी कर दिया कि सिर्फ अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा नहीं है।  

अभी पिछले दिनों राष्ट्रीय शिक्षा नीति पेश की गई है। शिक्षा नीति का जो दस्तावेज बना है उसमें हिंदी का नामोल्लेख न होना अचरच में डालता है। क्या शिक्षा नीति बनानेवालों को या इसको ड्राफ्ट करनेवालों को भारतीय संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों का भान नहीं था या फिर वहां भी राजनीति घुस गई थी। क्या जानबूझकर एक रणनीति के तहत हिंदी का नामोल्लेख नहीं हुआ है? या फिर दक्षिण भारतीय राजनीतिक दल के आसन्न विरोध को ध्यान में रखते हुए शिक्षा नीति में एक बार भी हिंदी के नामोल्लेख से बचा गया। कई लोगों के तर्क हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जब भारतीय भाषा का जिक्र है तो अलग से हिंदी के उल्लेख का कोई औचित्य नहीं है। अगर ऐसा है तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के पहले संविधान को संशोधित किया जाना चाहिए, उसके निदेशों में बदलाव किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारत के लोग हिंदी नहीं समझते हैं। इन प्रदेशों में रहनेवाले लोग अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी समझते हैं। हिंदी की व्याप्ति बहुत बढ़ी है और इस वजह से संवाद की सुगमता भी। दरअसल हमें इस बारे में विचार करना चाहिए कि प्रत्येक के लिए मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। इसमें किसी तरह का कोई बड़ा भाई छोटे भाई जैसा भाव नहीं है। हिंदी को देश की संपर्क भाषा के रूप में मजबूती देनी होगी क्योंकि संपर्क भाषा तो वो बन ही चुकी है। हिंदी के खिलाफ जिस तरह की राजनीति होती है उसको समझने के लिए सिर्फ इतना जानना जरूरी है कि तमिलनाडु के राजनीतिक दल भी चुनाव के दौरान मदुरै इलाके में हिंदी में पोस्टर लगाते हैं। उनका हिंदी विरोध सिर्फ भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरना है। उनको ये समझना होगा कि सत्ता हासिल करने के लिए के लिए भाषा को औजार के तौर पर उपयोग करना अनुचित होगा। 

Saturday, December 5, 2020

हिंदी को लेकर उदासीनता का भाव क्यों?


पिछले महीने की सत्ताइस तारीख को शिक्षा मंत्रालय ने पूर्व आईएएस अधिकारी और राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एन गोपालस्वामी की अध्यक्षता में ग्यारह सदस्यों की एक समिति का गठन किया। इस समिति का गठन मैसूर में भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन की स्थापना की कार्ययोजना तैयार करना है। इस समिति से अपेक्षा की गई है कि वो भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना और उसके अंतर्गत इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन को स्वायत्त संस्था के तौर पर स्थापित करने के नियम आदि को भी तय करे। इसके अलावा समिति भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन के उद्देश्य और लक्ष्य भी तय करें। साथ ही ये भी कहा गया है कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान के उद्देश्यों को भी इसमें शामिल करे। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है वो ये है कि इस समिति को मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान के जमीन, इमारत, मानव संसाधन का आकलन भी करना है ताकि प्रस्तावित भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना में उसका उपयोग किया जा सके। यही समिति यह भी सुझाएगी कि भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय मे तब्दील करने के लिए कितना वित्तीय संसाधन लगेगा। इस समिति के गठन से एक बात तो साफ हो गई है कि शिक्षा मंत्रालय मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय में बदलने का निर्णय कर चुकी है। उसके उद्देश्यों में संशोधन करके या दायरा विस्तृत करके। 

दरअसल भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का प्रस्ताव ढाई साल पुराना है। भारतीयता में विश्वास रखनेवाले संगठनों और व्यक्तियों ने कई दौर की बैठकों के बाद यह तय किया गया था कि भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का एक विश्वविद्यालय बनाया जाए और इसका एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाए। यह प्रस्ताव भारतीय संविधान की मूल भावनाओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक भाषा के बारे में विस्तार से चर्चा है। जब हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा था तो अनुच्छेद 343 और 351 का विशेष ध्यान रखा गया था। अनुच्छेद 343 साफ तौर पर कहता है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश दिए गए हैं। वहां कहा गया है कि ‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक और वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘  इस अनुच्छेद की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए गंभीरता से काम नहीं हुआ। स्वतंत्रता के बाद हमने अपने संविधान को 1950 में अपनाया लेकिन उसके सत्तर साल बाद भी हिंदी को लेकर संविधान के निदेश पूरे नहीं हो पाए हैं। हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अकादमिक तौर पर लेकर चलने की ठोस योजना कार्यान्वयित नहीं हुई। अलग अलग भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय तो बने लेकिन ऐसा कोई शैक्षणिक परिसर नहीं बन पाया जहां संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल सभी भाषाओं का अध्ययन अध्यापन हों। आंध्र प्रदेश में दविड़ भाषाओं को लेकर 1997 में द्रविडियन युनिवर्सिटी की स्थापना हुई, जहां तमिल तेलुगू और कन्नड़ की पढ़ाई होती है। 

स्वतंत्रता के तिहत्तर साल बाद अब जाकर भी भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय पर काम शुरू हो रहा है तो ये भी संविधान के अनुच्छेद 351 की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। मैसूर में भारतीय भाषा संस्थान की स्थापना उन्नीस सौ उनहत्तर में हुई थी, अब उस संस्थान का नाम और उद्देश्यों का दायरा बढ़ाकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय बनाने की कोशिश हो रही है। इस देश में ‘द इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज युनिवर्सिटी’ की स्थापना हो सकती है लेकिन हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का विश्वविद्यालय बनाने में हिचक हो रही है। 2018 में आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर नंदकिशोर पांडे ने 28 मई 2018 को हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का एक प्रस्ताव सरकार को भेजा था। तब ये बात कही गई थी कि भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए। अलग अलग भाषाओं और उससे संबद्ध बोलियों में बिखरी हुई वाचिक परंपरा की सामग्री को संग्रहीत कर लिपिबद्ध करना, भारतीयता के तत्वों के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की वाचिक परंपरा का अन्वेषण करना और भारतीय ज्ञान परंपरा को नई तकनीक से जोड़कर संरक्षित करना इसका उद्देश्य होगा। साल डेढ़ साल तक इस प्रस्ताव पर मंथन होता रहा, प्रस्ताव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से होकर मंत्रालय पहुंचा। लेकिन 2019 में आम चुनाव की घोषणा के साथ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। फिर विभागीय मंत्री बदल गए, सचिव बदल गए। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का नाम भी बदल गया। अब ये भारतीय भाषा विश्वविद्यालय के रूप में सामने आया है। इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी क्यों हटा, इसका कारण ज्ञात नहीं हो सका है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 351 में साफ तौर से इस बात का निदेश है कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साहचर्य से समृद्ध करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहीं हिंदी का उल्लेख नहीं है, क्या प्रस्तावित विश्वविद्यालय से भी हिंदी का नाम इस वजह से हटा दिया गया है? या फिर राजनीति के दबाव में विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी हटाई गई? 

दूसरी बात ये कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान का नाम बदलकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय करने से बहुत सकारात्मक परिणाम की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। भारतीय भाषा संस्थान का उद्देश्य अलग और महत्वपूर्ण है, वहां भाषा के शब्दों उत्पत्ति पर अनुसंधान किया जाता है। उसको किसी विश्वविद्यालय के एक विभाग में बदल देने से उसके काम-काज पर असर पड़ेगा और उसकी व्यापकता संकुचित होगी। होना तो यह चाहिए था कि भारतीय भाषा संस्थान को मजबूत किया जाता और अलग से एक हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना की जाती। ये विश्वविद्यालय किसी हिंदी भाषी प्रदेश में स्थापित किया जाना चाहिए ताकि गैर हिंदी भाषी प्रदेश के लोग वहां आकर हिंदी प्रदेशों के लोगों की मानसिकता को भी समझ सकते और जब हिंदी को लेकर राजनीति होती तो उसका निषेध अपने प्रदेशों में करते।   

दरअसल हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की आवश्यकता इस वजह से भी है कि हिंदी और उसकी उपभाषाओं या बोलियों में बहुत काम करने की आवश्यकता है। इसको मशहूर पुस्तक लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन के इस निष्कर्ष से समझा जा सकता है, जिन बोलियों से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वे किसी भी विचार को पूरी सफाई के साथ अभिव्यक्त कर सकती हैं। हिंदी के पास देसी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं। हिंदी शब्द भंडार इतना विशाल और उसकी अभिव्यंजना शक्ति ऐसी है जो अंग्रेजी से शायद ही हीन कही जा सके।‘ केंद्र में जब मोदी की सरकार बनी थी तो हिंदी को लेकर सकारात्मक माहौल बना था, क्या एक बार फिर हिंदी राजनीति की शिकार हो जाएगी?