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Saturday, December 26, 2020

सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का प्रतिकार हो


अभी अभी क्रिसमस बीता है, उस अवसर पर एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने बताया कि क्रिसमस के दो दिन पहले उनकी तीन साल की बिटिया ने उनसे पूछा कि ‘व्हेयर इज माइ क्रिसमस ट्री (मेरा क्रिसमस ट्री कहां है)?’ उसके पहले भी वो अपनी बिटिया के बारे में बताते रहते थे कि कैसे अगर वो ब्रश नहीं करती है तो उसको कार्टून सीरियल दिखाना पड़ता है आदि-आदि। वो इस बात को लेकर चिंता प्रकट करते रहते थे कि बच्चों पर इन कार्टून सीरियल्स का असर पड़ रहा है। लेकिन जब क्रिसमस ट्री वाली बात बताते हुए उन्होंने कहा कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि बच्चे कहने लगें कि ‘टुडे इज संडे, लेट्स गो टूट चर्च’ ( आज रविवार है, चलो चर्च चलते हैं) । ये सुनने के बाद मुझे लगा कि उनकी बातों में एक गंभीरता हैं। उनसे बातचीत होने के क्रम में ही एक और मित्र से हुई बातचीत दिमाग में कौंधी। उसने भी अपने दो साल के बेटे के उच्चारण के बारे में बताया था कि वो इन दिनों ‘शूज’ को ‘शियूज’ कहने लगा है। इन दोनों में एक बात समान थी कि दोनों के बच्चे यूट्यूब पर चलनेवाले सीरियल ‘पेपा पिग’ देखते हैं और दोनों उसके दीवाने हैं। लॉकडाउन के दौरान जब बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे और घर पर थे तो ‘पेपा पिग’ और भी लोकप्रिय हो गया। यूट्यूब पर इसका अपना चैनल है जिसको लाखो बच्चे देखते हैं। ‘पेपा पिग’ चार साल की है जिसका एक भाई है ‘जॉर्ज’ और उसके परिवार में मम्मी पिग और डैडी पिग हैं। बच्चे इसके दीवाने हैं कि ‘पेपा पिग’ के चित्र वाला स्कूल बैग से लेकर पानी की बोतल, लंच बॉक्स तक बाजार में मिलते है। बच्चे इन सामग्रियों को बहुत पसंद करते हैं। कई छोटे बच्चों के माता-पिता से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘पेपा पिग’ उनके लिए बहुत मददगार है क्योंकि जब बच्चा जिद करता है या खाना नहीं खाता है तो उसको ‘पेपा पिग’ के उस जिद से संबंधित वीडियो दिखा देते हैं और वो खाने को तैयार हो जाता है। ये कार्टून कैरेक्टर के वीडियोज को ब्रिटेन की एक कंपनी बनाती है और उसको यूट्यूब पर नियमित रूप से अपलोड करती है। 

ये बातें बेहद सामान्य बात लग सकती है। ‘पेपा पिग’ के वीडियोज के संदर्भ में ये तर्क भी दिया जा सकता है कि वो परिवार की संकल्पना को मजबूत करता है। ये बात भी सामने आती है कि ब्रिटेन में जब पारिवारिक मूल्यों का लगभग लोप हो गया तब बच्चों को परिवार नाम की संस्था की महत्ता के बारे में बताने के लिए ‘पेपा पिग’ का सहारा लिया गया है। वो वहां काफी लोकप्रिय हो रहा है लेकिन उन्होंने इन वीडियोज को अपने धर्म, अपनी संस्कृति के हिसाब से बनाया है। लेकिन जिस तरह का असर हमारे देश के बच्चों पर पड़ रहा है, जिस तरह की बातों का उल्लेख ऊपर किया गया है, उसके बाद इन वीडियोज के हमारे देश में प्रसारण के बारे में विचार किया जाना चाहिए। अगर मेरे मित्रों की कही गई बातों का ध्यान से विश्लेषण करें तो इससे बच्चों के दिमाग में एक ऐसी संस्कृति की छाप पड़ रही है जो भारतीय नहीं है। बालमन पर पड़ने वाले इस प्रभाव का दूरगामी असर हो सकता है। बच्चे अपनी भारतीय संस्कृति से दूर हो सकते हैं। इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि क्या इन वीडियोज से हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का और अधिक क्षरण होगा। इस समय संचार माध्यमों का उपयोग अपने हितों का विस्तार देने के औजार के तौर पर किया जा रहा है. इसका ध्यान रखना अपेक्षित है। तकनीक के हथियार से सांस्कृतिक और धार्मिक उपनिवेशवाद को मजबूत किया जा सकता है। ‘पेपा पिग’ के माध्यम से जो बातें हमारे देश के बच्चे सीख रहे हैं वो तो कम से कम इस ओर ही इशारा कर रहे है। बाल मनोविज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि बच्चे जब इस तरह के वीडियोज देखते हैं तो वो अपने आसपास की दुनिया को भी वैसा ही समझने लगते हैं। इसका असर बच्चों के बौद्धिक स्तर पर भले न पड़ता हो लेकिन उसका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। जब सामाजिक जीवन प्रभावित होता है तो संस्कृति प्रभावित होती है।

अभी हाल में भारत सरकार ने क्यूरेटेड और नॉन क्यूरेटेड सामग्री को लेकर मंत्रालयों के बीच स्थिति स्पष्ट की थी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी), जहां क्यूरेटेड सामग्री दिखाई जाती है, उसको सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन किया गया था। नॉन क्यूरेटेड सामग्री दिखाने वाले जिसमें यूट्यूब, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स आते हैं को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन किया गया। ये इन प्लेटफॉर्म्स पर चलनेवाले कंटेट पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए किया गया है। यूट्यूब पर चलनेवाले चैनलों पर अगर भारतीय संस्कृति को प्रभावित करनेवाले वीडियोज हैं तो भारत सरकार को इसको गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसा करना इस वजह से भी आवश्यक है क्योंकि हमने वो दौर भी देखा है जब कांग्रेस ने वामपंथियों को संस्कृति और उससे जुड़े विभाग आउटसोर्स किए थे। उस दौर में कालिदास के नाटकों पर चेखव के नाटकों और प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘मां’ को तरजीह दी गई। परिणाम ये निकला कि हमारा सांस्कृतिक क्षरण बहुत तेजी से हुआ। शिक्षा, भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जितना काम होना चाहिए था वो हो नहीं पाया। अंग्रेजी के दबदबे की वजह से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को मजबूती मिली। इसका असर बच्चों पर भी पड़ा। भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री ने नेपथ्य में धकेल दिया। अब तकनीक के माध्यम से जिस तरहसे भारतीय संस्कृति को दबाने का प्रयास किया जा रहा है उसका प्रतिकार जरूरी है।  

प्रतिकार का दूसरा एक तरीका ये हो सकता है कि बच्चों के लिए बेहतर वीडियोज बनाकर यूट्यूब से लेकर अन्य माध्यमों पर प्रसारित किए जाएं। इसको ठोस योजना बनाकर क्रियान्वयित किया जाए।। भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा और भारतीयता को चित्रित करते वीडियोज को बेहद रोचक तरीके से पेश करना होगा ताकि बच्चों की उसमें रुचि पैदा हो सके। हमारे पौराणिक कथाओं में कई ऐसे चरित्र हैं जो बच्चों को भा सकते हैं, जरूरत है उनकी पहचान करके बेहतर गुणवत्ता के साथ पेश किया जाए। इसके लिए सांस्थानिक स्तर पर प्रयास करना होगा क्योंकि ‘पेपा पिग’ का जिस तरह का प्रोडक्शन है वो व्यक्तिगत प्रयास से बनाना और उसकी गुणवत्ता के स्तर तक पहुंचना बहुत आसान नहीं है। इसके लिए बड़ी पूंजी की जरूरत है। व्यक्तिगत स्तर पर छिटपुट प्रयास हो भी रहे हैं लेकिन वो काफी नहीं हैं क्योंकि उनकी पहुंच बहुत ज्यादा हो नहीं पा रही है। हमारे देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक बीत चुके हैं लेकिन हमने अबतक अपनी संस्कृति को केंद्र में रखकर ठोस काम नहीं किया। आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के मौके पर फिल्म जगत के बड़े निर्माताओं ने फिल्में बनाने की घोषणा की है। करण जौहर ने इसकी घोषणा करते हुए ट्वीटर पर प्रधानमंत्री को टैग भी किया है। जरूरत इस बात की है कि करण और उनके जैसे बड़े निर्माता बच्चों के लिए मनोरंजन सामग्री बनाने के बारे में भी विचार करें। ‘पेपा पिग’ के स्तर का प्रोडक्शन हो जिसमें भारतीय संस्कृति के बारे में बताया जाए। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो ना केवल अपनी संस्कृति को सांस्कृतिक औपनिवेशिक हमलों से बचा पाएंगे बल्कि आनेवाली पीढ़ी को भी भारतीयता से जोड़कर रख पाएंगे। 


2 comments:

Dilip Kumar Singh said...

हमेशा की तरह विचारोत्तेजक लेख। अपने बच्चों की रुचियों के मनोविज्ञान को समझने में ये लेख मददगार है।

शिवम कुमार पाण्डेय said...

चिंता का विषय जिसपर सरकार को ध्यान देने कि जरुरत है।