वर्ष 2020 खत्म होने को आया। लगभग पूरा वर्ष कोराना संकट से जूझते ही बीता। कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से पूरे देश के सिनेमा हॉल कई महीनों तक बंद रहे। कोरोना के भय के कम होने के बाद जब सिनेमा हॉल खुले तब भी दर्शकों का पुराना प्यार नहीं मिल पाया है। मनोरंजन के विकल्प के तौर पर लोगों की रुचि वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स में बढ़ी। फिल्में भी वहीं रिलीज होने लगीं। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या में भी अभूतपूर्व इजाफा हुआ, महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक में। ये वो घटनाएं रहीं जिनके बारे में चर्चा होती रही है लेकिन कोरोना संकट के दौरान पिछले नौ महीने में कुछ ऐसा मंहत्वपूर्ण हुआ जिसने मनोरंजन जगत को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उसकी दिशा में अहम बदलाव देखने को मिला। सबसे पहले जिस महत्ववपूर्ण बदलाव को रेखांकित करने की जरूरत है वो है कहानियों में भारतीय परिवेश और भारतीयता का बढ़ता चलन। अगर हम इस वर्ष रिलीज हुई फिल्मों और वेब सीरीज पर नजर डालें तो इनकी कहानियों में भारतीयता बोध उभर कर सामने आता है। फिल्मकारों ने उन कहानियों को तवज्जो दी और दर्शकों ने भी उसको पसंद किया जिसमें अपनी माटी की मिट्टी की खुशबू थी, अपने आसपास की कहानी होने का लगाव सा था या अपने समाज में घटी या घट रही घटनाओं का चित्रण है। जैसे अगर हम बात करें तो सबसे पहले जून में रिलीज हुई फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ का कथानक जेहन में आता है। एक हवेली के माध्यम से मिर्जा और उनकी बेगम के बीच रची गई इस कॉमेडी ड्रामा में लखनऊ का परिवेश साकार हो उठता है। इस फिल्म की कहानी के साथ साथ संवाद में भी लखनऊ की पूरी संस्कृति उपस्थित है। ‘गुलाबो सिताबो’ की रिलीज के अगले ही महीने एक और फिल्म आई जिसमें हमारे आसपास की ही एक और कहानी को दर्शकों ने खूब पसंद किया, ये फिल्म थी ‘शकुंतला देवी’। इस फिल्म में गणित की जीनियस शकुंतला देवी के बहाने दर्शकों को आजादी पूर्व के दक्षिण भारत के एक गांव का परिवेश दिखता है। वहां के सामाजिक यथार्थ से सामना होता है और फिर ये कहानी महानगरों से होती हुई दर्शकों को देश विदेश ले जाती है। इस पूरी कहानी में भारतीय परिवार के सस्कारों को स्थापित किया गया है। एक और फिल्म का उल्लेख करना आवश्यक है वो है ‘गुंजन सक्सेना, द करगिल गर्ल’। इस फिल्म में भी एक भारतीय महिला अफसर की जाबांजी के किस्से को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया है।
हम इन फिल्मों में एक साझा सूत्र की तलाश करें तो हमें अपने देसी परिवेश और यहां का संघर्ष दिखाई देता है, भारतीय होने का गौरव दिखाई देता है। कोरोना संकट शुरू होने के पहले एक फिल्म आई थी तान्हाजी, इसमें भी हमारे देश के उस नायक को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया था जिसकी वीरता के किस्से लोकगाथाओं में गूंजते हैं। इन सबके मद्देनजर ये भी कहा जा सकता है कि ये वर्ष फिल्मों में लेखकों की वापसी का वर्ष भी रहा। बीच में इस तरह की कहानियां आ रही थीं जिनके बारे में ‘माइंडलेस कॉमेडी’ जैसे शब्द कहे जाते थे लेकिन इस वर्ष जितनी भी कहानियां आईं उसमें अगर कॉमेडी भी थी तो उसका एक अर्थ था, एक संदेश था। इस तरह की एक और फिल्म आई ‘छलांग’, जिसकी कहानी हरियाणा के एक गांव के स्कूल के इर्द गिर्द चलती है। ये भी एक कॉमेडी ड्रामा ही है लेकिन इसमें भी हरियाणा का परिवेश जीवंत हो उठता है। एक जमाना था जब विदेशी फिल्मों के प्लॉट उठातक उसको भारतीय स्थितियों में ढालकर चित्रित किया जाता था। यहां तक अब तक की सबसे हिट फिल्म मानी जानेवाली ‘शोले’ को भी कुरुसोवा की फिल्म सेवन समुराई पर आधारित माना गया था। लेकिन इस वर्ष को भारतीय फिल्मों में भारतीय कहानियों के वर्ष के तौर पर याद किया जाएगा।
इसी तरह से अगर हम वेब सीरीज देखें तो उसमें भी भारतीय कहानियों की मांग ही बढ़ी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स पर दुनियाभर की सीरीज मौजूद हैं लेकिन भारतीय कहानियों और लोकेल पर पर बनी सीरीज अधिक पसंद की गईं। इस साल रिलीज हुई वेब सीरीज पर नजर डालें तो चाहे वो आर्या हो, पाताल लोक हो, आश्रम हो, बंदिश बैंडिट्स हो, पंचायत हो इन सबमें हमारे आसपास की कहानियां हैं। ना सिर्फ कहानियों में बल्कि इन सीरीज की भाषा और मुहावरों में भी देसी बोली के शब्दों को जगह मिलने लगी है। अगर हम याद करें तो एक वेब सीरीज आई थी जामताड़ा, सबका नंबर आएगा। इस फिल्म के संवाद में ‘कनटाप’ शब्द का उपयोग हुआ है। ये शब्द कानपुर और उसके आसपास में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह से वेब सीरीज आर्या में भी राजस्थान की भाषा सहज रूप से आती है और लोग उसको स्वीकार भी करते हैं और पसंद भी। इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है कि ये वर्ष भारतीय मनोरंजन जगत के आत्मनिर्भर होने और अपनी आंतरिक सामर्थ्य को पहचानने का वर्ष भी रहा।
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